आधी सदी 'अँधेरे में' ; सवाल-दर-सवाल, ज़वाब-दर- ज़वाब
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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हिन्दी विभाग,
शासकीय दिग्विजय स्नातकोत्तर स्वशासी
महाविद्यालय, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
एक लोकतांत्रिक
समाज का नागरिक होने के नाते हम नागरिक चेतना, सामाजिक-राजनीतिक
गतिविधियों और लेखकीय दायित्व के भव्य सवालों के समक्ष खुद को पाते हैं।
इसमें नागरिक कहां खड़ा है? लेखन क्या है? नागरिक चेतना और लेखन के आपसी
सम्बंध क्या हैं? हमारे अपने समाज में लोकतन्त्र, लेखन और समाज के क्या
रिश्ते हैं? उन्हें कैसा होना चाहिए? वैश्वीकरण के दौर में साहित्य की क्या
भूमिका हो सकती है ? ऐसे सवालों से दो चार होते हुए जब हम हिन्दी की
प्रगतिवादी कविता और नई कविता के मज़बूत सेतु के रूप में प्रतिष्ठित
मुक्तिबोध पर एकाग्र होते हैं तब सवाल-दर-सवाल और ज़वाब-दर-ज़वाब रचनाकर्म के
कई अहम पहलू खुद-ब-खुद खुलने लगते हैं, मानों एक कदम रखने पर सौ राहें
फूटने लगती हैं।
गजानन
माधव मुक्तिबोध’ तार सप्तक के पहले कवि थे। मनुष्य की अस्मिता, आत्मसंघर्ष
और प्रखर राजनीतिक चेतना से समृद्ध उनकी कविता पहली बार तार सप्तक के
माध्यम से सामने आई। पुरानी और प्रगतिशील कविता के बीच एक सेतु के रुप में
चर्चित मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक भी। नागपुर में रहकर ही
उन्होंने महत्वपूर्ण काव्य रचनाओं का सृजन किया…'कोशिश कर कुछ ऐसा कहने की
जिससे क्षितिज हो सके और अधिक विस्तृत जिससे हृदय हो सके और अधिक
आलोकित', पीमेन पांचे को की यह काव्य पक्तियां गजानन माधव मुक्तिबोध के
रचानाकर्म पर सटीक बैठती हैं।
हिन्दी
कविता के महानतम सर्जकों में से एक गजानन माधव मुक्तिबोध के निधन के पचास
साल इसी सितंबर में पूरे हो गए हैं। सितंबर उन्नीस सौ पैंसठ के नया
ज्ञानोदय में कवि श्रीकांत वर्मा का एक लेख छपा था जिसमें उन्होंने कहा था
‘अप्रिय’ सत्य की रक्षा का काव्य रचने वाले कवि मुक्तिबोध को अपने जीवन में
कोई लोकप्रियता नहीं मिली और आगे भी, कभी भी, शायद नहीं मिलेगी। कालांतर
में श्रीकांत वर्मा की आशंका गलत साबित हुई और मुक्तिबोध निराला के बाद
हिन्दी के सबसे बड़े कवि के तौर पर न केवल स्थापित हुए बल्कि आलोचकों ने
उनकी कविताओं की नई-नई व्याख्याएं कर उनको हिंदी कविता की दुनिया में शीर्ष
पर बैठा दिया। मुक्तिबोध की बहुचर्चित कविता 'अँधेरे में' ने भी अपनी
अर्धशती पूरी कर ली है। कहना न होगा कि अँधेरे की शब्दावली में अपने आस-पास
