HeaderLarge

नवीनतम रचनाएं

6/recent/ticker-posts

पुरस्कारों की होड़ में उलझा साहित्य [आलेख] - कंचन पाठक

IMAGE1
जीवन तथा समाज की तमाम गतिविधियों को समेट कर अपने उत्तरदायित्व के रूप में सामाजिक चेतना के लिए सन्देश के स्त्रोत में सर्जित करना एक साहित्यकार की लेखनी के जिम्मे होता है जहाँ से मानवीय सम्वेदनाओं एवं चेतनाओं को झंकृत करने वाले साहित्य की अलकनन्दिनी धारा जन-जन तक पहुँच पाठकों के ह्रदय तन्तुओं को तरंगित कर स्वयं हीं अपनी अमिट छवि गढ़ लेती है ! अगर पुराने साहित्य की तरफ देखें तो उनमें पाठकों के ह्रदय को मनोमुग्ध एवं भाव-विभोर कर देने की ऐसी क्षमता स्पष्ट रूप से विद्यमान दिखती है ! किन्तु बाज़ारवाद की नई फ़िज़ां के नए युग में आज का साहित्य सम्वेदनाओं और आत्मिक भावानुभूतियों के अतिरिक्त या इतर अपने लिए एक बाज़ार भी रचने या बनाने की ओर तीव्रता से अग्रसर हो चुका है

 कंचन पाठक रचनाकार परिचय:-



नाम - कंचन पाठक
शिक्षा - प्राणी विज्ञान से स्नातकोत्तर (M.Sc. in Zoology)
प्रयाग संगीत समिति से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में प्रभाकर (M.A.) कवयित्री, लेखिका सहसंपादिका 'आगमन'
प्रकाशित कृतियाँ :- इक कली थी (काव्य-संग्रह), सिर्फ़ तुम (संयुक्त काव्य-संग्रह), काव्यशाला (संयुक्त काव्य-संग्रह), सिर्फ़ तुम (कहानी संग्रह), तीन अन्य प्रकाशनाधीन l
सम्पादन :- सिर्फ़ तुम (कहानी संग्रह) आगमन साहित्य सम्मान २०१३ ।
लेखन विधा - कविताएँ (छंदबद्ध, छंदमुक्त), आलेख, कहानियाँ, लघुकथाएँ, व्यंग्य । कादम्बिनी, अट्टहास, गर्भनाल पत्रिका, राजभाषा भारती (गृहमंत्रालय की पत्रिका), समाज कल्याण (महिला एवं बाल विकास मंत्रालय), रुपायन (अमर उजाला की पत्रिका) समेत देश के विभिन्न राज्यों के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रचनाएँ प्रकाशित । इन्टरनेट पर विभिन्न वेब पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित । हमारा मेट्रो (दिल्ली) एवं कृषिगोल्डलाइन में हर सप्ताह कॉलम प्रकाशित ।
फ़ोन नंबर - +918969809870
मेल आईडी - pathakkanchan239@gmail.com
ब्लॉग - www.kanchanpathak.blogspot.in

