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ठग्ग की भाषा [कविता]- सुशील कुमार शैली

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भागते हुये उस आदमी को मैं बाजू से पकड़ लेता हूँ

 सुशील कुमार शैली रचनाकार परिचय:-



सुशील कुमार शैली जन्म तिथि-02-02-1986 शिक्षा-एम्.ए(हिंदी साहित्य),एम्.फिल्,नेट| रचनात्मक कार्य-तल्खियाँ(पंजाबी कविता संग्रह), सारांश समय का,कविता अनवरत-1(सांझा संकलन)| कुम्भ,कलाकार,पंजाब सौरभ,शब्द सरोकार,परिकथा पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित सम्प्रति-सहायक प्राध्यापक,हिन्दी विभाग,एस.डी.कॅालेज,बरनाला पता-एफ.सी.आई.कॅालोनी,नया बस स्टैंड,करियाना भवन,नाभा,जिला-पटियाला(पंजाब)147201 मो.-9914418289 ई.मेल-shellynabha01@gmail.com

पूछता हूँ - क्या बात है ओ ! ठगते हो
गद्दे को घोड़ा कह कर
नसल और रफ़्तार की बात करते हो
ये जनता है पागलखाना नहीं
तुम्हारी बातों में हमने आना नहीं,
हम जानते हैं तुम व्यापार के धनी हो
भाषा में पारंगत व्यव्हार के सानी हो,

वो ऐंठता है, अक्क्ड़ता है, चिल्लाता है
झटके से मेरे हाथ को फेंकता है
क्या तुम्हारे बाप ने जहां हाईवे बनाया है
जहां घोड़े को गद्दा ही चलाता है
यही असूल है, यही नाता है
इसमें चलता न कोई बहाना है
जनता ! जनता का क्या है
वो तो फटा हुआ पजामा ( जुमला ) है
जिसको नहाना है, गाना है
भाषा की खाई में उतर जाना है,

बात इतनी ही होती है कि वो
मंच पर चढ़ जाता है
हँसता है, बतियाता है,
भाषा की चासनी से
नसल और रफ़्तार की गोलियां बांटता है
क्योंकि वो भीड़ में हवा का रुख जानता है
इसी लिए जनता की नबज़ को पहचानता है,

मैं देखता हूँ स्तब्ध
कि वो जनता के नाम पर
जनता से थूकवाता है
जनता से ही चटवाता है |

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