सुबह चाय की दूकान पर चुनावों की चर्चा चल रही थी ।
मनन कुमार सिंह संप्रति भारतीय स्टेट बैंक में मुख्य प्रबन्धक के पद पर मुंबई में कार्यरत हैं।
सन 1992 में ‘मधुबाला’ नाम से 51 रुबाइयों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ,
जिसे अब 101 रुबाइयों का करके प्रकाशित करने की योजना है तथा कार्य प्रगति पर है भी।
‘अधूरी यात्रा’ नाम से एक यात्रा-वृत्तात्मक लघु काव्य-रचना भी पूरी तरह प्रकाशन के लिए तैयार है।
कवि की अनेकानेक कविताएं भारतीय स्टेट बैंक की पत्रिकाएँ; ‘जाह्नवी’, ‘पाटलीपुत्र-दर्पण’ तथा स्टेट बैंक अकादमी गुड़गाँव(हरियाणा) की प्रतिष्ठित गृह-पत्रिका ‘गुरुकुल’ में प्रकाशित होती रही हैं।
चायवाला : अरे भाई ! हाथवाले ही तो यहाँ जीतते आये न अबतक ?
ठेलावाला :दूसरे क्या कर लेंगे जीतकर ? आते –जाते रहते हैं सब ।
चायवाला:रोड , नाला सब अशलम भाई ने तो बहुत बनवा दिये जी ।
ठेलावाला : हाँ , पूरा इलाका में काम किया है उ ।
चायवाला : कोई भी कहीं जीतेगा । अपुन को तो अपना काम करना है बस ।
ठेलवाला : वो तो है रे ! कोई खाने को देगा का किसीको ?
चायवाला( मर्मपूर्वक ग्राहक को देखते हुए ): अच्छा निरूप कहाँ से उठा अबकी पारी ?अपनी पुरानी जगह से न ?
ठेलावाला :हाँ , हाँ । अपुन का हाथ है न वह । तेरी तरफ का ही है वो भी । पहने सेना में हुआ करता था , अब हाथ का साथ हो गया है । चलो आज सामने सब्जीवाला नहीं आयेगा ।
वहीं ठेल लेता हूँ अपुन का ठेला , दूकान जम जायेगी । इडली – बाड़ा पाव !आते जाओ – खाते जाओ ।
चायवाला :रे टंटबाज कहींके ! तेरी तरफ और मेरी तरफ का क्या रे ? काम देखो सब अपना –अपना , और का करना है ? वोट के टैम जाके वोट दो बस ।
ठेलावाला : तेरे चायवाले का क्या हुआ ? तू सब चाय पिलाओगे उसे कि सादा पानी ?बड़ा चाय – चाय चिल्लाते चलता है । कभी बेचता होगा , अब हमदर्द बना फिरता है कि नहीं? ऊपर चले जाने पर सब कुछ भूल जाते सारे लोग ।
चायवाला : देखो ! नीचे से ऊपर गया आदमी जरूर कुछ नीचेवालों का खयाल रखता है ।
ठेलावाला (टोह लेने के अंदाज में ): लगता है चायवाला मिसरा अबकी बार चल जायेगा । हर तरफ चर्चा है उसकी ।
चायवाला : सुना कोई हाथ में झाड़ू लिए टहल रहा था इस बार, यहाँ भी ।
एक ग्राहक :राज –राज भी अभी बड़ा चला है जी । सुना है राज के भी आजकल अपने अंदाज हो गये हैं । वह भी अब कुछ बड़े दलवालों को धमकाने लगा है ।
ठेलावाला (स्थानीय ग्राहकों को देखता हुआ ): देखो क्या होता है अबकी बार, किसकी होती है सरकार ।कोई नाच रहा है , कोई नचा रहा है। बंदर नाचा , किसने देखा ?
मैं खड़ा चाय पी रहा था और सारे तुर्रों को जोड़ रहा था । बना यह कि वहाँ मौजूद सारे लोग एक –दूसरे के मन की बात अपनी –अपनी जबान से कह रहे थे । वह सामनेवाले के मन की कहता , तो दूसरा उसके मन की । वाह रे समझ ! वह रे मनों का मिलन !हर कोई सामनेवाले के मन की जान रहा था, अपनी तो दूसरे कहेंगे न । मायानगरी मुंबई की उस चाय की दूकान पर जमी चौपाल की कूटनीतिक चतुराई पर मैं चकित था । हमलोग तो थोड़ी बातों में ही खुल जाते हैं , मन की बात निकल भी जाती है। एक ये सब हैं कि विवेचना जारी है पर निष्कर्ष कुछ नहीं । है कोई माई का लाल जो इनके मन का भेद पता कर ले ? सारे नेताओं और दलों की गणना ऐसे ही धरी –की –धरी रह जाती है ?आप संसद और सरकार की समझ रखते होंगे , पर मतों का मेल –मिलाप तो जनता के ये मटमैले और घिसे –पिटे मुखड़े ही रखते हैं भाई । लगा चाय के साथ सबकी बातें भी खतम हो चलीं । सब लोग भेदभारी नजरों से एक –दूसरे को देखते हुए अपने –अपने रास्ते चल पड़े , दूकान वाले अपनी –अपनी दूकानें देखने लगे । मेरी भी चाय खतम हुई। मैंने गिलास चायवाले की तरफ बढ़ाया , उसने भेदभारी नजरों से मुझे देखा और धीरे –से बोला , ‘ जरा –सी बात पर यहाँ गली –गलौज पर उतर आते हैं सारे । इनसे क्या बात करें भला ?’ मैंने भी हामी भरी औरअपनी ओर चला ।
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