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हे प्रकृति माँ [कविता] – मनोज चौहान

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हे प्रकृति माँ ,
मैं तेरा ही अंश हूं,
लाख चाहकर भी,
इस सच्चाई को मैं,
झुठला नहीं सकता


 मनोज चौहानरचनाकार परिचय:-



नाम : मनोज चौहान
जन्म तिथि : 01 मई,1979
जन्म स्थान : हिमाचल प्रदेश के मंडी जिला के अंतर्गत गाँव महादेव(सुंदर नगर) में किसान परिवार में जन्म l
शिक्षा : बी.ए. ,बी.टेक(इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग), पीजीडीएम इन इंडस्ट्रियल सेफ्टी l
पेशा : एसजेवीएन लिमिटेड (भारत सरकार एवं हिमाचल प्रदेश सरकार का संयुक्त उपक्रम ) में इंजीनियर के पद पर कार्यरत l
लेखन की शुरुआत : 20 मार्च, 2001 से (दैनिक भास्कर में प्रथम लेख प्रकाशित) l
प्रकाशन : बिभिन्न पत्र – पत्रिकाओं (समाचार पत्र - दैनिक भास्कर(चंडीगढ़) , दैनिक जागरण,अमर उजाला ,दैनिक ट्रिब्यून , अजीत समाचार(जालंधर), पंजाब केसरी(जालंधर ),दिव्य हिमाचल (धर्मशाला, हि .प्र),हिमाचल दस्तक,आपका फैसला,दैनिक न्याय सेतु(हमीरपुर,हि.प्र.)एवं पत्रिकाएँ – सरोपमा(होशियारपुर,पंजाब),बहती-धारा(शिमला),गिरिराज साप्ताहिक(शिमला),हिम भारती(शिमला),समाज धर्म(ऊना,हि .प्र.),साहित्य गुंजन(इंदौर,म .प्र.),शब्द मंच(बिलासपुर, हि .प्र.),एसजेवीएन(शिमला) की गृह राजभाषा पत्रिका “हिम शक्ति” आदि l ) में समय – 2 पर कविता , फीचर , साक्षात्कार ,व्यंग्य , क्षणिकाएं , लघुकथा, परिचर्चा ,निबंध ,पाठकों के पत्र और प्रतिक्रियाएं इत्यादि प्रकाशित एवं अंतर्जाल पर “जय –विजय” , “साहित्य कुन्ज”, “रचनाकार” , “हिंदी कुन्ज”, “साहित्य शिल्पी”, “अनुभूति” आदि पत्रिकाओं में भी रचनाएं प्रकाशित l
प्रसारण : आकाशवाणी, शिमला (हि.प्र.) से कविता पाठ का प्रसारण l
वर्तमान पता : सेट नंबर – 20,ब्लॉक नंबर – 4, एसजेवीएन कॉलोनी दत्तनगर, पोस्ट ऑफिस – दत्तनगर, तहसील – रामपुर बुशहर, जिला – शिमला (हिमाचल प्रदेश) -172001
मोबाइल – 09418036526,09857616326
ई - मेल : mc.mahadev@gmail.com

मैंने लिखी है बेइन्तहा,
दास्तान जुल्मों की,
कभी अपने स्वार्थ के लिए,
काटे हैं जंगल,
तो कभी खेादी है सुंरगें,
तेरा सीना चीरकर

अपनी तृष्णा की चाह में,
मैंने भेंट चड़ा दिए हैं,
विशालकाय पहाड.,
ताकि मैं सीमेंट निर्माण कर,
बना संकू एक मजबूत और,
टिकाऊ घर अपने लिए

हे प्रकृति माँ
चंचलता से बहते,
नदी,नालों और झरनों को,
रोक लिया है मैंने बांध बनाकर,
ताकि मैं विद्युत उत्पादन कर,
छू संकू विकास के नये आयाम

हे प्रकृति माँ,
तुम तो माँ हो,
और कभी कुमाता नहीं हो सकती,
मगर मैं हर रोज,
कपूत ही बनता जा रहा हूं,
अपने स्वार्थों के लिए,
नित कर रहा हूं जुल्म तुझपर,
फिर भी तुमने कभी भी,
अपनी ममता की छांव कम नहीं की,
दे रही हो हवा,पानी,धूप आज भी,
और कर रही हो मेरा पोषण हर रोज।

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