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संविधान-सभा में राजभाषा विचार [लेख] - भाग 5 - प्रो० महावीर सरन जैन

Kaka Hathrasi Hindi
हमने विभिन्न मंत्रालयों की राजभाषा सलाहकार समितियों के सदस्य के रूप में राजभाषा हिन्दी के भाषिक स्वरूप के सम्बंध में अपने विचार प्रस्तुत किए। लिखित सुझाव भी दिए। यह बात सन् 2001 से सन् 2006 के मध्य की है। हमने यह कहा कि जैसी राजभाषा हिन्दी देखने को मिल रही है वह हम जैसे व्यक्ति को भी क्लिष्ट लगती है। सहज नहीं लगती। एक बार में बोधगम्य नहीं होती। समझने के लिए प्राणायाम करना पड़ॉता है। भाषा को सरल एवं सहज बनाने की जरूरत है। मुख्य रूप से निम्न तथ्यों का उल्लेख किया – 
1. जनतंत्र में राजभाषा राजाओं और उनके दरबारियों के लिए नहीं अपितु जनता के द्वारा निर्वाचित सरकार के शासन और जनता के बीच संवाद की भाषा होनी चाहिए। 
2. इस कारण उसका भाषिक स्वरूप ऐसा होना चाहिए जिसे सामान्य आदमी समझ सके। मैं मानता हूँ कि प्रशासन के क्षेत्र में कुछ तकनीकी शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है। पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्द जिस विषय-क्षेत्र की संकल्पना से जुड़ा होता है उस विषय-क्षेत्र की संकल्पना के संदर्भ में उसका निर्धारित एवं अभीष्ट अर्थ होता है। शब्द के सामान्य अर्थ एवं तकनीकी अर्थ में अन्तर भी हो सकता है। पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्द का एक अर्थ में निर्धारण जरूरी है ताकि उस शब्द का विषय-क्षेत्र में कार्य करने वाले सभी प्रयोक्ता समान अर्थ में प्रयोग कर सकें तथा उससे सही अर्थ को ग्रहण कर सकें। हमें भिन्न संकल्पनाओं के लिए भिन्न शब्द भी निर्धारित करने पड़ते हैं। इतना होने पर भी पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्दों की सार्थकता उसके प्रयोग एवं व्यवहार में निर्भर करती है। प्रयोग ही किसी भी शब्द की कसौटी है। पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्दों का प्रयोग करते हुए भी भाषा सरल एवं सहज होनी चाहिए। मैं यह भी स्पष्ट करना चाहता हूँ कि नए आविष्कार आदि का नामकरण करने अथवा उसके लिए नया शब्द रखने में तथा जन प्रचलित शब्दों के स्थान पर उनके लिए नए शब्द गढ़ने अथवा बनाने में अन्तर है। आयोग के विशेषज्ञों ने इसको अनदेखा कर दिया। जो शब्द जन प्रचलित शब्दों के स्थान पर गढ़े गए, वे अधिकांशतः चल नहीं पाए।

Prof. Mahavir Saran Jainरचनाकार परिचय:-


प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक, रोमानिया के बुकारेस्त विश्वविद्यालय के विजिटिंग प्रोफेसर (हिन्दी) तथा जबलपुर के विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी एवं भाषा-विज्ञान विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष के रूप में हिन्दी के अध्ययन, अध्यापन एवं अनुसंधान के क्षेत्रों में भारत एवं विश्व के स्तर पर कार्य किया है।
