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अगर हम सुधर गये [व्यंग्य]- वीरेन्द्र सरल

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नौटंकी लाल को लेंस वाले चश्में पहनकर सोते हुये देखकर मेरा दिमाग घूम गया। चश्में के प्रति इतनी आसक्ति समझ मे नही आ रही थी। आँखे कमजोर हो जाने पर लोग दिनभर चश्मा लगाते हैं, ये अलग बात है पर नींद मे चश्मा लगाकर सोना घोर आश्चर्य का विषय था।

 वीरेन्द्र ‘सरल‘रचनाकार परिचय:-



नामः-वीरेन्द्र ‘सरल‘ पिताः- स्व द्विजराम साहू माताः-श्रीमती भानबाई साहू जन्म तिथिः-14-06-1971 शिक्षाः-एम ए (हिन्दी साहित्य) सृजन यात्राः-1997 से प्रकाषित कृति-‘कार्यालय तेरी अकथ कहानी‘ यष पब्लिकेशन्स दिल्ली (राश्ट्रीय स्तर पर चर्चित व्यंग्य संग्रह) पुरस्कार, सम्मान- (1) शब्द शिल्पी सम्मान1999, संगम साहित्य समिति मगरलोड़ (2)दिशाबोध विभूति सम्मान 2012 दिशाबोध साहित्य समिति आदर्शग्राम नवागाँव (मगरलोड़) (3) गौर गौरव सम्मान 2013 सृजन साहित्य समिति कोरबा (छ ग ) (4) हरिशंकर परसाई सम्मान 2013 भारतीय साहित्य सृजन संस्थान पटना (बिहार प्रकाषन-दैनिक अखबारों एवं राश्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाषन पताः-ग्राम बोड़रा,पोश्ट-भोथीडीह,व्हाया-मगरलोड़ ,जिला-धमतरी (छ ग) मो-7828243377

दरअसल मैं नौंटंकी लाल के साथ ही एक नाटक मंडली मे काम करता था। उसी संबंध मे उससे कुछ चर्चा करने के लिये उसके घर गया था। मै अब नाटक की बात भूलकर इस चश्में के रहस्य को जानने के लिये उसके सिरहाने पर बैठकर उसके जागने का इंतजार करने लगा ।

कुछ देर बाद उसकी नींद टूटी। वह जम्हाई लेते हुये उठा , चश्में को पोछकर पहना और फिर सोने लगा। मै उसे धमकाने के अंदाज मे जोर से गाने लगा, जागो मोहन प्यारे। वह अपना कान दबाकर बोला,-‘‘अरे वो बिना साइलेंसर के ट्रेक्टर। सुबह-सुबह यहाँ कैसे टपक पड़े ? नींद मे खलल डालने के लिये तुझे मैं ही मिला क्या ?‘‘ फिर वह तुरंत उठकर भागा, हाथ मुँह धोकर आया और आराम से बैठकर मुझे ऐसे घूरने लगा, जैसे महंगाई मै ही बढ़ा रहा होऊँ। मैने सीधे न्यूज चैनल के रिपोर्टर के अंदाज मे प्रश्न दागा-‘‘मूर्खो की तरह लेंस वाले चश्में पहनकर सोने का क्या मतलब ?‘‘ उसने मुस्कुराते हुये कहा-‘‘यार! अब तक नाटक मे काम करने से फकीरी के सिवा क्या मिला ? इसलिये अब मैं एक बड़ा स्वप्न देख रहा हूँ। आँखो मे धुंधलेपन के कारण सपने ठीक से दिखाई नही देते । इसे पहनकर सोने से स्वप्न स्पष्ट दिखाई देते हैं।‘‘ मेरे मुँह से अनायास निकल पड़ा-‘‘ऐं! सपने देखने के लिये चश्में का ईजाद। वाह रे विज्ञान के चमत्कार। यार तू किस सपना की बात कर रहा है, कहीं ?‘‘ उसने कहा -‘‘अरे नही भाई! अब मै ये नाटक नौटंकी का चक्कर छोड़कर कोई बड़ा हाथ मारना चाहता हूँ। बड़े सपने ,बड़ा दांव। यही अब मेरा जीवन लक्ष्य है। आज से तुम्हारा और मेरा रास्ता अलग। चाय पानी पियो और निकलो यहाँ से,समझे ?‘‘ मैने उसे समझाने की भरपूर कोशीश की मगर वह अपने इरादे से टस- से -मस नही हुआ । अन्ततः मुझे वहाँ से मायूस निकलना पड़ा।

