मुझे याद है कि आत्महत्या के करीबन सात-आठ दिन पहले नगेन्द्र सुबह मुझसे मिलने आया था। मैं बाहर बरामदे में बैठा अखबार पढ़ रहा था। एक नवजात शिशु को गिद्धों द्वारा नोंचते-चीथते लोगों ने देखा था। गिद्धों की छीना-झपटी में खून से लथपथ शरीर छूटकर जब जमीन पर गिरा था तो कुछ लोगों ने शिशु के फेफड़े को धड़कते भी देखा था। नगेन्द्र ने कहा कि वह भी वहाँ मौजूद था -- उस भीड़ में, जो हतप्रभ हो उस वीभत्स क्रीड़ा को देख रही थी।
बातों का सिलसिला इसी घटना के इर्द-गिर्द काफी समय तक घूमता रहा। सुबह का चाय-नाश्ता लिये मेरा अर्दली भी आ धमका और बातों में दिलचस्पी लेता हुआ बैठ गया। आश्चर्य कि वह अर्दली एक दार्शनिक की तरह अपने विचार रखने लगा जो कुछ इस तरह थे:
प्रकृति का नियम ही कुछ ऐसा है कि जब यौवन खिलता है तो ऐसी मादकता लिये होता है कि मन अनायास ही पपीहे की तरह कुहुकने लगता है। मन में कल्पनाओं की क्यारियाँ महक उठती हैं और चहुँ ओर प्रेम के मुकुल लग जाते हैं। मनपंछी उड़ने लगता है किसी ऐसे साथी को खोजने जो इस यौवन की उच्छ्रंकलता को बाँध सके -- और जब ऐसे साथी की खोज पूरी होती है तो यौवन में एक अद्भुत ताजगी और निखार आ जाता है और वह अपनी सीमाओं को तोड़कर फूट पड़ता है जैसे मेघों के चुम्बन के लिये बिजली आकाश को छूने की कोशिश कर रही हो। या फिर जैसे पागल पुरवैया के झोंकों की तरह यौवन का आँचल रह रहकर प्रेमरस पाने तन-श्रंगार को निर्वस्त्र करने आतुर हो रहा हो।
बातों का सिलसिला इसी घटना के इर्द-गिर्द काफी समय तक घूमता रहा। सुबह का चाय-नाश्ता लिये मेरा अर्दली भी आ धमका और बातों में दिलचस्पी लेता हुआ बैठ गया। आश्चर्य कि वह अर्दली एक दार्शनिक की तरह अपने विचार रखने लगा जो कुछ इस तरह थे:
प्रकृति का नियम ही कुछ ऐसा है कि जब यौवन खिलता है तो ऐसी मादकता लिये होता है कि मन अनायास ही पपीहे की तरह कुहुकने लगता है। मन में कल्पनाओं की क्यारियाँ महक उठती हैं और चहुँ ओर प्रेम के मुकुल लग जाते हैं। मनपंछी उड़ने लगता है किसी ऐसे साथी को खोजने जो इस यौवन की उच्छ्रंकलता को बाँध सके -- और जब ऐसे साथी की खोज पूरी होती है तो यौवन में एक अद्भुत ताजगी और निखार आ जाता है और वह अपनी सीमाओं को तोड़कर फूट पड़ता है जैसे मेघों के चुम्बन के लिये बिजली आकाश को छूने की कोशिश कर रही हो। या फिर जैसे पागल पुरवैया के झोंकों की तरह यौवन का आँचल रह रहकर प्रेमरस पाने तन-श्रंगार को निर्वस्त्र करने आतुर हो रहा हो।

मध्य प्रदेश विद्युत मंडल से कार्यपालन निदेशक के रूप में संबद्ध रहे भूपेन्द्र कुमार दवे जी लंबे समय तक विभागीय पत्रिका ’विद्युत सेवा’ के संपादन मंडल से जुड़े रहे हैं। साथ ही लेखन भी लगातार चलता रहा है।
इनकी दो पुस्तकें ’बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ’ (कहानी संग्रह) तथा ’बूँद बूँद आँसू’ (खण्ड काव्य) प्रकाशित हो चुकी हैं। साथ ही कई रचनायें विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में समय समय पर प्रकाशित होती रही हैं और कुछ आकाशवाणी से भी प्रसारित हुई हैं। अंतर्जाल पर भी इनकी रचनाएं कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं।
