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भगवान श्री सीता राम जी [कविता] - डॉ. वेद व्यथित

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किस ने देखा राम हृदय की घनीभूत पीड़ा को
कह भी जो न सके किसी से उस गहरी पीड़ा को
क्या ये सब सेवाके बदले मिला राम के मन को
आदर्शों पर चल कर ही तो पाया इस जीवन को


 डॉ. वेद 'व्यथित' रचनाकार परिचय:-



9 अप्रैल, 1956 को जन्मे डॉ. वेद 'व्यथित' (डॉ. वेदप्रकाश शर्मा) हिन्दी में एम.ए., पी.एच.डी. हैं और वर्तमान में फरीदाबाद में अवस्थित हैं। आप अनेक कवि-सम्मेलनों में काव्य-पाठ कर चुके हैं जिनमें हिन्दी-जापानी कवि सम्मेलन भी शामिल है। कई पुस्तकें प्रकाशित करा चुके डॉ. वेद 'व्यथित' अनेक साहित्यिक संस्थाओं से भी जुड़े हुए हैं।

राम तुम्हारा हृदय लेह धातु से अधिक कठिन है
पिघल सका न किसी अग्नि से ऐसी मणि कठिन है
आई होगी बाढ़ हृदय में आँसू धरके होंगे
शायद आँख रुकी न होगी बेशक हृदय कठिन है

मन करता है राम तुम्हारे दुःख का अंश चुरा लूं
पहले ही क्या कम दुःख झेले कैसे तुम्हे पुकारूँ
फिर भी तुम करुणा निधन ही बने हुए हो अब भी
पर उस करुणा में कैसे में अपने कष्ट मिला दूं

किस से कहते राम व्यथा मन में जो उन के उभरी
जीवन लीला कैसे कैसे आदर्शों में उलझी
इस से ही तो राम राम हैं राम नही कोई दूजा
बाद उन्हों के धर्म आत्मा और नही कोई उतरी

दो सांसों के लिए जिन्दगी क्या क्या झेल गई थी
पर्वत से टकरा सीने पर सब कुछ झेल गई थी
पर जब आंसू गोरे धरा बोझिल हो उन से डोली
वरना सीता जैसी देवी क्या क्या झेल गई थी

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