वह युग के मूल्यों को निश्चित करता है।
वह युग में क्या अच्छा है निश्चित करता है।
वह युग में क्या सत्य है निश्चित करता है।
यही है जो बताता है; बुद्ध क्या है?
‘बुद्ध का पुनर्जन्म’ जापानी धर्मगुरु रहुयो ओकावा की चर्चित पुस्तक है जिससे उद्धरित ये पंक्तियाँ बुद्ध की खोज में जिस राह पर बढ़िये, दीपक जलाती हैं। बुद्ध को जानने के लिये अशोक अपने राज्याभिषेक के बीसवे वर्ष लुम्बिनी पहुँचते हैं और वहाँ एक शिलास्तंभ स्थापित करते हैं। यह उस महाप्राण की जन्मस्थली का आभार व्यक्त करने जैसा कदम था जिसे जानने के लिये जितनी गहराई उतरो वह अथाह ही समझ आता है। राहुल सांस्कृतयायन नें सिद्धार्थ गौतम का जन्म 563 ई.पू के लगभग शाक्य नामक क्षत्रियकुल में कपिलवस्तु के निकट नेपाल की तराई में स्थित लुम्बिनी ग्राम में बताया है। नवीनतम शोध जन्मतिथि को 623 वर्ष ईसा पूर्व मानते हैं। जातक कथा कहती है कि कौडिय नाम के एक भविष्यवक्ता नें इस बालक के जन्म पर कहा था - एमेहि लक्खणेहि समानन्नागतो अगारं अज्झावसमानो राजाहोति चक्रवर्ती, पब्ब जमानो बुद्धो अर्थात या तो यह चक्रवर्ती सम्राट बनेगा अथवा बुद्धत्व को प्राप्त होगा। इस भविष्यवाणी के दोनो हिस्से सत्य सिद्ध हुए; सिद्धार्थ बुद्ध हो कर एसे चक्रवर्ती बने कि बड़े से बड़े सम्राट को भी ईर्ष्या हो जाये। आज महापरिनिर्वाण के ढ़ाई हजार से अधिक वर्ष गुजर जाने के पश्चात भी पाँचो महाद्वीपों के किसी न किसी देश में बुद्ध की धम्म सत्ता कायम है। दुर्भाग्यवश जन्म के सात दिवस के पश्चात ही उनकी माता मायादेवी का देहावसान हो गया था। उनका पालन विमाता प्रजापति गौतमी नें किया था; यह एक बड़ा कारण है कि सिद्धार्थ कालांतर में गौतम बुद्ध के नाम से जाने गये। यद्यपि उनका गोत्र भी गौतम था एवं वे शाक्य सूर्यवंशी क्षत्रिय थे अत: गौतम के साथ साथ शाक्यमुनि भी पुकारे जाते हैं। भविष्यवक्ता नें उनके संयासी होने की जो संभावना बताई थी उसके फलस्वरूप सिद्धार्थ को विलासितापूर्ण जीवन से लुभाने और उसी में उलझाये रखने की कोशिश उनके पिता शुद्धोदन द्वारा की जाती रही लेकिन वे अपनी ही सोच में डूबे रहने वाले अनुरागी थे। मैथिली शरण गुप्त की कविता ‘माँ कह एक कहानी’ सिद्धार्थ के भीतर बचपन से आ बैठे बुद्ध की पूरी बानगी है। इस अद्वितीय कथाशैली की कविता में संदर्भ तो सिद्धार्थ के बचपन का है किंतु प्रसंग उनके गृहत्याग के पश्चात का है; जब सिद्धार्थ की पत्नि यशोधरा अपने बेटे राहुल को पिता से जुड़ा एक प्रेरक प्रसंग सुनाती हैं –
"माँ कह एक कहानी।"
“बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?"
"कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।"
"तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे,
तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभि मनमानी।"
"जहाँ सुरभि मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।"
“वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे,
हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।"
"लहराता था पानी, हाँ-हाँ यही कहानी।"
"गाते थे खग कल-कल स्वर से, सहसा एक हंस ऊपर से,
गिरा बिद्ध होकर खग शर से, हुई पक्षी की हानी।"
"हुई पक्षी की हानी? करुणा भरी कहानी!"
“चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया,
इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।"
"लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।"
"मांगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी,
तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।"
"हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।"
“हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में,
गयी बात तब न्यायालय में, सुनी सभी ने जानी।"
"सुनी सभी ने जानी! व्यापक हुई कहानी।"
“राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?
कह दे निर्भय जय हो जिसका, सुन लूँ तेरी बानी"
"माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी।
कोई निरपराध को मारे तो क्यों अन्य उसे न उबारे?
रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।"
"न्याय दया का दानी! तूने गुनी कहानी।"
युवक सिद्धार्थ की सोच के विषय अब - जन्म, जरा, रोग, दु:ख, मृत्यु, आदि हो गये थे अत: संसार से विरक्ति उन्हें बार बार निवृत्ति तथा सन्यास की ओर प्रेरित कर रही थी। सांसारिक बनाये रखने की कोशिश में सिद्धार्थ का विवाह कोलियग्राम की राजकुमारी यशोधरा से करवा दिया गया था। उन्हें पुत्र प्राप्ति हुई तथा जैसे ही सेविकाओं नें यह समाचार सिद्धार्थ को दिया उनके मुख से अनायास निकला – “राहु जातो बन्धनं जातन्ति” अर्थात राहु नें जन्म लिया यह बन्धनों में बाँधेगा। इसी वाक्यांश के कारण सिद्धार्थ के पुत्र को राहुल नाम प्रदान किया गया। महाभिनिष्क्रमण की तैयारी तो वे लम्बे समय से कर रहे थे लेकिन उनत्तीस वर्ष की आयु में उन्होंने माता-पिता-परिजनों के सम्मुख ही काषाय वस्त्र धारण किये और गृह त्याग दिया। इस सम्बन्ध में बुद्ध स्वयं अपने भिक्षुओं को बताते हैं – “सो खो अहं भिक्खवे, अपरेन समयेन दहरो व समानो सुसु कालकेसो भद्रेअ योब्बनेन समन्नागतो पहमेन वयसा अकामकान माता पितुन्न अस्सुमुखानं रुद्रंतान केसमस्सुं ओहारेत्वा कासावानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनुगारियं पब्बजि” अर्थात “हे भिक्षुओं! समय पा कर, यद्यपि मैं उस समय पूर्ण युवक था, मेरे माथे का एक बाल भी नहीं पका था तथा मेरे माता पिता संयास लेने का आदेश नहीं दे रहे थे, तथापि मैने उन्हें रोते कलपते छोड़ कर काषाय वस्त्र को धारण कर लिया और माथे के बाल तथा दाढी-मूँछ कटवा कर प्रवज्ज्या ग्रहण कर ली”। यह विवरण अरियपरियेसन सुत्तन्त, महासच्चक सुत्तन्त तथा बोधिराजकुमार सुत्तन्त में प्राप्त होता है।
अब सिद्धार्थ ज्ञान की तलाश में भटकने लगे। सर्वप्रथम सांख्योपदेशक आलार कालाम के पास गये जहाँ उन्होंने योग की कुछ विधियाँ सीखीं किंतु संतोष प्राप्त नहीं हुआ। तत्पश्चात उद्दक रामपुत्र आचार्य के आश्रम में अध्ययन करने लगे। यहाँ उन्हें ‘संज्ञा और असंज्ञा से भिन्न’ योग का ज्ञान दिया गया तथापि भी वे असंतुष्ट ही बने रहे। यहाँ से सिद्धार्थ मगध की राजधानी राजगृह आ गये। मगध सम्राट बिम्बिसार एवं सिद्धार्थ का प्रथम मिलन यहीं हुआ था। उनके वार्तालाप को बहुत सुन्दरता से काव्यबद्ध किया है प्रसिद्ध लेखक आचार्य जुगल किशोर बौद्ध नें। राजवैभव पुन: ठुकराते हुए सिद्धार्थ मगध सम्राट से कहते हैं–
इन दु:खों का कारण क्या है, मार्ग शमन क्या है?
इसे खोजने निकला गृह से, मार्ग गमन क्या है?