और सचमुच वह रंगमंच से हिरोइन के बदन से कपड़े की तरह गायब हो गया। फिर कुछ दिनो बाद राजनीति के चेहरे पर चेचक के दाग की तरह उभरा । बाद मे पता चला कि वह नौटंकी के मंच से छलांग लगाकर राजनीति के रंगमंच पर कूद पड़ा था। कुषल अभिनेता तो वह था ही, देखते- ही- देखते वह अपने कुषल अभिनय से वहाँ छा गया। वहाँ का स्टार बन गया। आज उसके पास बंगला है, गाड़ी है , अरबो खरबो की संपत्ति है। विदेशी बैको मे अकूत धन जमा है। प्रमुख महानगरो मे आलीशान बंगले हैं। देश के कई हिस्से के कई एकड़ जमीन पर सिर्फ उसे ही माला पहनाने के लिये फूलों की खेती हो रही है। चारो ओर चमचे जय- जय -कार कर रहे हैं। अब वे बाबू नौटंकी लाल हो गये हैं।

एक दिन हमारे शहर मे खूब गहमागहमी थी । बड़ा भारी पंडाल लगाया गया था। जगह- जगह स्वागत द्वार बनाया गया था , बंदनवार सजाये गये थे। नगर को तोरण से खूब सजाया गया था। खूब बड़ा मंच बनाया गया था। लोग नौटंकी बाबू जिन्दाबाद के नारे लगा रहे थे। प्रमुख मार्गो पर सुरक्षा की दृश्टि से बेरिकेट्स लगाये गये थे। ये सब देखकर मेरे दिमाग मे विचार आया, कहीं ये मेरा पुराना लंगोटिया यार नौटंकी तो नही ? तो क्या उसने सचमुच कहीं बड़ा दांव मार लिया है ? उसका स्वप्न साकार हो गया है ?

खुशी-खुशी मै भी अपनी मंडली के साथ हाथी घोड़ा पालकी जय नौंटकी लाल की कहते हुये उससे मिलने चला। समारोह के समय तो उससे मिलना संभव नही हुआ मगर विश्राम गृह मे उससे मिलने का सौभाग्य मुझे जरूर मिला। मुझे देखकर वह बेवफा प्रेमिका की तरह घूरने लगा। दुआ सलाम के बाद, मैने मुस्कुराकर कहा-‘‘नौटंकी भाई! पहचाना मुझे ?‘‘ मैं, मै हूँ। वह रिश्वत खाकर भी काम नही करने वाले अधिकारी की तरह गुर्राया-‘‘तमीज से बात करो। नौटकी नही , सम्मान से माननीय बाबू नौटंकी लाल कहो, क्या समझे ? और ये क्या मेमने की तरह मे-मे मिमिया रहे हो। काम की बात करो और फूटो यहाँ से ,क्या समझे?‘‘

मै सन्न रह गया। अब मुझे समझ मे आया कि सचमुच दौलत की कंगूरे की वजन से रिश्तों की बुनियाद बहुत कमजोर पड़ जाती है। वक्त -वक्त की बात है। वक्त जब मेहरबान होता है तो गधा भी पहलवान हो जाता है। मै अपनी आँखों मे आंसू लिये वहाँ से उल्टे पांव लौट आया।

इस घटना को चार वर्ष हो गये थे। मै इसे लगभग भूल ही चुका था। एक दिन सुबह भ्रमण करते हुये मै एक आलीशान बंगले के सामने से गुजर रहा था। तभी किसी की चीख पुकार सुनाई दी। बंगले के अंदर कोई चीख-चीख के कह रहा था , बड़े अजीब है इस देश के लोग , बड़ी बेतुकी बातें करते है। हमें कहते हैं कि सुधर जाओ। अरे! हमे क्या गरज पड़ी है सुधरने की ? हम क्यो सुधरें ? जिन्हें सुधरना है सुधरे अपनी बला से । हम तो हम नही सुधरेंगें की कसम खाये बैठे हैं यदि हम ही सुधर गये तो उनका क्या होगा जिनको सुधारने का ठेका हमने ले रखा है। हम रात दिन गा रहे हैं , सबको सन्मति दे भगवान ,त्याग की कोई कीमत नही है इस देष मे। अरे! दुनिया मे ऐसा कौन होगा जो अपने हिस्से की सन्मति दूसरों के लिये माँगे ? एक हम ही हैं जो इस पुनीत और महान कार्य को कर रहे है। इन्हें पता नही , हमारे सुधरने से देष को कितना नुकसान होगा ? कितनी राश्ट्रीय क्षति होगी ? अरे साहब , हम सुधर गये तो देष रसातल मे चला जायेगा रसातल मे , क्या समझे ?