पसरे अँधेरे के अनगिन सवालों की शिनाख्त करने वाले मुक्तिबोध की बेकली को
बकलम मुक्तिबोध ही समझने का इस से बेहतर अवसर संभव नहीं है। लिहाज़ा, समय आ
गया है कि इस बात की ईमानदार पड़ताल की जाए कि मुक्तिबोध की रचनाओं में
संघर्ष दिखाई देता है वह उनका अपना संघर्ष मात्र है या फिर पूरे मध्य वर्ग
का, समूची मानवता का और हमारे मौजूदा समय का भी संघर्ष है।
प्रसिद्ध
कवि आशोक वाजपेयी ठीक कहते हैं कि बड़ा लेखक वह है जिसमें हम हर बार नये
अर्थ को ढूढते हैं। जो कुछ मुक्तिबोध के जमाने में अंधेरे में था, आज वही
उजाले में है। वो सच आज सबके सामने है जिसको मुक्तिबोध अपने समय में महसूस
करके लिख चुके थे। बात साफ़ है कि मुक्तिबोध के रचना कर्म की परिधि और उसके
केंद्र दोनों में हमारे आज के दौर के सवालों की समझ और उनके ज़वाब हासिल किए
जा सकते हैं। मुक्तिबोध को लक्षित-मूल्यांकित करने का क्रम अभी जारी है।
छायावादी काव्यधारा में ‘निराला’ और नयी कविता में मुक्तिबोध का व्यक्तित्व
अपवाद की सीमा तक विशिष्ट था, इसमें दो मत नहीं है।
स्मरण
रहे कि ‘अंधंरे में’ मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता है। "यह कविता परम
अभिव्यक्ति की खोज में जिस तरह की फैंटेसी बुनती है लेकिन अपने मूल में यह
कविता ऐसे अंधेरे की पड़ताल करती है जो देश की आजादी के बाद की व्यवस्था का
अंधेरा है, इस लोकतंत्र का अंधेरा है। ‘अंधेरे में’ पूंजी की दुनिया व
रक्तपाई वर्ग द्वारा पैदा की गई क्रूर, अमानवीय व शोषण की हाहाकारी
स्थितियों से साक्षात्कार करती है। यह हिन्दी कविता में ‘मील का पत्थर’ है
जिसमें ‘अंधेरा’ मिथ नहीं, ऐसा यथार्थ है जिससे जूझते हुए हिन्दी कविता आगे
बढ़ी है। 'अँधेरे में' के कवि की कोशिश लेखन की इस आरंभतः वर्णित 'मौत की
सज़ा' को अंततः 'परम अभिव्यक्ति अनिवार्य / आत्म सम्भवा' के रूप में
पहिचानता है। यहां पहुंचकर रचनात्मकता की तलाश निष्पन्न होती है, और फिर
शुरू हो जाती है -
इसीलिए मैं हर गली में
और हर सड़क पर
झाँक-झाँक कर देखता हूँ हर एक चेहरा।
और यों परम अभिव्यक्ति अपने कर्ता से बड़ी हो जाती है, " मैं उसका शिष्य, वह मेरी गुरू है " 1
मुक्तिबोध
की कविता जिस अंधेरे से रू ब रू है, वह इन पचास सालों में सच्चाई बनकर
उभरा है। उसका विस्तार ही नहीं हुआ, वह सघन भी हुआ है। यह अकस्मात् नहीं है
कि कविता के सातवें खंड में रिहाई के बाद कवि ने मठ व गढ़ को तोड़ने की
बात की है। वह इसलिए कि उन्होंने इन मठों व गढ़ों को बनते और इनके अन्दर
पनपते खतरनाक भविष्य को देखा। कैसे हैं ये मठ व गढ़ ? आज ये पूंजी, धर्म,
वर्ण, जाति के मठ व गढ में रूपांतरित हो गये है। राजनीति सेवा नहीं, मेवा