उसी मार्ग को खोजूंगा, राह में हों चाहे अंगारे,
राजगृह की रम्य भूमि पर गौतम आज पधारे।
राजगृह में सिद्धार्थ अनेको धर्माचार्यों, परिव्राजकों श्रमणों आदि के संपर्क में आये लेकिन असंतोष बना रहा। यहाँ से वे मगध जनपद के सैनिक सन्निवेश उरुबेला पहुँचे और निरंजना नदी के तट पर एक वृक्ष के नीचे बैठ कर कठोर तपस्या में लीन हो गये। इस समय उनके साथ पाँच अन्य ब्राम्हण – कौण्डिण्य, वाप्य, भद्रिक, महानाम तथा अश्वजित; भी थे जो तपश्चर्या में उनके साथी थे। छ: वर्ष तक कठोर साधना की लेकिन आत्मा की अतृप्ति बनी हुई थी। वे यह मान कर साधना कर रहे थे कि अन्न-जल त्याग देने से शरीर का अवश्य क्षय होता तथापि बुद्धि शुद्ध हो जायेगी एवं बोध प्राप्त होगा। सिद्धार्थ को एसा कुछ होता प्रतीत नहीं हो रहा था। शरीर सूख कर हड्डियों का ढाँचा रह गया तथापि वे अब तक रीते हाँथ ही थे। तभी उन्हें जंगल में स्त्रियों के गाने का स्वर सुनाई दिया; मधुर सामूहिक स्वर था यह और गीत का मर्म था कि ‘वीणा के तार को इतना नहीं कसना चाहिये कि वह टूट जाये न ही इतना ढीला छोड़ना चाहिये कि उससे कोई आवाज़ ही न निकल सके’। संभवत: सिद्धार्थ को बुद्ध बनने का मार्ग यहीं से प्राप्त हुआ था। मध्यम मार्ग अथवा मध्यम प्रतिपदा का यह सूत्र बुद्ध को जिन ग्रामीण स्त्रियों से प्राप्त हुआ था उन्हीं में से एक थी सुजाता जो पुत्र-प्राप्ति की कामना के लिये वृक्ष-पूजन हेतु खीर ले कर वहाँ आयी थी। सिद्धार्थ नें सुजाता का यह खीर ग्रहण कर लिया...इसके पश्चात साधना तो जारी रही लेकिन अब मध्यममार्गी सिद्धार्थ स्थूल आहार भी ग्रहण करने लगे थे। इससे साधना के अन्य पाँच साथी उन्हें तपोभ्रष्ट मान कर सारनाथ की ओर चले गये। सिद्धार्थ अकेले रह गये तथा वे गया पहुँच कर श्रोत्रिय नाम के घास काटने वाले से आठ मुट्ठी तृणदान ले कर एक पीपल के वृक्ष के नीचे कुशा-आसन बिछा कर साधनालीन हो गये। सात दिन और सात रातों की अविकल साधना के पश्चात आठवे दिन उनके ज्ञान चक्षु खुल गये। यह वैशाख पूर्णिमा का दिन था जब उन्हें सम्बोधि प्राप्त हुई और वे तथागत एवं बुद्ध कहे जाने लगे। वह पीपल का वृक्ष जिसके नीचे सिद्धार्थ ‘बुद्ध’ हुए थे अब बोधिवृक्ष कहलाता है।
एक बोधि प्राप्त व्यक्ति ही समाज को दिशा देने के लिये उदाहरण बन सकता है। एक बुद्ध ही जान सकता है कि एक मानव दूसरे के समान ही है। बुद्ध राजायतन वृक्ष के नीचे बैठे साधना कर रहे थे तभी ओडिशा के दो बंजारे वहाँ से गुजरे। उन्होंने छांछ और गुड़ के लड्डू बुद्ध को अर्पित किये। तथागत नें गया में ही तपस्सु एवं मल्लिक नाम के इन समाज में निकृष्ट समझे जाने वाले दोनो बंजारों को धर्मोपदेश दे कर अपना प्रथमानुयायी बनाया था। उस युग के लिये क्रांतिकारी तथा हर युग के लिये यह गौरवपूर्ण घटना है। बुद्ध यहाँ से सारनाथ (काशी ऋषिपत्तन) की ओर चले गये। उनका अगला धर्मोपदेश “धर्मचक्रप्रवर्तन” ने नाम से विख्यात है जो उन्होंने उन्ही पाँच साथियों को दिया था जिन्होंने पथभ्रष्ट मान कर सिद्धार्थ का साथ छोड़ दिया था (इसे ही बुद्ध के प्रथम धर्मोपदेश होने की मान्यता मिली हुई है)। इन पाँचो साथियों को दीक्षा प्रदान कर बुद्ध वाराणासी आ गये जहाँ एक श्रेष्ठि तथा उसके परिजन व मित्र भी बुद्धानुयायी हो गये। बुद्ध इसके पश्चात जब उरूबेला प्रदेश पहुँचे तब तक उनके अनुयाई साठ से अधिक हो गये थे अत: धर्मप्रचार के लिये इन शिष्यों को सम्मिलित कर एक संघ बनाया गया। भिक्षुओं को अलग अलग जा कर धर्मप्रचार