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रसानंद दे छंद नर्मदा : 7 [लेखमाला]- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

साहित्य शिल्पी
साहित्य शिल्पी के पाठकों के लिये आचार्य संजीव वर्मा "सलिल" ले कर प्रस्तुत हुए हैं "छंद और उसके विधानों" पर केन्द्रित आलेख माला। आचार्य संजीव वर्मा सलिल को अंतर्जाल जगत में किसी परिचय की आवश्यकता नहीं। आपने नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी.ई., एम.आई.ई., एम. आई. जी. एस., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ए., एल-एल. बी., विशारद, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है।

साहित्य सेवा आपको अपनी बुआ महीयसी महादेवी वर्मा तथा माँ स्व. शांति देवी से विरासत में मिली है। आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपने निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नाम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी 2008 आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है। आपने हिंदी साहित्य की विविध विधाओं में सृजन के साथ-साथ कई संस्कृत श्लोकों का हिंदी काव्यानुवाद किया है। आपकी प्रतिनिधि कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद 'Contemporary Hindi Poetry" नामक ग्रन्थ में संकलित है। आपके द्वारा संपादित समालोचनात्मक कृति 'समयजयी साहित्यशिल्पी भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' बहुचर्चित है।

आपको देश-विदेश में 12 राज्यों की 50 सस्थाओं ने 75 सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं- आचार्य, वाग्विदाम्बर, 20वीं शताब्दी रत्न, कायस्थ रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञान रत्न, कायस्थ कीर्तिध्वज, कायस्थ कुलभूषण, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, साहित्य वारिधि, साहित्य दीप, साहित्य भारती, साहित्य श्री (3), काव्य श्री, मानसरोवर, साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, हरी ठाकुर स्मृति सम्मान, बैरिस्टर छेदीलाल सम्मान, शायर वाकिफ सम्मान, रोहित कुमार सम्मान, वर्ष का व्यक्तित्व(4), शताब्दी का व्यक्तित्व आदि।

आपने अंतर्जाल पर हिंदी के विकास में बडी भूमिका निभाई है। साहित्य शिल्पी पर "काव्य का रचना शास्त्र (अलंकार परिचय)" स्तंभ से पाठक पूर्व में भी परिचित रहे हैं। प्रस्तुत है छंद पर इस महत्वपूर्ण लेख माला की छठी कड़ी:
दोहा है रस-खान

गौ भाषा को दूह कर, कर दोहा-पय पान
शेष छंद रस-धार है, दोहा है रस-खान

रसः काव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला आनंद ही रस है। काव्य मानव मन में छिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है। भरत मुनि के अनुसार "विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः" अर्थात् विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं-

स्थायी भावः मानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है।

रस श्रृंगार हास्य करुण रौद्र वीर भयानक वीभत्स अद्भुत शांत वात्सल्य
स्थायी भाव रति हास शोक क्रोध उत्साह भय घृणा विस्मय निर्वेद शिशु प्रेम

विभावः
किसी व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति भी विभाव हो सकती है। ‌विभाव के दो प्रकार आलंबन व उद्दीपन हैं। ‌

आलंबन विभाव के सहारे रस निष्पत्ति होती है। इसके दो भेद आश्रय व विषय हैं ‌

आश्रयः जिस व्यक्ति में स्थायी भाव स्थिर रहता है उसे आश्रय कहते हैं। ‌शृंगार रस में नायक नायिका एक दूसरे के आश्रय होंगे।‌

विषयः जिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषय कहते हैं ‌ "क" को "ख" के प्रति प्रेम हो तो "क" आश्रय तथा "ख" विषय होगा।‌

उद्दीपन विभाव- आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। वन में सिंह गर्जन सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जन आदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँ हैं ।

अनुभावः आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना आदि अनुभाव हैं। ‌

संचारी भावः आश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावों को संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं।

रस

अ. श्रृंगार रस : स्थाई भाव रति। श्रृंगार रस के दो प्रकार संयोग तथा वियोग हैं।

संयोगः

तुमने छेड़े प्रेम के, ऐसे राग हुजूर ।
बजते रहते हैं सदा, तन-मन में संतूर।। -अशोक अंजुम, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार

द्वैत भुला अद्वैत वर, बजा रहे हैं बीन।
कौन कह सके कौन है, कबसे किसमें लीन।। -सलिल

वियोगः

हाथ छुटा तो अश्रु से, भीग गये थे गाल। ‌
गाड़ी चल दी देर तक, हिला एक रूमाल।। - चंद्रसेन "विराट", चुटकी चुटकी चाँदनी