आपकी कहानियाँ व लघुकथाएं मध्यप्रदेश विद्युत मंडल तथा ’मध्यप्रदेश लघुकथाकार परिषद’ द्वारा सम्मानित की गई हैं। आपको मध्यप्रदेश विद्युत मंडल द्वारा "कथा सम्मान" तथा त्रिवेणी परिषद द्वारा "उषा देवी अलंकरण" से भी सम्मानित किया गया है।
इनकी दो पुस्तकें ’बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ’ (कहानी संग्रह) तथा ’बूँद बूँद आँसू’ (खण्ड काव्य) प्रकाशित हो चुकी हैं। साथ ही कई रचनायें विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में समय समय पर प्रकाशित होती रही हैं और कुछ आकाशवाणी से भी प्रसारित हुई हैं। अंतर्जाल पर भी इनकी रचनाएं कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं।
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और तब बंद पलकों पर साँस की कामक्रीड़ा या बाहूपाश में ऐंठते तन की कसमसाहट के बीच स्वाति बूँद-सा प्रेमरस पाकर जब यौवन का अनायास मोहभंग होता है तो यही मायावी- मदमस्त-नशीला यौवन खुद पर तरस खाने लगता है। स्वयं को कोसता है। तब कहता फिरता है यह मेरा कसूर न था -- बस उम्र का तकाजा था या फिर एक हक या अधिकार था जो मन ने तानाशाह की तरह जताया।
और दूर कहीं एक सपना प्रेम रस से परितृप्त कोयल की कूक-सा, पीली-पीली सरसों पर झूमने की कल्पना में खोया-सा मात्र आम्र की टहनियों पर खिलती और हल्की बयार में झरती बौर- सा जीवन-वसंत का प्रतीक-मात्र बन रह जाता है। और तब अपनी गोद में अंकुरित पुष्प को पास समझने की प्रतिक्रिया प्रारंभ होती है। और होता है समाज के कुत्सित कटघरों में कैद कुंठाओं का विमोचन जिसका एकमात्र अंत यही है कि कलंक को अमानुषिक ढंग से ढंक दिया जाय और पवित्रता के लिबास में ढंकी रहने की पिपासा लिये एक नारी विवश हो अपने पवित्र अंश को भयावह रात में छोड़ देने के लिये अग्रसर होती है। यही यौवन की मादकता की करुणापूर्ण पटकथा बन जाती है।
अर्दली ने कहा, ‘बाबूजी, हम सब इसी पटकथा की भूमिका में अपना-अपना नाट्य प्रस्तुत करते हैं।’
नगेन्द्र ये बातें बड़ी एकाग्रता से सुन रहा था। इस दौरान यद्यपि मैं नगेन्द्र के चेहरे पर बनती बिगड़ती रेखाओं को समझने की कोशिश रहा था, फिर भी सच मानिये मैं कुछ न समझ सका कि नगेन्द्र किस सोच में है। समझ सका तो बस इतना कि नगेन्द्र अखबार में छपी घटना का चश्मदीद गवाह था और इसलिये उसका इस तरह विचलित-सा प्रतीत होना स्वाभाविक था। अतः प्रेम के संबंध में दी गई इस दार्शनिक व्याख्या से नगेन्द्र के अन्तर्मन में उठती विडम्बनाओं की थाह लेना मैंने उस समय निरर्थक ही समझा।
किन्तु शाम ढले नगेन्द्र ने मुझे याद किया। एक पत्र जो उसने अपनी प्रेमिका को लिखा था, मुझे पढ़ने दिया। अथाह कुंठाओं का पात्र-सा यह पत्र मुझे बता रहा था कि नगेन्द्र कभी प्रेमचक्र में उलझा था और वासनाओं का शिकार बनी उस प्रेमिका को उस अवस्था में लाकर छोड़ बैठा था, जिसे अर्दली ने अपनी दार्शनिक परिभाषा में स्पष्ट किया था। नगेन्द्र ने पत्र में लिखा था, ------