पाने का माध्यम बन गई है। बड़ी बड़ी बातें की जा रही हैं। प्रगति व विकास
के दावे किये जा रहे हैं। कोई गौरवान्वित हो सकता है कि हमारी संसद
अरबपतियों से रौशन है। पर हमने ईमानदारी, नैतिकता, आदर्श, भाईचारा सहित जो
जीवन मूल्य निर्मित किये थे, उसमें कहां तक प्रगति की है ? अब तो इस पर बात
करना भी पिछड़ापन है।
"हमारे
पुराने महाकाव्य लोक-परम्परा से चल कर अपने बाह्य रूप में विकसित होते थे
; 'अँधेरे में' , इस दृष्टि से, लोक-संदर्भों से जुड़कर अपने अर्थ में
विकसनशील कविता है। 'राम की शक्ति पूजा' ( निराला ), 'प्रलय की छाया' (
प्रसाद ), 'असाध्य वीणा ' ( अज्ञेय) के साथ, यदि परम्परागत शब्दावली का
प्रयोग किया जाय, तो वह महाकविता है। सम्पूर्ण जातीय विडंबनाओं का परीक्षण
वह बड़े गहरे स्तर पर करती है। स्वप्न, फ़ंतासी और अतियथार्थवादी अनुभवों में
घुला-मिला चलने वाला उनका कथानक -- रक्तालोक स्नात पुरुष का साक्षात्कार,
कवि को दी गई मौत की सज़ा, रात का विचित्र जुलूस, मार्शल लॉ जैसा वातावरण,
तिलक मूर्ति से टपकता खून, विचित्र वेश में गांधी से भेंट, भविष्य शिशु कोई
कवि को सौंपा जाना और गांधी द्वारा जान शक्ति का आख्यान, कवि को पकड़कर दी
गई यंत्रणा, फिर रिहाई, अभिव्यक्ति खतरों का एहसास और फिर उस परम
अभिव्यक्ति की तलाश -- सांस्कृतिक पुनर्जागरण, राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन
और परवर्ती जीवन का एक विराट संश्लिष्ट चित्र है, जो कविता में पहली बार,
इस रूप में अंकित होता है। टिकक,गांधी और स्वयं कवि जैसे इन तीनों चरणों को
मूर्तिमान करते हैं। यथार्थ का तीखा और नंगा चित्र अंकित करते कवि कहीं
स्वाभाविक रूप से डरता है, पर उस भय का अतिक्रमण कर जाता है -
हाय, हाय ! मैंने उन्हें देख लिया नंगा,
इसकी मुझे और सज़ा मिलेगी।
इस
विचित्र और भयावह शोभा-यात्रा का वर्णन कवि बड़े तात्विक रूप में करता है -
" गहन मृतात्माएँ इसी नगर की / हर रात जुलूस में चलतीं / परंतु, एक दिन
में / बैठतीं हैं मिल कर करती हुईं षड्यंत्र / विभिन्न दफ्तरों -
कार्यालयों, केन्द्रों में, घरों में। " इस पकड़ से कोई नहीं बचता ; जैसा
कहा गया, यहाँ सम्पूर्ण जातीय राष्ट्रीय जीवन का विश्लेषण है। और निष्कर्ष
?
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे, जीवित रह गए तुम।" 2
कहना
न होगा कि ऐसे अनेक सवाल हैं जिनके रू ब रू हमारा मौजूदा वक्त भी है। आज
भी यथार्थ की नज़र तो दूर,उसकी समझ भी जैसे गुनाह है, हमारे रहनुमाओं की
निगाहों में। आज भी वह षड्यंत्र जारी है, इससे भला कौन इंकार कर सकता है ?
