आज मैं गूँगा नहीं हूँ,
न चकित हूँ न भ्रमित हूँ
न निश्चेष्ट ही
कल तक ये सारी बातें मुझमें थीं.
न चकित हूँ न भ्रमित हूँ
न निश्चेष्ट ही
कल तक ये सारी बातें मुझमें थीं.

शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव, गोरखपुर
मैं चकित था-
वर्षों की गुलामी से मुक्त हो सकता हूँ
शक्ति है मुझमें.
पर भ्रमित था
यह शक्ति उतारी गई है मुझमें
उभरी नहीं
मात्रा कुछ ही लोग हैं जिनमें
यह शक्ति उभर सकती है स्वयमेव.
अत: निश्चेष्ट था-
जब वह शक्ति उभरी नहीं
उभरनी भी नहीं
कुछ स्वयंभू पुरुषों का निमित्त ही हूँ, तो
अपनी पलकें स्वयं ही क्यो खोलूँ
नींद से जागूँ क्यों ?
किंतु
आज मेरी धरणा खुल गई है
पराग पंखुड़ियों को भेद कर
तिरता है वायु में
उनके कष्टों को आंदोलित कर
जीता है आंदोलन के सृजन क्षणों को
पराग के मौन की वाणी है अपनी
अस्तित्वमय.
मैं यह भेद समझ गया हूँ
अब मैं बोलने लगा हूँ
मेरी आँखें खुल चुकी हैं
मैं उषा के निमीलन में नहीं हूँ
मुझे एहसास हो चुका है
मैं ही अपना भाग्यविधता हूँ
मेरी प्रतिब(ता पहले उस ईकाई से है
जिसे राष्ट्र कहते हैं
फ्रिफर उस पूरे से है
जिसे विश्व कहते हैं
मैं उस मानवता के लिए संघर्ष करूँगा
अब मुझे संघर्ष करने आ गया है.
2 टिप्पणियाँ
कविता के प्रकाशन के लिए साहित्य शिल्पी को धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंआपने मेरी कविता को प्रकाशित किया और स्वयं ही साहित्य शिल्पी को धन्यवाद भी दे दिया। इस प्रकाशन के लिए मैं फिर से आपको धन्यवाद दे रहा हूँ।
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.