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अच्छा करते हो तो [गज़ल] - विश्वदीप "जीस्त"

अच्छा करते हो तो बदले में बुरा मिलता है 
ज़़िंदगी हो या मोहब्बत हो, सिला मिलता है 

ये तेरी याद है या बंद लिफ़ाफ़ा कोई 
जब भी खुलता है तो ज़ख्मों का पता मिलता है 

तुमने समझाया हमें दैर-ओ-हरम का मकसद
हम तो समझे थे कि हर सिम्त खुदा मिलता है 

ग़़ौर से झाको गिरेबां में जो धुआं देखो 
दिल की तह में ही कोई ख्वाब जला मिलता है 

इस ज़माने में ऊसूलों की बात इतनी है 
जब भी मिलता है, भिखारी सा खडा मिलता है 

अपने गांवों में तो दिल मिलतें हैं,बच्चों की तरह
तेरे शहरों में कोई दर भी खुला मिलता है? 

ज़ीस्त ने हमको शिकायत का तो म़ौक़ा न दिया
लाख एहसान, सदा दर्द नया मिलता है

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