आपने 45 से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया है जिनमें हिन्दी भाषा एवं भाषा विज्ञान से सम्बन्धित ग्रंथों के अतिरिक्त एक निबन्ध संकलन “विचार, दृष्टिकोण एवं संकेत”, “सूरदास एवं सूर सागर की भाव योजना”, “विश्व शान्ति एवं अहिंसा”, “विश्व चेतना तथा सर्वधर्म समभाव” तथा “भगवान महावीर एवं जैन दर्शन” आदि ग्रंथ सम्मिलित हैं।
प्रो० जैन विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। इनमें भारतीय संस्कृति संस्थान, विभिन्न राज्यों की हिन्दी समितियों एवं विश्व हिन्दी न्यास (अमेरिका) के नाम उल्लेखनीय हैं। प्रोफेसर जैन को द अमेरिकन बॉयोग्राफिकल इंस्टीट्यूट द्वारा 'International Cultural diploma of Honor’ से, डॉ भीमराव अम्बेदकर विश्वविद्यालय, आगरा द्वारा भाषा एवं संस्कृति के क्षेत्र में योगदान के लिए आगरा में 'ब्रज विभूति सम्मान' से तथा भारतीय राजदूतावास, बुकारेस्त (रोमानिया) द्वारा बुकारेस्त विश्वविद्यालय में हिन्दी शिक्षण में योगदान के लिए 'स्वर्ण-पदक' से अलंकृत किया गया है।
3. भाषा की कठिनाई के दो मुख्य कारण होते हैं- 
(क)अप्रचलित शब्दों का प्रयोग 
(ख)भाषा की अपनी प्रकृति के अनुरूप एवं सरल वाक्य रचनाओं वाली भाषा का प्रयोग न होना। 
4.भारत सरकार को यह सोचना चाहिए कि राजभाषा हिन्दी का प्रयोग लगभग पचास साठ वर्षों से हो रहा है मगर राजभाषा हिन्दी कठिन प्रतीत क्यों होती है। वह बोधगम्य क्यों नहीं है। 
इस बारे में, मैंने समितियों की बैठकों के सदस्यों को स्पष्ट किया कि स्वाधीनता के बाद हमारे राजनेताओं ने हिन्दी की घोर उपेक्षा की। पहले यह तर्क दिया गया कि हिन्दी में वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली का अभाव है। इसके लिए वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग बना दिया गया। काम सौंप दिया गया कि शब्द बनाओ। आयोग ने तकनीकी एवं वैज्ञानिक शब्दों के निर्माण के लिए जिन विशेषज्ञों को काम सौंपा उन्होंने जन-प्रचलित शब्दों को अपनाने के स्थान पर संस्कृत का सहारा लेकर शब्द गढ़े। शब्द बनाए नहीं जाते। गढ़े नहीं जाते। लोक के प्रचलन एवं व्यवहार से विकसित होते हैं। आयोग ने जिन शब्दों का निर्माण किया उनमें से अधिकांशतः अप्रचलित, जटिल एवं क्लिष्ट हैं। सारा दोष आयोग एवं विशेषज्ञों का भी नहीं है। मैं उनसे ज्यादा दोष मंत्रालय के अधिकारियों का मानता हूँ। प्रशासनिक शब्दावली बनाने के लिए अलिखित आदेश दिए गए कि प्रत्येक शब्द की स्वीकार्यता के लिए मंत्रालय के अधिकारियों की मंजूरी ली जाए। अधिकारियों की कोशिश रही कि जिन शब्दों का निर्माण हो, वे बाजारू न हो। सरकारी भाषा बाजारू भाषा से अलग दिखनी चाहिए। मैंने अपनी बात को एक उदाहरण से स्पष्ट की। प्रत्येक मंत्रालय में सेक्रेटरी तथा एडिशनल