की आज्ञा दी गयी, इस प्रयास को विश्व का प्रथम धर्मप्रचार संघ भी कहा जा सकता है। बुद्ध निराले थे और उनका समर्थकों को जोड़ने का अंदाज़ भी निराला ही था। कोई पथभ्रष्ट तो कोई डाकू, कोई समाज में उपेक्षित तो कोई श्रेष्ठि। उरुबेला में ही उन्होंने तीस भटके हुए युवकों को अपनी राह का अनुगामी बनाया। ये सभी भद्रवर्गीय कहलाये चूंकि इनके नायक का नाम भद्र था। उरूबेला में ही तीन अग्निहोत्री ब्राम्हण तथा विद्वान – मुख्य कश्यप, नदी कश्यप तथा गया कश्यप जो कि सगे भाई भी थे अपने सम्मिलित सहस्त्र शिष्यों के साथ बुद्ध के शरणागत हुए। इन सभी के साथ बुद्ध राजगृह आ गये जहाँ सम्राट बिम्बिसार नें उनका भव्य स्वागत किया तथा अपना वेणुवन भेंट स्वरूप प्रदान कर दिया। राजगृह में बुद्धम शरणम गच्छामि कह कर नतमस्तक होने वाले प्रमुख विद्वानों में संजय, सारिपुत्र और मोग्गल्लान थे।
उल्लेख मिलता है कि बुद्धत्व प्राप्ति के दूसरे वर्ष तथागत अपनी जन्मभूमि कपिलवस्तु भी गये थे जहाँ उनके पुत्र राहुल, सौतेले भाई आनन्द, शाक्य राज्य के प्रमुख भद्रिक समेत अनेक शाक्य भी दीक्षित हुए। बुद्ध का स्त्रीविमर्श भी यहीं बदलाव ग्रहण करता है। चूंकि आरंभ में बुद्ध अपने संघ में स्त्रियों के प्रवेश पर सहमत नहीं थे अत: इस सम्बन्ध में आनन्द के साथ उनका शास्त्रार्थ उल्लेखनीय हो जाता है। आनन्द यह जानना चाहते थे कि क्या महिलायें निर्वाण नहीं प्राप्त कर सकती। जब बुद्ध नें कहा कि निर्वाण के लिये पुरुष अथवा स्त्री होने से कोई अंतर नहीं पड़ता तब आनन्द नें समुचित प्रयास किये कि संघ में महिलाओं का प्रवेश भी हो यथा तथागत की विमाता प्रजापति गौतमी तथा पत्नि यशोधरा भी परिव्राजित हुईं। गौतमी के ही अनुरोध पर बुद्ध नें महिलाओं का अलग संघ बनाने की अनुमति प्रदान की थी।
बुद्ध की साम्राज्यों में पैठ मगध नरेश बिम्बिसार के उनकी शरण में आने से प्रारंभ हुई तथा एक के बाद एक उनका धम्म जनपदों की सत्ताओं की सीमाओं से परे का विषय बनता गया। पहले-पहल मल्लों नें बुद्ध के उपदेशों का स्वागत नहीं किया तथापि अनेक मल्ल बुद्धानुयायी थे; कौशाम्बी के राजा उदयन नें भी बुद्ध के प्रति प्रारंभ में उपेक्षा प्रदर्शित की थी किंतु वे अपनी ही एक रानी को बुद्ध का शरणागत होने से नहीं रोक सके। वैशाली संघ नें बुद्ध को स्वयं आमंत्रित किया तथा उनके आवास के लिये कूटागारशाखा व आठ अन्य उद्यान अर्पित कर दिये थे। अवंति में राजा के आमंत्रण पर बुद्ध स्वयं तो न जा सके किंतु उनके एक शिष्य नें वहाँ पहुँच कर धम्म का प्रचार किया।
बुद्ध में वे क्या तत्व थे जो उन्हें व्यापक बनाते हैं? यह एक बड़ा विषय है जिसे बहुत सरल बना कर ओशो रजनीश नें प्रवचन दिया है – “बुद्ध एक गांव के पास से निकले तो गांव वालों ने रास्ते पर घेर लिया, उन्हें बहुत गालियां दी और अपमानित भी किया। बुद्ध ने सुना और फिर उनसे कहा, ‘मेरे मित्रों तुम्हारी बात पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है’। वे लोग थोड़े हैरान हुए और उन्होंने कहा ‘हमने क्या कोई मीठी बातें कहीं हैं, हमने तो गालियां दी हैं सीधी और स्पष्ट; तुम क्रोध क्यों नहीं करते? प्रतिक्रिया क्यों नहीं देते?’ बुद्ध ने कहा – ‘तुमने थोड़ी देर कर दी। अगर तुम दस वर्ष पहले आए होते तो मजा आया होता। मैं भी तुम्हें गालियां देता; मैं भी क्रोधित होता; थोड़ा रस आता, बातचीत होती, मगर तुम लोग थोड़ी देर करके आए हो’। बुद्ध ने कहा – ‘अब मैं उस जगह हूँ कि तुम्हारी गाली लेने में असमर्थ हूँ। तुमने गालियां दीं, वह तो ठीक लेकिन तुम्हारे देने से ही क्या होता है, मुझे भी तो उन्हें लेने के लिए बराबरी का भागीदार होना चाहिए? मैं उसे लूं तभी तो उसका परिणाम हो सकता है। लेकिन मैं तुम्हारी गाली लेता नहीं। मैं दूसरे गांव से निकला था वहां के लोग मिठाइयां लाए थे भेंट करने; मैंने उनसे कहा कि मेरा पेट भरा है तो वे मिठाइयां वापस ले गए। जब मैं न लूंगा तो कोई मुझे कैसे दे पाएगा?’। अब बुद्ध ने उन लोगों से पूछा – ‘वे लोग मिठाइयां ले गए उन्होंने क्या किया होगा?’ एक आदमी ने भीड़ में से कहा- ‘उन्होंने अपने बच्चों और परिवार में बांट दी होगी’। बुद्ध ने कहा – ‘मित्रों, तुम गालियाँ लाए हो मैं लेता नहीं। अब तुम क्या करोगे, घर ले जाओगे, बांटोगे?’.....”।
बुद्ध नें अपना जो बोध जगत को प्रदान किया वे तत्व इतने महत्वपूर्ण थे कि आसानी से रूढिवादी समाज द्वारा आत्मसात नहीं किये गये। ब्राम्हणों का मुखर विरोध तो उन्हें झेलना ही पड़ा उनके अपने ही चचेरे भाई देवव्रत नें भी ईर्ष्या के वशीभूत तीन बार बुद्ध की हत्या का प्रयास किया। पहले प्रयास में उसने कुछ धनुर्धारी भेजे किंतु उनका तथागत के पास पहुँचने पर हृदय परिवर्तन हो गया। गृद्धकूट पर्वत से एक शिलाखण्ड गिरा कर हत्या का दूसरा प्रयास किया गया; बुद्ध घायल हुए तथा उनके वैद्य एवं भिक्षु जीवक द्वारा चिकित्सा किये जाने का उल्लेख प्राचीन पुस्तकों से प्राप्त होता है। तीसरे प्रयास में एक पागल हाथी बुद्ध के आवागमन मार्ग पर छोड़ दिया गया किंतु कहते हैं यह गज बुद्ध को देखते ही शांत हो गया। इन उल्लेखों से यह सवाल उठता ही है कि वह क्या था जो बुद्ध बाँट रहे थे? वह कैसा बोध था जिस अभिव्यक्ति को दबाने के लिये देवव्रत तथा उस जैसे अनेक कुण्ठित हो उठे थे? वह क्या था जिसके कारण एक ओर तो अंगुलिमाल जैसा क्रूर डाकू हृदय बदल लेता है दूसरी ओर आम्रपाली जैसी विख्यात नगरवधु धम्म की शरण आ जाती हैं? इस बात का विश्लेषण करते हुए दीर्घनिकाय में उल्लेख है “जैसे कोई औंधे को सीधा कर दे, ढ़के को खोल दे, भूले को मार्ग दिखा दे उसी प्रकार बुद्ध नें धर्म को प्रकाशित किया है”। बुद्ध की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण उनकी वह जनपक्षधरता थी जो सीधे प्रत्येक हृदय तक उतरती थी। श्रावस्ती में चर्म रोग से जूझ रहे तिस्स नाम के एक भिक्षु की स्वयं सेवा करते हुए बुद्ध नें संदेश दिया था कि ‘भिक्षुओं एक दूसरे के मातापिता बनो’। आम व्यक्ति के लिये होते थे बुद्ध के प्रवचन; इस लिये तत्कालीन राजकीय भाषा अथवा विद्वानों की भाषा संस्कृत की अपेक्षा तथागत के सारे प्रवचन आमजन की पालि भाषा में हैं।
यह जान कर मुझे आश्चर्य हुआ था कि बुद्ध ईश्वर में विश्वास नहीं रखते। बारीकी से देखने पर प्रतीत होता है कि यहाँ भी वे मध्यमार्गी ही हैं क्योंकि वे खण्डन भी नहीं करते। जीव, ब्रम्ह, आत्मा, परमात्मा जैसे वाद-विवाद से बच कर मनुष्य की लैकिक समस्याओं तक तथागत उतर आते हैं। वे मानते हैं कि संसार दु:खमय है; दु:ख के कारण है तथा दु:ख के कारणों का निवारण ही निर्वाण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। बुद्ध दु;ख के निवारण के लिये अष्टांगिक मार्ग बताते हैं - सम्यक दृष्टि (जैसा दृष्टिकोण वैसा ही परिणाम); सम्यक संकल्प (संकल्प पवित्र व शुद्ध हों); सम्यक वाक्य (हमारा वचन/बोलचाल सही हो); सम्यक कर्म (उचित प्रतिफल के लिये कार्य सही होने चाहिये); सम्यक आजीविका (आजीविका के साधन