ज़्यादा लेने और बहुत-बहुत कम देने की क्या कहें, सिर्फ लेने और कुछ भी न
देने की मिसालें आम बातें हैं,जिनका सही चेहरा दिखाने में मुक्तिबोध का
रचना-संसार, विशेषतः उन की कविता 'अँधेरे में' पूरी तरह समर्थ है।
इस सन्दर्भ में वह सचमुच आत्म-सम्भवा है।
"अँधेरे
में कविता की अर्थवत्ता उसके स्वप्न चित्रमय वातावरण में है जो अपनी
नाटकीय संरचना के द्वारा सीधे-सादे वाक्यों को भी काव्यात्मक गूँज से
अनुरंजित कर देता है। चेखव की प्रसिद्द कहानी ' वाद नं. 6 ' को पढ़ने के
बाद, कहते हैं, लेनिन ने क्रान्ति से पहले कहा था की ' सारा रूस वार्ड नं.6
है। ' अँधेरे में कविता को पढ़कर भी कोई यह महसूस किए बिना नहीं रह सकता कि
यह आज का भारत है। स्वप्न चित्र जैसी एक अयथार्थ कला के द्वारा काव्यात्मक
पुनः सृष्टि करके मुक्तिबोध ने एक विरोधाभास का ही चमत्कार पैदा नहीं
किया, बल्कि आधुनिक हिन्दी कविता में एक कालजयी कृति की रचना की है।" 3
भूमण्डलीकरण
के तीन स्वरूप हैं-उदारीकरण, निजीकरण और मुक्त बाजार। जो लोग इस मुक्त
व्यवस्था में सम्मिलित होंगे वे अपने-अपने देशों में आयात-निर्यात कानून को
उदार बनायें, अपने देश के संसाधन का निजीकरण करें, स्थापना व्यय कम करें,
तमाम तरह की सब्सिडी खत्म करें और अपने देश के संसाधनों का निजीकरण करें और
अपने देश का हर बाजार दुनिया के कारपोरेट घरानों के लिये खोल दें। यह सब
वैश्वीकरण की ऐसी कड़वी सच्चाई है जो सम्पूर्ण संसार को खासकर तीसरी दुनिया
के देशों को पूरी तरह से जकड़ती जा रही है। इससे बचने का रास्ता किसी के
पास नहीं है।
स्वप्निल श्रीवास्तव की इन लाइनों को देखें-
‘घर के बाहर निकलो तो बचो,
घर में रहो तो बचो,
क्योंकि जो कुछ बचा हुआ है,
उसे नष्ट करने की कोशिश जारी है।’
दरअसल,‘अंधेरे
में’ कविता में मुक्तिबोध कहते हैं ‘पूंजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता’।
गांधी जी पूंजीपतियों को देश का ट्रस्टी मानते थे। उनका दर्शन ‘हृदय
परिवर्तन’ पर आधारित था। उनकी समझ थी कि समाज के प्रभुत्वशाली वर्गों तथा
वर्चस्ववादी जातियों व शक्तियों के हृदय परिवर्तन से समाज में समता आयेगी।
गांधी जी के इन विचारों के विपरीत मुक्तिबोध का चिंतन था। वे इस ‘उजली
दुनिया’ के पीछे फैले काले संसार को, इसकी हृदयहीनता व मनुष्य विरोधी
चरित्र को बखूबी समझते थे जिसकी प्रवृति छलना व लूटना है। पूंजीवाद की यह
अमानवीयता आज के समय में कही ज्यादा आक्रामक होकर हमारे सामने आई है। आज
जिस ‘महान लोकतंत्र’ की दुहाई दी जा रही है, वह मूलतः लूट और झूठ की
बुनियाद पर टिका है। यह अपनी लूट को छिपाने तथा उसे बदस्तूर जारी रखने के
लिए झूठ की रचना करता है। कौन नहीं जानता कि आज कॉरपोरेट हित सर्वोपरि है
लेकिन इसे अर्थशास्त्रीय शब्दावली की भूल भुलैया में ले जाकर 'समावेशी' कहा
जा रहा है। इस पूंजी से हमारे देश की प्राकृतिक संपदा, खनिज, जंगल, जल व
जमीन की लूट जारी है। लेकिन इसे ‘विकास’ की संज्ञा दी जा रही है।
इसी
तरह "दुनिया की हर भाषा की जिंदगी में एक बार कोई निहायत ही निष्करुण वक्त
दबे पाँव आता है और 'उसको बोलने वालों' के हलक में हाथ डालकर उनकी जुबान
पर रचे-बसे शब्दों को दबोचता है और धीरे-धीरे उनके कोमल गर्भ में साँस ले
रहे अर्थों का गला घोंट देता है। एक तरफ वह 'पवित्र को ध्वंस' में धकेलता