सेक्रेटरी के बाद मंत्रालय के प्रत्येक विभाग में ऊपर से नीचे के क्रम में अंडर सेक्रेटरी का पद होता है। इसके लिए निचला सचिव शब्द बनाकर मंत्रालय के अधिकारियों के पास अनुमोदन के लिए भेजा गया। अर्थ-संगति की दृष्टि से शब्द संगत था। मंत्रालयों के अधिकारियों को आयोग द्वारा निर्मित शब्द पसंद नहीं आया। आदेश दिए गए कि नया शब्द बनाया जाए। आयोग के चेयरमेन ने विशेषज्ञों से अनेक वैकल्पिक शब्द बनाने का अनुरोध किया। अंडर सेक्रेटरी के लिए नए शब्द गढ़ने में विशेषज्ञों ने व्यायाम किया। जो अनेक शब्द बनाकर मंत्रालय के पास भेजे गए उनमें से मंत्रालय के अधिकारियों को “अवर” पसंद आया और वह स्वीकृत हो गया। अंडर सेक्रेटरी के लिए हिन्दी पर्याय अवर सचिव चलने लगा। मंत्रालयों में सैकड़ों अंडर सेक्रेटरी काम करते हैं और सब अवर सचिव सुनकर गर्व का अनुभव करते हैं। शायद ही किसी अंडर सेक्रेटरी को अवर के मूल अर्थ का पता हो। स्वयंबर में अनेक वर विवाह में अपनी किस्मत आजमाने आते थे। जिस वर को वधू माला पहना देती थी वह चुन लिया जाता था। जो वर वधू के द्वारा अस्वीकृत कर दिए जाते थे उन्हें अवर कहते थे। चूँकि शब्द गढ़ते समय यह ध्यान नहीं रखा गया कि वे सामान्य आदमी को समझ में आ सकें, इस कारण आयोग के द्वारा निर्मित कराए गए लगभग 80 प्रतिशत शब्द प्रचलित नहीं हो पाए। वे कोशों की शोभा बनकर रह गए हैं। 
भारत सरकार के मंत्रालय के राजभाषा अधिकारी का काम होता है कि वह अंग्रेजी के मैटर का आयोग द्वारा निर्मित शब्दावली में अनुवाद कर दे। अधिकांश अनुवादक शब्द की जगह शब्द रखते जाते हैं। हिन्दी भाषा की प्रकृति को ध्यान में रखकर वाक्य नहीं बनाते। इस कारण जब राजभाषा हिन्दी में अनुवादित सामग्री पढ़ने को मिलती है तो उसे समझने के लिए कसरत करनी पड़ती है। मैं जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि लोकतंत्र में राजभाषा आम आदमी के लिए बोधगम्य होनी चाहिए। एक बात जोड़ना चाहता हूँ। कोई शब्द जब तक चलन में नहीं आएगा, प्रचलित नहीं होगा तो वह चलेगा नहीं। लोक में जो शब्द प्रचलित हो गए हैं उनके स्थान पर नए शब्द गढ़ना बेवकूफी है। रेलवे स्टेशन का एक कुली कहता है कि ट्रेन अमुक प्लेटफॉर्म पर खड़ी है। सिग्नल डाउन हो गया है। ट्रेन अमुक प्लेटफॉर्म पर आ रही है। बाजार में उसी सिक्के का मूल्य होता है जो बाजार में चलता है। हमें वही शब्द सरल एवं बोधगम्य लगता है जो हमारी जबान पर चढ़ जाता है। “भाखा बहता नीर”। लोक-व्यवहार से भाषा बदलती रहती है। यह भाषा की प्रकृति है। 
5.राजभाषा हिन्दी में अधिकारी अंग्रेजी की सामग्री का अनुवाद अधिक करता है। मूल टिप्पण हिन्दी में नहीं लिखा जाता। मूल टिप्पण अंग्रेजी में लिखा जाता है। अनुवादक जो अनुवाद करता है, वह अंग्रेजी की वाक्य रचना के अनुरूप अधिक होता है। हिन्दी भाषा की रचना-प्रकृति अथवा संरचना के अनुरूप कम होता है। 