देख रहे कुछ और हैं, दीख रहा कुछ और।
उन्मन मन करा रहा है, चित्तचोर पर गौर।। - सलिल

हास्य रस : स्थाई भाव हास ।

आफिस में फाइल चले, कछुए की रफ्तार। ‌
बाबू बैठा सर्प सा, बीच कुंडली मार।। - राजेश अरोरा"शलभ", हास्य पर टैक्स नहीं

लालू-लीला देखिये, लिए राबड़ी गोद।
सारा चारा चर गए, कहते किया विनोद।। - सलिल

व्यंग्यः

अंकित है हर पृष्ठ पर, बाँच सके तो बाँच।
‌ सोलह दूनी आठ है, अब इस युग का साँच।। -जय चक्रवर्ती, संदर्भों की आग

नेता जी को रेंकते, देख गधा नाराज।
इन्हें गधा मत बोलिए, भले पहन लें ताज।। -सलिल

करुण रस : स्थाई भाव शोक ।

हाय, भूख की बेबसी, हाय, अभागे पेट। ‌
बचपन चाकर बन गया, धोता है कप-प्लेट।।- डॉ. अनंतराम मिश्र 'अनंत', उग आयी फिर दूब

चिंदी-चिंदी चीर से, ढाँक रही है लाज।
गड़ी शर्म से जा रही,धरती में बिन व्याज।। - सलिल

रौद्र रस : स्थाई भाव क्रोध।

बलि का बकरा मत बनो, धम-धम करो न व्यर्थ।
दाँत तोड़ने के लिए, जन-जन यहाँ समर्थ।। - डॉ. गणेशदत्त सारस्वत, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार

शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश। ‌
जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश।। -सलिल

वीर रस : स्थाई भाव उत्साह।

रणभेरी जब-जब बजे, जगे युद्ध संगीत। ‌
कण-कण माटी का लिखे, बलिदानों के गीत।। - डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा "यायावर", आँसू का अनुवाद

नेट जेट को पीटते, रचते नव इतिहास।
टैंकों की धज्जी उड़ा, सैनिक करते हास।। - सलिल

भयानक रस : स्थाई भाव भय।

उफनाती नदियाँ चलीं, क्रुद्ध खोलकर केश। ‌
वर्षा में धारण किया, रणचंडी का वेश।। - आचार्य भगवत दुबे, शब्दों के संवाद

काल बनीं काली झपट, घातक किया प्रहार।
लहू उगलता गिर गया, दानव कर चीत्कार।। -सलिल

वीभत्स रस : स्थाई भाव घृणा।

हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध। ‌
खुश जनता का खून पी, नेता अफसर सिद्ध।। -सलिल

अद्भुत रस : स्थाई भाव विस्मय।

पांडुपुत्र ने उसी क्षण, उस तन में शत बार। ‌
पृथक-पृथक संपूर्ण जग, देखे विविथ प्रकार।।-डॉ. उदयभानु तिवारी 'मधुकर', श्री गीता मानस

विस्मय से आँखें फटीं, देखा मायाजाल।
काट-जोड़, वापिस किया, पल में जला रुमाल।। -सलिल

शांतः स्थाई भाव निर्वेद।

जिसको यह जग घर लगे, वह ठहरा नादान। ‌
समझे इसे सराय जो, वह है चतुर सुजान।।-डॉ. श्यामानंद सरस्वती 'रौशन', होते ही अंतर्मुखी

हर्ष-शोक करना नहीं, रखना राग न द्वेष।
पंकज सम रह पंक में, पा सुख-शांति अशेष।। -सलिल

वात्सल्यः स्थाई भाव शिशु प्रेम।

छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल। ‌
पान करा पय मनाती, चिरजीवी हो लाल।। -सलिल

भक्तिः स्थाई भाव विराग।

दूब दबाये शुण्ड में, लंबोदर गजमुण्ड। ‌
बुद्धि विनायक हे प्रभो!, हरो विघ्न के झुण्ड।। -भानुदत्त त्रिपाठी "मधुरेश", दोहा कुंज

वंदे भारत-भारती, नभ भू दिशा दिगंत।
मैया गौ नर्मदा जी, सदय रहें शिव कंत।। -सलिल

रसराज दोहा में हर रस को भली-भांति अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य है। इसलिए इसे महाकाव्यों में अन्य छंदों के साथ गूँथकर कथाक्रम को विस्तार दिया जाता है। राम चरित मानस में तुलसीदास जी ने चौपाई के बीच में दोहा का प्रयोग किया है। दोहा में पचास, शतक, सतसई और सहस्त्रई लिखने की परंपरा है। किसी और छंद को यह सौभाग्य प्राप्त नहीं है।

-------------------- निरंतर

- क्रमश: 8

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