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दुनिया दिलों की राह में [गज़ल] - विश्वदीप "जीस्त"


दनुिया दिलों की राह में दीवार न हो जाये
याँ ख्वाब देख लेना भी आज़ार न हो जाये
 
चांदी की चमक मेरी सदाक़त को न खा जाये
मेरी भी क़लम उनका परस्तार न हो जाये

ओहदे की तख्तयों से है इंसान की पहचान
मैं डर रहा हूँ घर कहीं बाज़ार न हो जाये

अपने ग़रज़ के दायरे में क़ैद है हर शख्स
ये सारा शहर ही कहीं बीमार न हो जाये


दो दिन में मिटने लगती है अब रिश्तों की शिद्दत
इंसान का दिल भी कहीं अखबार न हो जाये


ऐ हुक्मरानों! ख़ूब ज़रूरी है एहतियात
जो सो रही है ख़ल्क़, वो बेदार न हो जाये


ऐ निगेहबान-ए-दश्त! ये रखना ज़रा ख्याल
मेरे लहू से दश्त भी गुलज़ार न हो जाये

तू 'ज़ीस्त'-ए-जावदां' से तो टकराने चला है
ऐ मौत! देख तेरी कहीं हार न हो जाये

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