मैंने अपने विचार को अनेक उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया। एक उदाहरण प्रस्तुत है। हम कोई पत्र मंत्रालय को भेजते हैं तो उसकी पावती की भाषा की रचना निम्न होती है – 
´पत्र दिनांक - - - , क्रमांक - - - प्राप्त हुआ'। 
सवाल यह है कि क्या प्राप्त हुआ। क्रमांक प्राप्त हुआ अथवा दिनांक प्राप्त हुआ अथवा पत्र प्राप्त हुआ। अंग्रेजी की वाक्य रचना में क्रिया पहले आती है। हिन्दी की वाक्य रचना में क्रिया बाद में आती है। इस कारण जो वाक्य रचना अंग्रेजी के लिए ठीक है उसके अनुरूप रचना हिन्दी के लिए सहज, सरल एवं स्वाभाविक नहीं है। क्रिया (प्राप्त होना अथवा मिलना) का सम्बंध दिनांक से अथवा क्रमांक से नहीं है। पत्र से है। हिन्दी की रचना प्रकृति के हिसाब से वाक्य-रचना निम्न प्रकार से होनी चाहिए। 
´आपका दिनांक - - - का लिखा पत्र प्राप्त हुआ। उसका क्रमांक है - - - - ' 
6.हिन्दी की वाक्य-रचना भी दो प्रकार की होती है। एक रचना सरल होती है। दूसरी रचना जटिल एवं क्लिष्ट होती है। सरल वाक्य रचना में वाक्य छोटे होते हैं। संयुक्त एवं मिश्र वाक्य बड़े होते हैं। सरल वाक्य रचना वाली भाषा सरल, सहज एवं बोधगम्य होती है। संयुक्त एवं मिश्र वाक्यों की रचना वाले वाक्य होते हैं तो भाषा जटिल हो जाती है, कठिन लगने लगती है, जटिल हो जाती है और इस कारण अबोधगम्य हो जाती है। 

मुझे विश्वास है कि यदि प्रशासनिक भाषा को सरल बनाने की दिशा में पहल हुई तो राजभाषा हिन्दी और जनभाषा हिन्दी का अन्तर कम होगा। सरल, सहज, पठनीय, बोधगम्य भाषा-शैली का विकास होगा। ऐसी राजभाषा लोक में प्रिय होगी। लोक-प्रचलित होगी। यहाँ इसको रेखांकित करना अप्रसांगिक न होगा कि स्वाधीनता संग्राम के दौरान हिन्दीतर भाषी राष्ट्रीय नेताओं ने जहाँ देश की अखंडता एवं एकता के लिए राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार की अनिवार्यता की पैरोकारी की वहीं भारत के सभी राष्ट्रीय नेताओं ने एकमतेन सरल एवं सामान्य जनता द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी का प्रयोग करने एवं हिन्दी उर्दू की एकता पर बल दिया था। इसी प्रसंग में एक बात और जोड़ना चाहता हूँ। प्रजातंत्र में शुद्ध हिन्दी, क्लिष्ट हिन्दी, संस्कृत गर्भित हिन्दी जबरन नहीं चलाई जानी चाहिए। जनतंत्र में ऐसा करना सम्भव नहीं है। ऐसा फासिस्ट शासन में ही सम्भव है। हमें सामान्य आदमी जिन शब्दों का प्रयोग करता है उनको अपना लेना चाहिए। यदि वे शब्द अंग्रेजी से हमारी भाषाओं में आ गए हैं, हमारी भाषाओं के अंग बन गए हैं तो उन्हें भी अपना लेना चाहिए। मैं हिन्दी के विद्वानों को बता दूँ कि प्रेमचन्द जैसे महान रचनाकार ने भी प्रसंगानुरूप किसी भी शब्द का प्रयोग करने से परहेज़ नहीं किया। उनकी रचनाओं में