‘अर्पणा, मेरी लेखनी पश्चाताप के ताप में झुलस रही है। सच, मैं कैसे लिखूँ कि मैं उस भीड़ में था जो एक नवजात शिशु के जीवित कोमल शरीर को गिद्धों की क्रूर चोंच से टुकड़े-टुकड़े होकर बिखरते हुए देख रही थी। हाँ अर्पणा, उस दिन मैं जबलपुर में था -- सोचा सीधा जाकर तुमसे मिलूँ और कहूँ कि तुम मेरी हो और वह भी मेरा है जो इस समय तुम्हारी कोख में पड़ा मेरी छत्रछाया की कल्पना की अभिलाषा लिये मुस्कुरा रहा है -- मैं तुम्हें और अपने उस नन्हें टुकड़े को समाजरूपी गिद्ध के सामने फेंक नहीं सकता। अर्पणा, तुम ही मुझे माफ कर सकती हो -- अपना सकती हो -- और मुझे पाप से परे ले जा सकती हो।’
मैंने पत्र पढ़कर नगेन्द्र के हाथ में रख दिया। नगेन्द्र की बंद मुठ्ठी को अपने हाथों में लेकर मैं मन ही मन बुदबुदाया- नगेन्द्र तुम महान हो। पर ये शब्द नगेन्द्र ने सुने या नहीं, मुझे नहीं मालूम।
लेकिन जब नगेन्द्र की आत्महत्या की खबर मुझे मिली तो न जाने कितनी बातें उलझन बन मेरे मन में बिखर गई। क्या अर्पणा ने नगेन्द्र को माफ नहीं किया? क्या उसने नगेन्द्र की विनती ठुकरा दी? क्या अर्पणा ने उस देहरी पार कदम रख लिए थे, जहाँ पर पैर रखते ही नारी देवी- रूप में परिणित होने की अपनी श्रेष्ठता खो बैठती है? या फिर नगेन्द्र ही वास्तविकता से विमुख हो जाना चाहता था? क्या वह समाज के इशारों पर कठपुतली बन जाने पर विवश था? क्या वह स्वरचित भूलभुलैया में फँसा हताश हो गया था?
ऐसे अनेक प्रश्न मनपटल पर लिये -- शंकाओं की गुत्थियों में उलझा हुआ मैं नगेन्द्र का अंतिम संस्कार भी कर आया। बाहर बैठे उदास चेहरे भी अपने अपने तरीकों से गुत्थियों को सुलझा रहे थे। पुलिस भी अच्छी तरह से तहकीकात कर चुकी थी। फिर भी नगेन्द्र ने जो मेरे सामने अपनी कोमल भावनाओं का रत्नभंडार खोला था वह गैरों की अटकलबाजियों से मेल नहीं खा रहा था। और मैं भी मन में उठे असंख्य प्रश्नों के उत्तर नहीं पा रहा था। मैं उठ कर नगेन्द्र के कमरे की ओर चल पड़ा।
वहाँ कुछ देर सन्नाटे से घिरी शून्यता का अनुभव करता रहा। टेबल पर रखी किताबें, कुछ कागज के पन्ने उलट-पलट कर देखे। फिर सोचा कि पुलिस तो इस सबको पहले ही देख चुकी है, मुझे इनमें क्या मिलेगा। तभी मेरी नजर कोने पर पड़े गुड़ी-मुड़ी किए कागज के पुर्जे पर पड़ी। मैंने उसे उठाकर खोला -- वह अर्पणा का पत्र था। लिखा था --
‘मेरे दुष्यंत,
‘हाँ, मैं तुम्हें दुष्यंत ही कहने को मजबूर हूँ क्योंकि तुमने जो निशानी मुझे दी थी उसी को देखकर तुम अपनी भूली हुई अर्पणा को याद कर सके हो। यह मेरा दुर्भाग्य था या किसी का श्राप -- मैं कह नहीं सकती, पर यह कटु सत्य है कि वह नवजात शिशु जिसे गिद्धों से चीथता तुमने देखा, वही तुम्हारी ही दी हुई निशानी थी मेरे पास।
तुम्हारी,
‘अर्पणा’
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