है तो दूसरी तरफ वह 'अतीत में आग' लगाता हुआ, चौतरफा भय और निराशा फैला
देता है। ऐसे ही वक्त के खिलाफ अंततः मंगल पांडे की बंदूक से गोली निकलती
है और 1857 का गदर (?) मच जाता है। ...आज हम फिर 1857 के ही निकट पहुँच गए
हैं। वे तब ये कहते हुए आए थे : 'हम, तुम असभ्यों को सभ्य बनाने के लिए
तुम्हारे देश में घुस रहे हैं।' मगर इस बार वे कह रहे हैं : 'हम, तुम
कंगलों को संपन्न बनाने के लिए तुम्हारे यहाँ आ रहे हैं।' ...सुनो, हम जिस
'पूँजी का प्रवाह' शुरू कर रहे हैं, वह तुम्हारे यहाँ समृद्धि लाएगी।
...लेकिन, हकीकत में यह देश को समृद्ध नहीं बल्कि, एक किस्म के
'सांस्कृतिक-अनाथालय' में बदलने की युक्ति है। वे धीरे-धीरे आपसे आपकी
बोलियाँ और भाषा छीन रहे हैं।"4
मुक्तिबोध ने भी लिखा है -
इतने प्राण, इतने हाथ, इतनी बुद्धि
इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
यह सौंदर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति
इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद –
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध
इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल –
केवल एक जलता सत्य देने टाल।
छोड़ो हाय, केवल घृणा औ' दुर्गंध
तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध
देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध
तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध
(कविता 'पूंजीवादी समाज के प्रति' का अंश)
समाज
और साहित्य का सम्बन्ध बहुत कुछ वही है जो धरती से फूल का है। फूल धरती
होता है, इसका मतलब यह नहीं है कि उसके दाल, पात, पंखुड़ी, वर्ण, गंध आदि
मिट्टी हैं ; कि उससे मिट्टी की-सी सोंधी गंध आती ही और रंग भी मटमैला होता
है। धरती का रूप-रस फूल में नया गंध, गंध उत्पन्न करता है। इसी तरह समझना
होगा कि साहित्य में भी समाज ज्यों का त्यों नहीं झलकता, बल्कि, रूपांतरित
रूप में अंतरनिहित रहता है। गौरतलब है कि " श्रेष्ठ साहित्य मन का लड्डू
नहीं है कि जब चाहा बना लिया। श्रेष्ठ तो श्रेष्ठ, साहित्य मात्र किसी की
स्वेच्छा पर निर्भर नहीं है। जब जैसा जी हुआ वैसा साहित्य कोई नहीं रच
सकता। वह एक निश्चित परिस्थिति में और एक निश्चित परिस्थिति से पैदा होता
है और यह परिस्थिति उसकी स्वेच्छा को मर्यादित करती है -- यहाँ तक कि उसके
विद्रोह को भी। परिस्थिति के विरुद्ध लेखक का विद्रोह भी उस परिस्थिति के
द्वारा निर्धारित होता है। यह लेखक की ऐतिहासिक सीमा है। मन के लड्डू खाने
की अपेक्षा अपनी ऐतिहासिक सीमा को समझने और समझकर बदलने की कोशिश करने में
कहीं अधिक स्वाद है।"5 इस कथन के परिप्रेक्ष्य में यदि देखें तो मुक्तिबोध
ने एक ओर फैंटेसी के ज़रिये समाज के भीतरी चेहरे को पहचानने की दृष्टि दी,
दूसरी तरफ अपनी ऐतिहासिक सीमाओं की पड़ताल कर,स्वेच्छा का नहीं, सच्चाई का
साहित्य रचा और इस प्रयत्न में आश्चर्य नहीं कि उनके सामने यह प्रश्न मुंह
बाए खड़ा रहा -
और, मैं सोच रहा कि
जीवन में आज के
लेखक की कठिनाई यह नहीं है कि
कमी है विषयों की
वरन यह कि आधिक्य उनका ही
उसको सताता है,
और, वह ठीक चुनाव नहीं कर पाता है।
( 'मुझे कदम-कदम पर' )
बहरहाल, मुक्तिबोध की अंतहीन तलाश, विषयों के आधिक्य के मध्य भी जीवंत बनी रही.