अंग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। अपील, अस्पताल, ऑफिसर, इंस्पैक्टर, एक्टर, एजेंट, एडवोकेट, कलर, कमिश्नर, कम्पनी, कॉलिज, कांस्टेबिल, कैम्प, कौंसिल, गजट, गवर्नर, गैलन, गैस, चेयरमेन, चैक, जेल, जेलर, टिकट, डाक्टर, डायरी, डिप्टी, डिपो, डेस्क, ड्राइवर, थियेटर, नोट, पार्क, पिस्तौल, पुलिस, फंड, फिल्म, फैक्टरी, बस, बिस्कुट, बूट, बैंक, बैंच, बैरंग, बोतल, बोर्ड, ब्लाउज, मास्टर, मिनिट, मिल, मेम, मैनेजर, मोटर, रेल, लेडी, सरकस, सिगरेट, सिनेमा, सिमेंट, सुपरिन्टेंडैंट, स्टेशन आदि हजारों शब्द इसके उदाहरण हैं। प्रेमचन्द जैसे हिन्दी के महान साहित्यकार ने अपने उपन्यासों एवं कहानियों में अंग्रेजी के इन शब्दों का प्रयोग करने में कोई झिझक नहीं दिखाई है। शब्दावली आयोग की तरह इनके लिए विशेषज्ञों को बुलाकर यह नहीं कहा कि पहले इन अंग्रेजी के शब्दों के लिए शब्द गढ़ दो ताकि मैं अपना साहित्य सर्जित कर सकूँ। उनके लेखन में अंग्रेजी के ये शब्द ऊधारी के नहीं हैं; जनजीवन में प्रयुक्त शब्द भंडार के आधारभूत, अनिवार्य, अवैकल्पिक एवं अपरिहार्य अंग हैं। फिल्मों, रेडियो, टेलिविजन, दैनिक समाचार पत्रों में जिस हिन्दी का प्रयोग हो रहा है वह जनप्रचलित भाषा है। जनसंचार की भाषा है। समय समय पर बदलती भी रही है। पुरानी फिल्मों में प्रयुक्त होने वाले चुटीले संवादों तथा फिल्मी गानों की पंक्तियाँ जैसे पुरानी पीढ़ी के लोगों की जबान पर चढ़कर बोलती थीं वैसे ही आज की युवा पीढ़ी की जुबान पर आज की फिल्मों में प्रयुक्त संवादों तथा गानों की पंक्तियाँ बोलती हैं। फिल्मों की स्क्रिप्ट के लेखक जनप्रचलित भाषा को परदे पर लाते हैं। उनके इसी प्रयास का परिणाम है कि फिल्मों को देखकर समाज के सबसे निचले स्तर का आम आदमी भी फिल्म का रस ले पाता है। मेरा सवाल यह है कि यदि साहित्यकार, फिल्म के संवादों तथा गीतों का लेखक, समाचार पत्रों के रिपोर्टर जनप्रचलित हिन्दी का प्रयोग कर सकता है तो भारत सरकार का शासन प्रशासन की राजभाषा हिन्दी को जनप्रचलित क्यों नहीं बना सकता। विचारणीय है कि हिंदी फिल्मों की भाषाने गाँवों और कस्बों की सड़कों एवं बाजारों में आम आदमी के द्वारा रोजमर्रा की जिंदगी में बोली जाने वाली बोलचाल की भाषा को एक नई पहचान दी है। फिल्मों के कारण हिन्दी का जितना प्रचार-प्रसार हुआ है उतना किसी अन्य एक कारण से नहीं हुआ। आम आदमी जिन शब्दों का व्यवहार करता है उनको हिन्दी फिल्मों के संवादों एवं गीतों के लेखकों ने बड़ी खूबसूरती से सहेजा है। भाषा की क्षमता एवं सामर्थ्य शुद्धता से नहीं, निखालिस होने से नहीं, ठेठ होने से नहीं, अपितु विचारों एवं भावों को व्यक्त करने की ताकत से आती है। राजभाषा के संदर्भ में यह संवैधानिक आदेश है कि संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्थानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे। भारत सरकार का शासन राजभाषा का तदनुरूप विकास कर सका है अथवा नहीं यह सोचने विचारने की बात है। इस दृष्टि से भी मैं फिल्मों में कार्यरत सभी रचनाकारों एवं कलाकारों का अभिनंदन करता हूँ।