! इस बाज़ार में साहित्य की उत्कृष्टता, गुणवत्ता का निर्धारण लेखक के प्रति पाठकों का भावनात्मक जुड़ाव या प्यार दुलार नहीं बल्कि पुरस्कारों एवं सम्मानों के द्वारा निर्धारित किये जा रहे हैं ! एक साहित्यकार, जो किसी भी समाज का सर्वोच्च सजग रूप माना जाता है उसके द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उत्पन्न की गई यह स्थिति निश्चित रूप से हिन्दी साहित्य और उसके भविष्य की ओर एक खतरनाक सन्देश है ! एक कलमकार के लिए अपने वैयक्तिक लाभ के अनगिनत वातायनों को खोलकर रखना कितना उचित है यह तो कहना मुश्किल है किन्तु आज पुरस्कारों का मनमोहक आकर्षण हर किसी को कुछ ऐसे लुभा रहा है कि छोटा बड़ा प्रत्येक साहित्यकार उसे अपने प्रणयपाश में बाँध कर सहेज लेना चाह रहा है l साहित्य जिसे समाज का दर्पण कहा जाता है, बेशक साहित्य रूपी दर्पण में एक बार भलीभांति निहार लेने पर यह ज्ञात हो जाता है कि वर्तमान समय-काल में राष्ट्र-समाज और युग की दिशा एवं रूपरंग किस प्रकार की व किस मनोवृति की ओर उन्मुख है अथवा रही होगी ! इस प्रकार के कृत्यों से वर्तमान साहित्य आख़िर कैसी मनोवृतियों की ओर इंगित करना चाह रहा है ? राजनीति, धर्म और नियम समेत युग-समाज की हर छोटी बड़ी हलचलों को शब्दों में ढालकर जन-जन की चेतना को जागृत करना हीं एक सच्चे और जागरूक लेखक या कवि की पहचान होती है परन्तु आज कविताएँ एवं साहित्य न सिर्फ़ प्रायोजित किये जाते हैं बल्कि अपने लिए सांठ-गाँठ कर ख़ुद तय किया गया यश और पुरस्कारों वाला कृत्रिम आसमान भी बुनने लग गए हैं ! तत्कालीन काव्य और कविता की हालत तो और भी बुरी है ... अंग्रेजी और हिंगलिश के शब्दों को ठूंस कर बनायीं जा रही कविताएँ स्वयं अपनी पहचान नहीं कर पा रही ! न तो इनमें भावनात्मकता, विचार प्रधानता, मानवीय तत्वों का उचित समावेश तथा पाठकों एवं समाज के लिए कोई सकारात्मक सन्देश होता है और ना हीं व्याकरण की दृष्टि से शुद्धता ! ''हिंदी'' समूचे हिन्द की भाषा है जो संस्कृत की गरिमा और पवित्रता को समेटे हुए स्वयं में हीं परिपूर्ण है ! देवत्वयुक्त देवनागरी लिपि कोई कमजोर सी नाजुक लतिका नहीं जिसे किसी और बाहरी भाषा के सहारे की आवश्यकता हो ! तिसपर तुर्रा ये कि यह कविताएँ एवं साहित्य बड़े आराम से पुरस्कृत भी कर दिए जा रहे हैं ! जो कि हिंदी साहित्य और पुरस्कृत करने वाली संस्थाएं दोनों पर हीं एक बदनुमा लांछन है ! आज छोटी बड़ी अनेक संस्थाओं में दिए जाने वाले पुरस्कारों की जो वास्तविकता है वह किसी से छिपी नहीं रह गई है l इन्हीं सब कारणों से वे साहित्यिक संस्थाएँ व अकादमियाँ जिनकी कभी गहरी साख हुआ करती थी आज प्रश्नों के सन्देहात्मक घेरे से युक्त नज़र आने लगे हैं l आज नए साहित्यकार पुरस्कारों में तिकड़मों का गणित भिड़ा कर जहाँ एक ओर अजीबोगरीब से छद्म साहित्यिक यात्रा में दिन रात गतिशील हैं वहीँ सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है जिसकी अनदेखी भी कतई नहीं की जा सकती ... जी हाँ हर कलाकार की ख्वाहिश होती है कि उसकी कला लोगों तक पहुँचे, कलमकार भी इस भावना से अछूता नहीं होता पर आज लोप होते हिन्दी साहित्य की वजह से उसके भीतर का रचनाकार कसमसाता रहता है ! वैसे एक बात तो तय है साहित्य जब तक पाठक तक ना पहुँचे तब तक उसका कोई मोल नहीं ! पहले जहाँ पत्र पत्रिकाओं में साहित्य के लिए पर्याप्त स्थान हुआ करता था और इसके अलावा प्रकाशनों से हर वर्ष अन्य पुस्तकों के साथ-साथ साहित्यिक पुस्तकें भी प्रकाशित हुआ करती थी वहीँ आज ना तो पत्र पत्रिकाओं में साहित्य के लिए जगह बची है और ना हीं तथाकथित बड़े प्रकाशक नए लोगों की किताबों को छापना चाहते हैं ! कुछेक को छोड़कर अधिकतर बड़ी पत्र पत्रिकाओं में से हिंदी साहित्य अब अलोपित हीं हो चुका है और रहा सवाल प्रकाशनों का तो नए साहित्यकारों के लिए उनका एक हीं टका-सा ज़वाब होता है कि, साहित्यिक किताबें आजकल बिकती नहीं इसलिए हम नहीं छापते ! ये सिर्फ़ गुजरे हुए साहित्यकारों को हीं छापते हैं, तो यहाँ छपने के लिए पहले तो बेचारे युवा साहित्यकारों को गुज़रना होगा ! खैर इन बड़े प्रकाशकों की मिन्नतें करते करते लेखक के स्वाभिमान का आखिरकार सर्वनाश हो जाता है ! एक साहित्यकार जब स्वयं स्वाभिमानी नहीं होगा तो वह राष्ट्रीय स्वाभिमान को कहाँ से जगाए रख पायेगा ? नया साहित्यकार भृत्य-भाव से लगातार खुशामद में लगा रहता है तब भारी भरकम छपाई खर्च के साथ पुस्तक प्रकाशन की हामी भरकर प्रकाशक नए लेखकों को मानो कृतार्थ करता है ! थका हारा बेचारा लेखक ऐसे में पुरस्कारों के खेत में से तनिक सा अन्नधन जतन बटोरने की लालसा से निकल पड़ता है कि कुछ तो लागत की भरपाई हो जाए ! इसके अलावा भी कई सारे घन चक्करों के गोरखधन्धे हैं जिनमें भटक कर परास्त हुआ कलमकार कुछ पाने की कामना से पुरस्कारों के अरण्य में दौड़ लगाने लगता है ! वैसे ये अलग बात है कि प्रसाद, निराला या प्रेमचन्द जैसे सजीव अभिव्यक्तियों से परिपूर्ण प्रखर एवं अमर कलमकार अपने जीवन काल में किसी राजकीय सम्मानों से समालंकृत नहीं किये गए तथापि इनका कृतित्व एक सम्पूर्ण युग के कृतित्व पर भी भारी है पर आज एक कविता या एक किताब लिखकर हीं लोग पुरस्कारों की सेटिंग में निकल पड़ते हैं ! ऊपर से साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं के अधिकारियों की गुप्तगुटबंदियाँ और ग़लत-शलत निर्णय हिंदी साहित्य जगत की गरिमा का ह्रास कर उसे निश्चय हीं उच्छित्ति व पतन की ओर ले जा रहा है और सबसे दुखद बात तो यह है कि आज इन सब की परवाह करने वाला कोई नहीं रह गया है ! पहुँच का लाभ उठाकर या पुरस्कारों का तन्त्र समझ-पहचान कर चतुराई से इन्हें झटक लेना साहित्य की सृजनशील आत्मा को आख़िर किस दिशा में लेकर जायेगी यह एक बड़ा प्रश्न है जिसका उत्तर साहित्यकारों को हीं तलाशने होंगे .... एक सच्चे साहित्यकार को यह बात समझनी होगी कि उसके लिए भाव-विह्वल निश्छलता, परिपक्व तल्लीनता, समाज के लिए उचित दिशा संकेत और अपनी लेखनी के प्रति पूर्ण समर्पण अधिक आवश्यक है बजाय पुरस्कारों की सेटिंग्स के !