उचित हों); सम्यक चेष्टा (उचित व सही दिशा में प्रयत्न); सम्यक स्मृति (स्मृति/अनुभूतियाँ जागृत रहें) तथा सम्यक समाधि (ध्यान/आध्यात्मिक चेतना सही हो)। सम्यक का अर्थ है सत्य। बुद्ध यहीं नहीं ठहरते अपितु अपने अनुयाईयों के लिये दस शील का अनुपालन अनिवार्य कर देते हैं – अहिंसा, सत्य, आस्तेय (चोरी न करना), अपरिग्रह (संग्रह व सम्पदा वृत्ति का त्याग), ब्रम्हचर्य, नृत्य-गान का त्याग, कोमल शैय्या का त्याग, सुगन्धित द्रव्यादि का त्याग, असमय भोजन का त्याग तथा कामिनी कांचन का त्याग। उल्लेखित प्रथम पाँच शील गृहस्थ अनुयाईयों के लिये हैं जबकि भिक्षुओं को सभी दस शीलों का अनुपालन आवश्यक बताया गया है। इन नीयमों के अतिरिक्त बुद्ध नें माता-पिता की आज्ञा का पालन, गुरुजनों के प्रति श्रद्धा, सत्पात्रों को दान, प्राणिमात्र से प्रेम, उदारता आदि की भी शिक्षायें प्रदान की हैं।
अति सर्वत्र वर्जयेत को बुद्ध के दर्शन का प्रमुख सिद्धांत माना जा सकता है। आज के हिंसा ग्रस्त समाज के सामने बुद्ध यदि उदाहरण होते तो संभव है उन समस्याओं के हल की कुंजी भी पास होती जिन्हे अब नदी के इस पाट अथवा उस पाट में ही धरा माना जाता है। हल जड़ नहीं होते अपितु प्रवाहमान धारा होते हैं। धारा ही राह बनाती है, धारा ही पाषाणों को मोम करती है और धारा ही समुद्र में मिल कर परमतत्व की हकदार होती है; हाँ मध्यम मार्ग ही तो आज भी प्रदीप्त व सार्थक दर्शन है। बुद्ध कर्मवादी भी हैं, वे मानते हैं कि आपके कर्म ही आपका भविष्य तय करते हैं; यहाँ तक कि कर्म आपका निर्वाण अथवा पुनर्जन्म भी तय करते हैं। पुन: यह जोड़ना उचित होगा कि बुद्ध अनीश्वरवादी हैं तथा मानते हैं कि विश्व की उत्पत्ति के लिये किसी सृष्टिकर्ता की आवश्यकता नहीं है अपितु कार्य-कारण की श्रंखला से विश्व चलता रहता है। बुद्ध का दर्शन प्रत्येक हेतु/कारण का विश्लेषण चाहता है तथा निदान पर जोर देता है; यही उनका कारणवाद है। कारणवाद प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति का सिद्धांत है जो स्पष्ट करता है कि किसके होने से (प्रतीत्य) क्या उतपन्न हो सकता है (समुत्पाद)। यह महीन सिद्धांत है जिसकी वर्तमान से जोड़ कर व्याख्या देखनी हो तो कह सकते हैं कोई चिकित्सक बिना रोग का कारण जाने उसकी व्याख्या नहीं कर सकता न ही तब तक उस रोगी का उपचार ही संभव हो सकता है। बुद्ध क्षणिकवादी भी हैं, वे संसार के समस्त पदार्थों को क्षणिक मानते हैं। इस दर्शन को कारण वाद के साथ जोड़ कर देखने पर जो स्वरूप सामने आता है वह है कि एक कारक के उत्पन्न होने तथा उसके नष्ट होने के पश्चात ही दूसरे कार्य की उत्पत्ति संभव है। बुद्ध यथार्थवादी भी थे; उन्होंने उन्ही विषयों का मनन-चिंतन किया जो तदयुगीन समाज में मानव कल्याण के लिये आवश्यक थे। बुद्ध अपने समय के सभी प्रचलित दर्शनों से अलग अनात्मवाद का सिद्धांत प्रदान करते हैं जिसके अनुसार आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। मनुष्य में एसा कोई तत्व नहीं है जो नष्ट नहीं होता हो। यहाँ बुद्ध के पुनर्जन्म के सिद्धांत पर पुन: गौर करने की आवश्यकता है; कर्मवादी बुद्ध यह मानते हैं कि मनुष्य के अनित्य अहंकार का पुनर्जन्म होता है। जिस प्रकार सागर में एक लहर के जाते ही दूसरी लहर का आना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है उसी तरह एक जन्म की अंतिम चेतना के विलोपित होते ही दूसरे जन्म की प्रथम चेतना का उदय स्वत: हो जाता है। जिस तरह तेल तथा बाती के सम्पूर्णता से चल चुकने के पश्चात दीपक की लौ बुझ जाती है उसी प्रकार वासना तथा अहंकार के नष्ट होते ही पुनर्जन्म का चक्र समाप्त होता है तथा निर्वाण प्राप्त होता है।