ये सब सुनकर मेरा माथा ठनका। मै सोचने लगा, ये कौन महापुरूष है भाई, जिसके सुधरने से देष को भारी नुकसान हो जायेगा। उस महापुरूष के दर्श की मन मे तीव्र अभिलाषा जगी। इसलिये मेन गेट पर ठिठक कर मैनें अंदर झांकने की कोशिश की और मैं यह देखकर दंग रह गया कि यह तो बाबू नौंटकी लाल है। अब ये कौन सी नई नौटंकी कर रहें है ? मै वहाँ से चुपचाप खिसकने ही वाला था। तभी उसकी नजर मुझ पर पड़ गईं। वह दौड़ते हुये मेनगेट पर आकर चिल्लाया-‘‘अरे! आओ भाई आओ। तुम्हें देखने के लिये मेरी आँखे तरस गई थी।‘‘ फिर वह गेट खोलकर दौड़ते हुये आया और मुझसे ऐसे लिपट गया जैसे चंदन पर साँप। मुझे पता है, आवश्यकता से अधिक विन्रमता चाटुकारिता से ज्यादा खतरनाक होती है, इसलिये आभास हो गया था कि चुनाव नजदीक आ गया है।

वह मुझे खींचते हुये बंगले के भीतर ले गया। सम्मान से बिठाया। चाय भी पिलायी और बड़ी आत्मीयता से बातचीत करने लगा। औपचारिक बातचीत के बाद मैने उससे पूछा-‘‘भैया जी ! आपके सुधरने से देश पर ऐसा कौन सा घोर संकट आ जायेगा , जिससे देश को भारी नुकसान हो जायेगा ।‘‘

पहले वह जोर से ठहाका लगाया फिर मुस्कुराते हुये कहा-‘‘जब इतनी छोटी सी बात आपको समझ नही आ रही है तो किस मुँह से अपने आप को बुद्धिजीवी कहते हो ?‘‘ बात सीधी- सी है। यदि हम सुधर गये तो फिर विपक्ष का क्या काम रह जायेगा ? लेखक ,कवि, और साहित्यकार किस पर लिखेंगें। पत्रकारों की पत्रकारिता का क्या होगा ? न्यूज चैनलो की टी आर पी का क्या होगा। लेखक ,कवि,पत्रकार जब लिखेंगें ही नही तो प्रकाशन ब्यवसाय ठप्प हो जायेगा। कागज के कारखाने बंद हो जायेंगें , उनके सामने भूखों मरने की नौबत आ जायेगी जो इन कारखानो मे काम करते हैं। हमारे सुधर जाने से हमारे विरूद्ध न हड़ताल होंगें न रैलियाँ निकाली जायेंगी और न ही धरना प्रदर्शन होंगें। इसका अंजाम यह होगा कि बैनर पोष्टर बनाने वाले और माइक टेंट वालो का धंधा चैपट हो जायेगा। उनकी बीबी बच्चो के भविष्य का क्या होगा ? किसी ने कुछ सोचा है इस विषय पर , नही ना ? एक हम ही है हूजूर! जो परहित पर मर रहे हैं। उनकी चिन्ता के कारण ही हम सुधरने का नाम नही ले रहे हैं। आप देख ही रहे हैं , लोग कितने अपब्ययी हो गये है झूठी शान शौकत के लिये कितना फिजूल खर्ची कर रहें हैं ? यदि इन्हें इनका वाजिब हक दे दिया जाये जाय , तो ये सारी संपत्ति फूक डालेंगें। सुरक्षा की दृश्टि से ही हमने देष की संपत्ति बाहर जमा कर रखी है। अब नाम इनका हो या हमारा इससे क्या फर्क पड़ता है ? संपत्ति तो आखिर संपत्ति ही है। वैसे भी हम जनप्रतिनिधि है , संपत्ति का उपयोग हम करें य जनता , बात तो एक ही है ना ? अब तुम्ही बताओ, हमारा उद्देश्य पवित्र है या नही ? हमारे विचार महान है या नही ? भई जिनकी चिन्ता मे हम मरे जा रहे हैं, वहीं हमें सुधरने की नसीहत दे तो पीड़ा होगी या नही ? क्या समझे?

बाबू नौटंकी लाल के तर्क से मैं निरूत्तर हो गया। मेरा सिर चकराने लगा। मैने वहाँ से तुरंत निकल भागने की जुगत भिड़ाते हुये कहा-‘‘धन्य हैं आप ,गरीबो के बाप! सचमुच आप बेईमान किस्म के महान हैं। आपकी करूणा , दया, उदारता और सहृदयता नमन के योग्य है। कृपा करके अब मुझे यहाँ से जाने की अनुमति प्रदान करने की महान दया करें। मुझे डर लग रहा है ,यदि आपकी कृपा कहीं मुझ पर ज्यादा बरस गई तो आप मेरे घर पर रखे कागज कलम को भी सुरक्षा की दृश्टि से कहीं अपने पास न मंगवा लें।‘‘ इतना कहकर मै तुरंत वहाँ से निकल गया।

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