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एच . आई . वी. पॉज़िटिव [लघुकथा]- सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

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उसने फिर से संदेश भेज दिया , " शायद पिछले जन्म के किन पापों के कारण कुछ लोगों के जीवन में ऐसे लोग ऐसे लोग आ जाते हैं, जिनका साथ एच . आई . वी. - एड्स से भी अधिक खतरनाक होता हैं . वे संख्या में भले ही वाइरस जितने असंख्य और सूक्ष्म न होकर , मात्र एक ही हों परन्तु आकार में मानव जैसे होते हैं पर उनमें मानवता नहीं होती और वे अपने साथी के असाध्य कष्ट का मूल कारण बन जाते है .".


 सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा रचनाकार परिचय:-


हरियाणा स्थित जगाधरी में जन्मे सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा 32 वर्ष तक दिल्ली में जीव-विज्ञान के प्रवक्ता के रूप में कार्यरत रहने के उपरांत सेवानिवृत हुए हैं तथा वर्तमान में स्वतंत्र रूप से लघुकथा, कहानी, बाल - साहित्य, कविता व सामयिक विषयों पर लेखन में संलग्न हैं।
आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, यथा “आज़ादी”, “विष-कन्या”, “तीसरा पैग” (सभी लघुकथा संग्रह), “बन्धन-मुक्त तथा अन्य कहानियाँ” (कहानी संग्रह), “मेरे देश की बात” (कविता संग्रह), “बर्थ-डे, नन्हे चाचा का” (बाल-कथा संग्रह) आदि। इसके अतिरिक्त कई पत्र-पत्रिकाओं में भी आपकी रचनाएं निरंतर प्रकाशित होती रही हैं तथा आपने कुछ पुस्तकों का सम्पादन भी किया है।
साहित्य-अकादमी (दिल्ली) सहित कई संस्थाओं द्वारा आपकी कई रचनाओं को पुरुस्कृत भी किया गया है।

सुधा ने अपनी चुप्पी को तोडा और कहा , " तुम मुझे कब तक यूँ ही प्रताड़ित करते रहोगे ? '

"प्रेम के मुखौटे से प्रताड़ना का ग्रास बना संवेदनशील शिकार भला कैसे और किसे प्रताड़ित करेगा ?'

उसके आहत मन ने प्रश्न किया .

' मुझे इस प्रकार के प्रश्नो से कब छुटकारा मिलेगा ? " वह तिलमिलाई .

" जब तक मुझे इस प्रश्न का उत्तर नसीब नहीं हो जाता कि मुझमे , तुमने ऐसा क्या पाया कि अशोक जी से विद्रोह कर बैठी ?'

" मैंने कोई विद्रोह नहीं किया . अंतिम समय तक मैं उनके नाम का सिन्दूर अपनी मांग में सजाती रही . " वह ढिठाई से बोली .

" परन्तु पत्नी धर्म निभाने में तो मेरे साथ भी तुमने कोई अवसर नहीं गवायाँ और इस रूप में तुमने जब चाहा अशोक जी की अवहेलना की ?"

" तुम इसे अवहेलना कह सकते हो पर मेरे पास उन्हें सबक सिखाने का यही एक रास्ता था."

" उन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था . वे तो हर तरह से तुम्हारा ख्याल रखते थे .”

" वैसा करना उनकी मजबूरी थी क्योंकि मेरे बिना उन्हें नींद नहीं आती थी .”

“ यह तो सभी जोड़ों की कहानी है , इसके बदले में नींद न आने वाली बात कहाँ से आ गयी ?”

“ वे मुझसे अधिक अपनी माता और अपने पिता को महत्व देते थे जब कि उन दोनों ने मुझ पर अत्याचार का कोई मौका नहीं गंवाया था .मुझे उन दोनों से नफरत की हद तक चिड़ हो गयी थी . मैंने उनसे अपनी इस चिड़ और गुस्से को कभी छिपाया भी नहीं था पर हर बार मुझे हारना पड़ा था , बार - बार की इस जिल्ल्त से मैं टूट सकती थी . मैंने टूटने का रास्ता नहीं चुना . मुझे विद्रोह का रास्ता ठीक लगा और मैंने वही चुना .”

" तुम्हारे विद्रोह में प्यार का ढोंग भी शामिल था जिसके लिए तुमने मुझे चुन लिया .”

" मैंने ऐसा जान बुझ कर नहीं किया . तुम अपने दुर्भाग्य के कारण मेरे सामने आ गए . उन दिनों मुझे जो भी मिलता मैं उसे ही चुन लेती .”

"अपने डाह के एवज में इतने सालों तक तुमने मेरी संवेदना को रौंदां तो क्या अब मैं भी तुम्हे कोई सबक सिखाऊँ ?"

" तुम कुछ भी कहो या करो . मुझे कोई फर्क नहीं पढ़ने वाला. मैं पहले की तरह हर अनहोनी को होनी में बदल दूंगीं ." ऐसा कहते हुए सुधा के चेहरे पर दम्भ था .

" निश्चय ही तुम एच . आई . वी . विषाणु का परिवर्तित रूप हो . यहां मैं बिलकुल ठीक हूँ .”

" तुम भी जान लो कि एच . आई . वी. कभी भी अपने आप किसी के पास नहीं जाता ."

" तुम तो उससे भी खतरनाक हो क्योकि तुम खुद चलकर मेरे पास आयीं थी ."

" प्लीज मुझे प्रताड़ित मत करो .शुरू में कारण कुछ भी रहा हो पर बाद में , मैं सचमुच तुमसे प्यार भी करने लगी थी क्योंकि तुममे वे सारे गुण मौजूद थे जिनकी कल्पना मैंने अपने जीवन - साथी से की थी . पर अब मैं चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि उस रूप में अपनी बेटी का सामना करने का कोई भी बल मुझमें नहीं है ." सुधा के शब्दों में अचानक लाचारी उतर आई .

" लगता है एच . आई . वी . पॉज़िटिव रोगी की तरह तुम नफरत की नहीं , दया की पात्र हो , भले ही तुम हर बार गलत निर्णय लेती रही हो ." उसने मन ही मन कहा , फिर थोड़ा रुककर बोला , " मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर मिल गया है , ईश्वर तुम्हारा भला करे .”

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