बुद्ध के जीवन तथा दर्शन पर बात समाप्त करने से पहले उनके परिनिर्वाण को ले कर पुन: ओशो रजनीश को उद्धरित करना चाहता हूँ। ओशो नें बीसवी शताब्दि में बुद्ध की जिस तरह से पुनर्व्याख्या की है वह अद्वितीय है। तथागत के परिनिर्वाण से पूर्व की एक घटना पर वे व्याख्यान देते हुए कहते हैं – “भगवान बुद्ध के आखिरी छ: महीने बहुत पीड़ा में बीते। बुद्ध एक गांव में ठहरे थे....और उस गांव के एक एक गरीब ने बुद्ध को निमंत्रण दिया कि मेरे घर भोजन कीजिये। वह निमंत्रण दे ही रहा था कि इतनी देर में गांव के किसी धनपति ने आकर भगवान से कहा कि आज का भोजन निमंत्रण मेरे घर ग्रहण करें। भगवान बुद्ध ने कहा – ‘धनपति आज का तो निमंत्रण आ चुका है। इस प्रेमी ने आज अपने घर बुलाया है’। उस अमीर ने उस आदमी की तरफ देखा और कहा – ‘इस का निमंत्रण? शायद इस के पास तो अपने खाने के लिए भी कुछ नहीं होगा। इसके तो खुद कई-कई फाँकें पड़े होते है’। तब उसने उसकी तरफ देख कर उससे पूछा ‘क्या मैं कुछ गलत कहा रहा हूँ?’ उस व्यक्ति ने गर्दन हिला कर हामी भर दी। ‘इस के पास कुछ तो खिलाने के लिए होगा तभी तो यह इतनी दूर से मुझे निमंत्रण देने के लिए आया है। अब निमंत्रण तो इसी का स्वीकार कर चुका हूँ और इसी के घर भोजन करूंगा। जाओ ग्रहपति आप भोजन की तैयारी करो आज का भोजन आपके यहाँ है’।.....भगवान बुद्ध गये। उस आदमी को भरोसा भी न था कि भगवान उसके घर पर भी कभी भोजन ग्रहण करने के लिए आएँगे। वस्तुत: उसके पास खिलाने को कुछ भी न था। सब्जी के नाम पर गरीब किसान बरसात के दिनों में कुकुरमुत्ते पैदा हो जाते है—लकड़ियों पर, गंदी जगह में—उस कुकुरमुत्ते को इकट्ठा कर लेते है। सुखाकर रख लेते है। और उसी की सब्जी बनाकर खाते हैं। कभी-कभी ऐसा होता है कि कुकुरमुत्ते पायजनस हो जाते हैं। जहरीले हो जाते है....तो कुकुरमुत्तों में जहर था। बुद्ध के लिए उसने कुकुरमुत्ते की सब्जी बनाई। वह एकदम कड़वा जहर था। मुँह में रखना मुश्किल था। लेकिन उसके पास एक ही सब्जी थी। भगवान बुद्ध ने यह सोच कर कि अगर मैं कहूँ कि यह सब्जी कड़वी है तो यह कठिनाई में पड़ेगा; उसके पास कोई दूसरी सब्जी नहीं है। वे उस ज़हरीली सब्जी को खा गये। खूब आनंद ले कर खाते रहे। जैसे ही भगवान बुद्ध वहाँ से निकले और उस आदमी ने सब्जी को चखा तो वह हैरान हो गया। यह क्या!! यह सब्जी तो कड़वा जहर है। वह भागा हुआ आया और उसने कहा कि आप क्या करते रहे? वह तो जहर है। वह छाती पीटकर कर रोने लगा; लेकिन भगवान बुद्ध ने कहा, तू जरा भी चिंता मत कर। जहर मेरा अब कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगा क्योंकि मैं उसे जानता हूँ जो अमृत है। तू जरा भी चिंता मत कर घर जा।....लेकिन फिर भी उस आदमी की चिंता तो हम समझ सकते है। उससे अनजाने में क्या हो गया। उसे अंदरूनी तौर पर कितनी ग्लानि, पीड़ा, पश्चाताप हो रहा होगा कि उसने ये कर दिया। पर उस आदमी को भगवान ने कहा तू धन्य भागी है। तू खुश हो, तू सौभाग्यशाली है। कभी हजारों वर्षों में बुद्ध जैसा व्यक्ति पैदा होता है। दो ही व्यक्तियों को उसका सौभाग्य मिलता है। पहला भोजन कराने का अवसर उसकी माँ को मिलता है और अंतिम भोजन कराने का अवसर तुझे मिला है। तू सौभाग्यशाली है; तू आनंदित हो। ऐसा फिर सैकड़ों हजारों वर्षों में कभी कोई बुद्ध पैदा होगा और ऐसा अवसर फिर किसी को मिलेगा।......