हिन्दी सिनेमा ने भारत की सामासिक संस्कृति के माध्यम की निर्मिति में अप्रतिम योगदान दिया है। बंगला, पंजाबी, मराठी, गुजराती, तमिल आदि भाषाओं एवं हिन्दी की विविध उपभाषाओं एवं बोलियों के अंचलों तथा विभिन्न पेशों की बस्तियों के परिवेश को सिनेमा की हिन्दी ने मूर्तमान एवं रूपायित किया है। भाषा तो हिन्दी ही है मगर उसके तेवर में, शब्दों के उच्चारण के लहजे़ में, अनुतान में तथा एकाधिक शब्द-प्रयोग में परिवेश का तड़का मौजूद है। भाषिक प्रयोग की यह विशिष्टता निंदनीय नहीं अपितु प्रशंसनीय है।है। मुझे प्रसन्नता है कि देर आए दुरुस्त आए, राजभाषा विभाग ने प्रशासनिक हिन्दी को सरल बनाने की दिशा मेंकदम उठाने शुरु कर दिए हैं। मैं इस समाचार का भी स्वागत करता हूँ कि भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने यह आदेश जारी कर दिया है कि सरकारी कामकाज में हिन्दी का अधिक से अधिक प्रयोग किया जाए। जब जनता को समझ में आने वाली सरल हिन्दी में मूल टिप्पण लिखा जाएगा, अंग्रेजी के टिप्पण का हिन्दी में अनुवाद नहीं किया जाएगा तो वह हिन्दी दौड़ेगी। गतिमान होगी। प्रवाहशील होगी। जैसे प्रेमचन्द ने जन-प्रचलित अंग्रेजी के शब्दों को अपनाने से परहेज नहीं किया वैसे ही प्रशासनिक हिन्दी में भी प्रशासन से सम्बंधित ऐसे शब्दों को अपना लेना चाहिए जो जन-प्रचलित हैं। उदाहरण के लिए एडवोकेट, ओवरसियर, एजेंसी, ऍलाट, चैक, अपील, स्टेशन, प्लेटफार्म, एसेम्बली, ऑडिट, केबिनेट, केम्पस, कैरिटर, केस, कैश, बस, सेंसर, बोर्ड, सर्टिफिकेट, चालान, चेम्बर, चार्जशीट, चार्ट, चार्टर, सर्किल, इंस्पेक्टर, सर्किट हाउस, सिविल, क्लेम, क्लास, क्लर्क, क्लिनिक, क्लॉक रूम, मेम्बर, पार्टनर, कॉपी, कॉपीराइट, इन्कम, इन्कम टैक्स, इंक्रीमेंट, स्टोर आदि। भारत सरकार के राजभाषा विभाग को यह सुझाव भी देना चाहता हूँ कि जिन संस्थाओं में सम्पूर्ण प्रशासनिक कार्य हिन्दी में शतकों अथवा दशकों से होता आया है वहाँ की फाइलों में लिखी गई हिन्दी भाषा के आधार पर प्रशासनिक हिन्दी को सरल बनाएँ। जब कोई रोजाना फाइलों में सहज रूप से लिखता है तब उसकी भाषा का रूप अधिक सरल और सहज होता है बनिस्पत जब कोई सजग होकर भाषा को बनाता है। सरल भाषा बनाने से नहीं बनती, सहज प्रयोग करते रहने से बन जाती है, ढल जाती है। ‘भाखा बहता नीर’।

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2 टिप्पणियाँ

  1. महावीरजी,
