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ममता [लघुकथा] - रचना व्यास

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यूँ तो शीतल को अपने ससुराल में सभी भले लगे लेकिन उसकी बुआ सास की लड़की हर्षदा न जाने क्यों बहुत अपनी-सी लगती थी|

रचना व्यासरचनाकार परिचय:-



रचना व्यास मूलत: राजस्थान की निवासी हैं। आपने साहित्य और दर्शनशास्त्र में परास्नातक करने के साथ साथ कानून से स्नातक और व्यासायिक प्रबंधन में परास्नातक की उपाधि भी प्राप्त की है।

हर्षदा उम्र में उससे कम थी पर अत्यंत परिपक्व व शालीन थी | साल दर साल गुजरते गए पर शीतल को माँ बनने का सौभाग्य न मिला | मिले तो बस सवाल ही सवाल- ससुराल में भी , मायके में भी| हर्षदा उससे सखी का सा बर्ताव करती | शीतल उसके पास रोकर अपना दाह शांत कर लेती | शादी कि दसवीं वर्षगाठ पर उसे बहुत बधाइयाँ मिली पर जब उसने अपनी बहनों से , ननदों से एक बच्चा उसकी गोद में डाल देने का आग्रह किया तो सबने अपने कारण गिना दिए | सास-ससुर को परिवार से बाहर का शिशु गवारा न था | उसके आसुओं के सागर में हर्षदा ने यह कहकर एक आशा नौका डाल दी कि भविष्य में वह अपना बच्चा शीतल को देगी | विधि का विधान- जल्दी ही हर्षदा के विवाह की तारीख पक्की हो गई | शीतल ने जब उसे उसका वचन याद दिलाया तो हर्षदा ने स्पष्ट किया कि उसके मंगेतर नवीन से उसने बात की है और उन दोनों ने फैसला लिया है कि वे अपना दूसरा बच्चा शीतल को देंगे | पहला बच्चा वे स्वयं रखेंगे | समय पंख लगाकर उड़ा | तमाम इलाज व पूजा -पाठ के बाद भी शीतल नाउम्मीद ही रही | उधर हर्षदा के गर्भ में शीतल की उम्मीदें पलने लगी | हर्षदा सोचती यदि प्रथमतः पुत्री हुई , फिर दुबारा लड़का हुआ तो वह भाभी का होगा पर क्या उसके सास-ससुर पोते का मोह छोड़ देंगे | फिर उसे तो अपने लिए बेटी ही चाहिए थी | शिशु चाहे बेटा हो या बेटी पर स्वस्थ ,सुंदर व तेजस्वी हो | उसके चिंतन का तो अंत ही नहीं था पर पूरे नौ महीने उसने शांतचित्त हो , प्रसन्नतापूर्वक धार्मिक ग्रंथो का अध्ययन किया , सकारात्मक भावो का पोषण किया | लेबर रूम में वह आश्चर्यचकित रह गई जब अत्यंत पीड़ा की अवस्था में, तंद्रा में उसे समाचार मिला कि उसने जुड़वाँ पुत्रों को जन्म दिया है | यह किसी चमत्कार से कम न था । जब नवीन उन्हें देखने आये तो उसने संयत स्वर में कहा कि भगवान ने एक बच्चा भाभी के लिए ही भेजा है | हम दोनों को ठीक-से संभल भी नहीं पायेंगे | नवीन ने अपनी माँ की झिझक के बावजूद भी स्वीकृति दे दी | उसने स्वयं शीतल को फोन किया | जब डॉक्टर बच्चो का चेक-अप करके बाहर निकले तो हर्षदा ने नवीन को वार्ड में बुलाया और गुरूजी द्वारा प्रदत्त धागा एक बच्चे की कलाई पर बांधा और बोली "ये हमारा अर्जुन है और वो रहा शीतल भाभी का बेटा |" शीतल के तो मानो पैर ही जमीं पर नहीं पड़ रहे थे | गाजे-बाजे के साथ वो बेटे को घर ले गई | अभी तो उसे जन्मोत्सव मनाकर अपने ढेरों अरमान पूरे करने थे | हर्षदा पर तो मानो उसने आशीर्वाद व शुभकामना की झड़ी ही लगा दी| शीतल के पास तो अब कोई बात ही नहीं होती थी सिवा उसके बेटे वासु के कार्यकलापों के | अब वो बैठना सीख गया , उसने कब पहली बार माँ कहा - वो बस चहकती ही रहती | हर्षदा की विशेष देखभाल व इलाज करवाने के बाद भी अर्जुन ठीक से चल नहीं पाता था हालाँकि मानसिक रूप से वह पूर्ण परिपक्व था | नवीन ने इसे नियति माना कि वासु भाभी की गोद में है | पर हर्षदा हार मानने वाली नहीं थी | उसने अर्जुन को पूर्ण शिक्षा दिलवाने के साथ -साथ उसके रूचि के क्षेत्र को विकसित किया | उसने जान लिया कि व्हील चेयर पर निर्भर होने के बावजूद भी अर्जुन की रूचि निशानेबाजी में है | उसने अपनी जमापूंजी से घर में ही शूटिंग रूम बनवाया | सुयोग्य कोच की सेवायें ली | वो निरंतर अर्जुन को प्रोत्साहित करती| उसे लक्ष्य के प्रति एकाग्र होना सिखाती | माँ -बेटे की मेहनत रंग लाई जब छोटी उम्र में ही पेराओलम्पिक में अर्जुन ने शूटिंग में स्वर्ण पदक जीतकर देश का मान बढ़ाया | गौरवान्वित माता -पिता एयरपोर्ट के रास्ते में थे , अपने विजेता पुत्र की अगवानी के लिए | नवीन ने सहज ही पूछ लिया "हर्षदा, वासु का पूर्ण विकास देखकर कभी तुम्हें नियति पर क्षोभ नहीं हुआ ? " हर्षदा ने आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया "क्षोभ कैसा ? ये मेरा अपना फैसला था | मैंने आजतक किसी को नहीं बताया | डॉक्टर ने चेक -अप बताया कि अर्जुन शारीरिक रूप से कुछ कमतर होगा तभी तो गुरूजी का दिया धागा मैंने उसे बांधा उसकी विशिष्ट पहचान के लिए ।" नवीन ने प्रतिप्रश्न किया "शीतल भाभी से तुम्हें इतना स्नेह था पर उन पर विश्वास नहीं था कि वो अर्जुन को उसकी कमजोरी की वजह से पूर्ण ममता नहीं देगी ?" हर्षदा गम्भीरतापूर्वक मुस्कराई "शीतल भाभी दयावश ममता तो पूरी लुटाती पर मुझे डर था कि कहीं वो उसे भावनात्मक व मानसिक धरातल पर कमजोर बना देती | उसकी प्रतिभा को निखार नहीं पाती। मेरी तरह कठोर नहीं हो पाती | " हर्षदा के इस रहस्योद्घाटन पर नवीन अवाक् था पर साथ ही नतमस्तक था अपनी अर्धांगिनी की इस दृढ़ता पर , त्याग और समझदारी पर |

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