मेरे ही शाने पे चढ़-चढ़ के हमनवा तो चले
इसी बहाने सही, चेहरे वो दिखा तो चले
मेरे ही घर में अंधेरों ने जान दी है पर
मेरे ही दर से उजालों का क़ाफ़िला तो चले
तुम्हारी चाह में हम ख़ाक हुए हैं लेकिन
हमारी ख़ाक से रस्म-ओ-रहे-वफा तो चले
तभी तो जान के रखते हैं हरा ज़ख्मों को
हमारे दर्द का तुमको कभी पता तो चले
नहीं है इसका ग़म के दिल से हाथ धो बैठे
तुम्हारी याद के हर नक़्श हम मिटा तो चले
अब इस कदर है इश्क़ की लगन के क्या कहिये
के दार पर चढ़ें तो तितलियाँ उड़ा तो चले
अँधेरी रात में सूरज की राह क्यों तकना?
यही है वक़्त की जुगनू का तज़किरा तो चले
2 टिप्पणियाँ
वाह वाह
जवाब देंहटाएंबढ़िया ग़ज़ल ...बधाई ...!
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.