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भूखखोर [कविता]- सुशील कुमार 'मानव'

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छुट्टियों ने ताले डाल दिये, मई-जून की किवाड़ों पे


 सुशील कुमार 'मानव' रचनाकार परिचय:-



नाम : सुशील कुमार 'मानव' आजीविका :अनुवादक साहित्यिक कार्य: कविता,कहानी, गजल लिखना आयु 32 वर्ष, निवास: इलाहाबाद शिक्षा : हिंदी, समाज शास्त्र, और जैव-रसायन से परास्नातक मोबाइल नं. 8743051497

शिक्षकों के चेहरे भले ही गुलमोहर हो जायें,
पर छुट्टियां, इन भूखखोरों के लिए अमलतास नही।

सभ्यता के दरबार में मेरी पेशी होगी,
इन्हें इंसान कहने पर! जानता हूँ,
पर! इंसानों की कुछ अभिशप्त पीढ़ियां,
मिड डे मील से ही पलती हैं।

कंकड़,पत्थर, कीड़े - मकोड़े कुछ भी हों
पर, एक वक्त पेट की हांड़ी चढ़ती तो है।

इन भूखखोरों की मौजमस्ती का फलसफाँ,
छुट्टियों में नही, पंजीरी की फांकों में है।

पूछा था, एक भूखखोर नें- ‘नानी
क्यों नही मिली तू परियों से?

तेरी हर कहानी में दूध-भात और
घी चुपड़ी रोटियां ही होती हैं!’

प्यास से मुँह बाये तालों के हलक में,
घोंघे नही, झींगे नही, मछलियां नही।

खौलती भूख से, अंतड़ियों को लू लगी है,
छुट्टियों ने तथाकथित मानवता को,
संक्रमित होने से बचा लिया !

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