बुद्ध के शिष्यों ने जीवक वैद्य को बुला कर जब पता कराया कि भगवान की तबीयत क्यों खराब रहती है; तब उसने बताया कि जहर दिया गया है। भगवान के अन्य भिक्षुओं के साथ आनंद रोने लगा कि वह आदमी तो हत्यारा है, उसने आपको जहर दिया है। भगवान ने कहा - ऐसी बात भूल कर भी मत कहना अन्यथा उस आदमी को कोई जीवित नहीं रहने देगा। मरने के वक्त तक सब यही कहते रहे कि आप एक बार तो कह देते कि यह सब्जी कड़वी है, विषाक्त है; हम पर यह वज्रपात अकस्मात न गिरता।...और भगवान केवल मुस्कुराए और कहने लगे यह तो निमित है; कैसे जाना, कोई तो बहाना होना ही था। यह वज्रपात गिरना तो था ही, इससे क्या फर्क पड़ता है कि कैसे गिरा? जहां तक मेरा संबंध है मुझ पर कोई वज्रपात नहीं गिरा क्योंकि मैने उसे जान लिया है जो अमृत है। जिसकी कोई मृत्यु नहीं होती”।
बुद्धत्व प्राप्ति के पैंतालिस वर्षों तक भगवान बुद्ध अनवरत उपदेश देते रहे तथा अपने सिद्धांतों का प्रचार करते रहे। कुशीनगर में एक सालवृक्ष के नीचे उन्होंने ईसा पूर्व 543 में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। बुद्ध के दाह संस्कार के पश्चात उनके भस्मावशेष के आठ दावेदार थे जिनमें प्रमुख थे - मगध सम्राट अजातशत्रु; वैशाली के लिच्छवि; पावा के मल्ल; कुशीनारा के मल्ल तथा रामग्राम के कोलियगण।....बुद्ध पर चर्चायें अनंत है तथा अनंत काल तक होती रहेंगी। बुद्ध की प्रासंगिकता भी कभी समाप्त नहीं हो सकती तथा उनके दर्शनों की वैज्ञानिकता पर हर युग को अपने समय की परिस्थिति के अनुरूप व्याख्यायें करते रहना चाहिये। बुद्ध नें शिष्य आनंद से पूछा था कि सबसे शक्तिशाली तत्व कौन सा है? आनंद भ्रमित थे; उन्हें अनेक तत्व अपनी अपनी तरह से सर्वशक्तिमान प्रतीत हो रहे थे। बुद्ध मुस्कुराये और कहा वह इच्छाशक्ति है आनंद जो प्रत्येक असंभव को संभव कर सकती है।...बुद्ध नें अपनी इच्छाशक्ति से एक युग बदल कर रख दिया था। बुद्ध आज भी प्रभावित करते हैं तथा शरणागत कर रहे हैं। 1951 की जनसंख्या के अनुसार भारत में बुद्धानुयाईयों की संख्या 2487 थी जबकि 1961 की जनगणना में यह 32,50,227 पायी गयी। क्या यह सच नहीं कि जो बुद्ध के धर्मावलम्बी नहीं हैं वे भी उनकी सम्मोहित करती प्रतिमा के सम्मुख जैसे ही आ खड़े होते हैं ध्यानावस्था में जा पहुँचते हैं; मन स्वत: कह उठता है – बुद्धं शरणं गच्छामि।
3 टिप्पणियाँ
महात्मा बुद्ध के जीवन दर्शन को वृहद् रूप से अध्ययन की आवश्यकता है । वर्तमान परिपेक्ष्य में बुद्ध को कैवल वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करते हुए देखा जा रहा है जबकि उनके बताए मूल्यसंपूर्ण मानवता के लिए हैं बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर देशवासियों को हार्दिक शुभकामनायें।भगवान बुद्ध के सत्य, अहिंसा और शांति के संदेश हमे सदैव प्रेरित करते रहेंगे
जवाब देंहटाएंमहात्मा बुद्ध के जीवन दर्शन को वृहद् रूप से अध्ययन की आवश्यकता है । वर्तमान परिपेक्ष्य में बुद्ध को कैवल वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करते हुए देखा जा रहा है जबकि उनके बताए मूल्यसंपूर्ण मानवता के लिए हैं बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर देशवासियों को हार्दिक शुभकामनायें।भगवान बुद्ध के सत्य, अहिंसा और शांति के संदेश हमे सदैव प्रेरित करते रहेंगे
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.