मुक्तिबोध ने पूरे पूंजीवादी सुपरस्ट्रक्चर को इस अंश में चित्रित किया है -
विचित्र प्रोसेशन
…
बैंड के लोगों के चेहरे
मिलते हैं मेरे देखे हुओं से
लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार
इसी नगर के !!
बड़े- बड़े नाम अरे, कैसे शामिल हो गए में !!
उनके पीछे चल रहा
संगीन नोकों का चमकता जंगल,
…
कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल
कई और सेनापति, सेनाध्यक्ष
चेहरे वे मेरे जाने बूझे से लगते
उनके चित्र समाचार पत्रों में छपे थे,
उनके लेख देखे थे,
यहाँ तक कि कविताएँ पढ़ी थीं
भई वाह !
उनमें कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण
मंत्री भी, उद्योगपति और विद्वान
यहाँ तक कि शहर का हत्यारा
डोमाजी उस्ताद।
( मुक्तिबोध रचनावली-2, पृ.328-30 )
"सत्ता
हमेशा ही अपने को प्रामाणिक साबित करने के लिए मध्यवर्गीय, सुविधालोलुप
बुद्धिजीवी का सहारा लेती है। ये विद्वान जो रात के जुलूस में शामिल हैं,
जुलूस में शामिल दूसरे लोगों की रक्षा और उनके कृत्यों को वैधता प्रदान
करना ही इनका काम है। सत्ता ने इसीलिए इनको सुविधाओं से पाट दिया है।
इसीलिए ये सब लोग हत्यारी चुप्पी साधे हुए हैं। मीर तकी मीर ने शायर या कवि
के मूल कर्तव्य को रेखांकित करते हुए कहा था - 'शायर हो मत चुपके रहो, इस
चुप में जानें जाती हैं।' इस चुप्पी के वर्गीय आयामों को उभारते हुए
मुक्तिबोध ने एकबारगी मीर की कविता के चुप्पे शायर की स्वातंत्र्योत्तर
पहचान की। जानें तो सामान्य जन की ही जाएंगी। ज़र खरीद बौद्धिकों द्वारा गढ़े
जाते संवाद इस हत्या को बौद्धिक आधार मुहैया कराने वाले ठहरे -
सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्
चिंतक, शिल्पकार और नर्तक चुप हैं
रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग
नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे,
प्रश्न-सी उथली सी पहचान
भव्याकार भवनों के विवरों में छिप गए
समाचार-पत्रों के पतियों के मुख स्थूल
गढ़े जाते संवाद,
गढ़ी जाती समीक्षा,
गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन-उर शूल
बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास। 7
मुक्तिबोध
ने अपनी मार्क्सवादी अंतर्दृष्टि से भारतीय समाज व्यवस्था के चरित्र को
फैंटेसी के माध्यम से सही-सही अंकित किया था। इसी तरह भारतीय
पूंजीवादी-सामंती शोषण व्यवस्था को उन्होंने अपनी कविता 'एक स्वप्न कथा' के
बिम्ब से चित्रित किया है, वहां उसके साम्राज्यवाद सहयोग को भी कलात्मक
तरीके से उजागर किया -
हो न हो
इस काले सागर का
सुदूर-स्थित पश्चिम किनारे से
ज़रूर कुछ नाता है
इसीलिए, हमारे पास सुख नहीं आता है।
इस
तरह,खोज और उपलब्धि के बीच की दुविधा या 'सस्पेंस' ही 'अँधेरे में' कविता
को अद्भुत नाटकीयता प्रदान करती है। कथन शैली की दृष्टि से अँधेरे में एक