    आपका लेख सारगर्भित है, कई बातें ऐसी लिखी है "यह होना चाहिए और यह नहीं होना चाहिए !" मगर, आज़ यह लोकतंत्र महज़ एक इन राजनेताओं के हाथ की कठपूतली बन कर रह गया है ! राजनेता अपने दल के स्वार्थ अनुसार इसे तोड़-मरोड़ कर ऐसी व्याख्या करते है, जो सविधान निर्माताओं की मंशा के विरुद्ध रही है ! अनुसूचित जाति पर होने वाले अत्याचार अभी तक भारत में बंद नहीं हुए ! राजनैतिक-दल अत्याचार होने के बाद केवल घड़ियाली आंसू बहाकर अपनी परंपरा को निभा देते हैं ! कभी वे राजनैतिक गलियारे में खड़े रहकर, इनमें से कोई यह नहीं सोचता के "यदि यही अत्याचार उन पर या उनके परिवार पर होता तब क्या वे बर्दाश्त कर पाते..? आज़ भी अनुसूचित जाति के व्यक्ति को "दलित" कहा जाता है ! सच्च यह है, उसे दलित कहना उसका अपमान है ! मगर, वोटों के खातिर ये राजनेता उसे "दलित" बनाकर ही रखेंगे, ताकि उन्हें उकसाकर आसानी से एक मुश्त वोट हासिल कर सकें ! वोटों के लिए कोई काम करना, जिससे उनके दल को फायदा हो, इस प्रकार की प्रवृति छोड़कर निष्काम भाव से इस वर्ग का उत्थान करना चाहिए ! वे इस वर्ग के समुदाय के व्यक्तियों के गुण के आधार पर संबोंधित क्यों नहीं करते..? उदाहरण - एक अनुसूचित जाति में जन्म लेने वाला व्यक्ति ऐसा है, जो संसकृत का माना हुआ ज्ञानी है! उसका चरित्र बेदाग़ है, न दारु पीता है न जुआ खेलता है और ना मांस खाता है ! साधु-संत के समान, वह अपनी जिन्दगी बसर करता है..फिर, ऐसे इंसान को ये राजनेता दलित कहकर अपनी भ्रष्ट बुद्धि का परिचय क्यों देते हैं ? पुराणिक कथा में नारद मुनि भी दासी-पुत्र थे, मगर वे अपने गुण के कारण वे ब्राहमण कहलाये ! समाज में क्यों नहीं ऐसा बदलाव लाते हैं, जहां इंसान को उसके गुण के आधार पर ही संबोंधित किया जाय..? इस तरह की व्यवस्था वैदिक-काळ में रही है ! वह संसकारी अनुसूचित जाति में पैदा होने वाला व्यक्ति दलित न कहलाकर उसे "ब्राहमण/विप्र/पंडित कह सकते हैं ! ब्राहमण जाति में जन्म लेने वाला व्यक्ति यदि दुराचारी, मांसाहारी, शराब पीने वाला, परस्त्री रमण करने वाला आदि अवगुणों की खान हो फिर उसे जाति से निष्काषित करके उसे शुद्र में सम्मिलित क्यों नहीं कर सकते हैं..? [सुश्री मायावती को इस तरह के कामों में भाग लेना चाहिए, मगर वो तो वोटों के खातिर ख़ुद को ही "दलित" मानती आयी है ! दलित शब्दावली से छुटकारा पाने से ही इस अनु.जाति समाज का उत्थान हो सकता है !]
    दिनेश चन्द्र पुरोहित
    dineshchandrapurohit2@gmail.com

    जवाब देंहटाएं
  2. मुझे साहित्य शिल्पी के कहानीकारों से निवेदन है, वे अपनी कुछ कहानियां इस तरह से सृजित करें, जिनसे यह सन्देश निकलता है, समाज में दलित कोई नहीं हैं ! शिक्षा के अभाव में व्यक्ति अपने-आपको इस वर्ग से जोड़ देता है, और सहानुभूति हासिल करने के लिए इस वर्ग में बने रहने की इच्छा रखता है !" कहानी के शीर्षक ये हो सकते हैं - "मैं दलित नहीं हूँ" "दलित कौन..?" "मैं कौन हूँ..?" आदि !
    दिनेश चन्द्र पुरोहित [लेखक एवं अनुवादक]
    dineshchandrapurohit2@gmail.com

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