वे मनुष्य ही थे...
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झुंड-झुंड में चलानेवाले
बारीक पतले देह के
तेल लगे काले रंग के
अधनंगे,
खुले बदन,
तोतले से
झुर्रियों वाले खामोश चेहरे के
पेट अंदर गये हुए
खोपड़ी में सिर अटके हुए
सिर पर उनके घगरी-मटके
शरीर कंधों पर बाल-बच्चे
संघर्ष करते निकाल पड़े,
जीने के लिए
वे मनुष्य ही थे…
(कविता संग्रह - अनुभूती - 1994)
अनुवादक - नितिन पाटिल
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