स्वप्न कथा है, किन्तु वह सामान्य स्वप्न कथा नहीं, बल्कि, दुःस्वप्न का
कथालोक है, जिसमें हर चीज़ प्रायः अन्यथा रूप में दृष्टिगत होती है।
आत्मसंघर्ष से उत्पन्न तनाव, जटिलता,विसंगति, विडम्बना के बावजूद नामवर
सिंह का यह कथन ध्यातव्य है - " मेरे ध्यान में मुक्तिबोध का कविता संबंधी
वह वक्तव्य भी है कि ' आज तो पोस्टर ही कविता है ' और फिर यह कथन भी कि
'नहीं होती, कहीं खत्म कविता नहीं होती', मुक्तिबोध, दरअसल कल होने वाली
घटनाओं की कविता ही नहीं लिख रहे थे बल्कि उस कविता के भावी काव्य-सिद्धांत
के सूत्र भी फेंक रहे थे।"6 इस तरह मुक्तिबोध की कविता में आज साहित्य
सिद्धांतों की भावी आहट पहले ही सुनी जा चुकी थी। इसलिए,स्वाभाविक है कि
उनकी कविता अँधेरे में. आज के साहित्यिक सवालों के ज़वाबों मद्देनज़र भी एक
आईने के समान है।
साहित्य
का अपने शाश्वत मूल्यों के कारण भौगोलिक और सांस्कृतिक सीमाओं को लांघ
जाना एक सामान्य बात है, इस पर भी हर बड़ा रचनाकार कुल मिला कर समाज विशेष
की ही देन होता है और उसी समाज विशेष की भाषा, संस्कृति, परंपराओं और
इतिहास के दायरे में उसकी रचनात्मकता अभिव्यक्ति पाती है। इसलिए ज़ाहिर है
कि जिस साहित्य का अपने समाज से जितना आदान-प्रदान (इंटरेक्शन) हो रहा होगा
वह साहित्य उतना ही जीवंत, संवेदनशील और प्रभावशाली होगा। और, कहना न होगा
कि मुक्तिबोध में यह इंटरेक्शन शिखर पर पहुंचकर जीवन के समतल और तलहटी को
भी इंस्पेक्ट करने में समर्थ है। उनका साहित्य उसी संवाद का शाश्वत
दस्तावेज़ है। वास्तव में मुक्तिबोध सफलता के दोयम दर्ज़े के तौर तरीकों से
पूरी तरह दूर रहे। कभी कोई कपटजाल नहीं रचा। चालाकी और छल-छद्म से जिंदगी
की ऊंची मंज़िलों तक पहुँचने का कोई ख़्वाब तक भी नहीं देखा। तभी तो वह दो
टूक लहज़े में कह गए -
असफलता का धूल कचरा ओढ़े हूँ
इसलिए कि सफलता
छल-छद्म के चक्करदार जीनों पर मिलती है
किन्तु मैं जीवन की -
सीधी-सादी पटरी-पटरी दौड़ा हूँ
जीवन की।
(1960-61,राजनांदगांव, मुक्तिबोध रचनावली )
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सन्दर्भ -
1. रामस्वरूप चतुर्वेदी, नयी कविताएँ ; एक साक्ष्य, पृष्ठ 91
लोकभारती प्रकाशन 1998
2 वहीं, पृष्ठ 91-92
3 नामवर सिंह, कविता के नए प्रतिमान, पृष्ठ 150-51
4.प्रभु जोशी, हिन्दी मीडिया, 6 जनवरी 2015
5.नामवर सिंह, इतिहास और आलोचना, पृष्ठ 44
6 .नामवर सिंह, कविता के नए प्रतिमान, पृष्ठ 250-51
7.मुक्तिबोध, अँधेरे में, मुक्तिबोध रचनावली-2, पृष्ठ 25
(अवधेश त्रिपाठी के आलेख से)
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लेखक छत्तीसगढ़ राज्य शिखर सम्मान से अलंकृत हैं।
संपर्क - दुर्गा चौक, दिग्विजय पथ,
राजनांदगांव ( छत्तीसगढ़ )
पिन कोड - 491441
मो. 09301054300
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