कवि, लेखक, पत्रकार और ज्योतिर्विद पीसीएस ऑफिसर (सेवा-निवृत) डॉ रघोत्तम शुक्ल इस बारे में कहते है कि - स्व-प्रेरित और स्वतःस्फूर्त उपलब्धियाँ हीं समीचीन होती हैं !

जो ''हित के सहित हो'' वही साहित्य है अर्थात समाज और संसार का हित ! लोक मंगल की भावना साहित्य सृजक का प्रथम और सर्वोच्च प्राथमिकता वाला उद्देश्य होना चाहिए ! तभी तो गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस प्रारम्भ करते हुए वाणी विनायक की वन्दना में उन्हें ना केवल वर्णों, अर्थ, समूहों, रसों और छन्दों का कर्ता बताया बल्कि मंगलाना च कर्तारौ कहना नहीं भूले ! यह सच है कि साहित्यकार भी मानव है और बाकी सबों की तरह हीं लोक पुत्र और वित्त नामक तीन एषणाओं से युक्त है ! लोकेशणा में यश भी आता है तथा आचार्य मम्मट ने भी काव्यं यशसे अर्थकृते कहकर काव्य किंवा साहित्य से यश और धन के लब्धि की वकालत की है ! पर बात तब बिगडती है जब सिफारिशों, पैरवी व अन्य भ्रष्ट तरीकों की अतिशयता हो जाए ! जैसा कि आज के साहित्यकारों का एक बड़ा वर्ग कर रहा है ! ऐसे में तो इनाम इकराम पाने की होड़ में सृजन की आत्मा हीं धूमिल और मलिन हो जायेगी और लोक मंगल भावना से लेकर परिणति तक दलित !

एक टिप्पणी भेजें

3 टिप्पणियाँ

  1. pichhle lagbhag 35 salon se nirantar likhne aur pathakon dwara sarahe jane ke baad bhi puraskaron ki daud men naheen hoon to iska karan lobbing n karna aur rajnaitik kheme men khada n hona hi hai.

    जवाब देंहटाएं
  2. सच है......साहित्य तो कही खो गया है

    जवाब देंहटाएं
  3. सच है......साहित्य तो कही खो गया है

    जवाब देंहटाएं

आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.

आइये कारवां बनायें...

~~~ साहित्य शिल्पी का पुस्तकालय निरंतर समृद्ध हो रहा है। इन्हें आप हमारी साईट से सीधे डाउनलोड कर के पढ सकते हैं ~~~~~~~

डाउनलोड करने के लिए चित्र पर क्लिक करें...