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बस्तर 1857: इतिहास की भूली बिसरी कड़ियाँ [पुस्तक-चर्चा] - अजय यादव

1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष को अधिकांश पश्चिमी इतिहासकार सैनिक विद्रोह कहकर खारिज कर देते हैं तो कई अन्य इसे कुछ रियासती राजा-सामंतों द्वारा अपनी सत्ता पुनर्स्थापित करने का प्रयास कहकर इसके महत्व को कम करके आँकते हैं। इस मान्यता को इधर कुछ भारतीय इतिहासकारों ने अपने प्रयासों से नये-नये तथ्य उद्घाटित कर चुनौती दी है। श्री राजीव रंजन प्रसाद की नई किताब "बस्तर 1857" उस दौर के बस्तर में अंग्रेजों के विरुद्ध आदिवासियों के विद्रोह के माध्यम से इसी मान्यता को चुनौती देती है। बस्तर के आदिवासी जिन्हें न तो राष्ट्रीय राजनीति से कोई सरोकार था और न किसी प्रान्तीय सामंत की महत्वाकांक्षा से, वो जब अंग्रेजों के खिलाफ़ युद्ध छेड़ते हैं तो इससे यही अर्थ निकलता है कि निश्चय ही अंग्रेजों की नीतियों से साधारण जनता कहीं न कहीं इतनी त्रस्त हो चुकी थी कि उसके समक्ष विद्रोह ही एकमात्र विकल्प बचा था।

"बस्तर 1857" मूलत: एक ऐतिहासिक उपन्यास है जो 1857 व उसके पूर्व की बस्तर की राजनैतिक व सामाजिक परिस्तिथियों तथा उससे उपजे घटनाक्रम पर आधारित है। उस दौर में बस्तर मराठा राज्य के जरिये और बाद में मराठा राज्य के पतन के बाद सीधे अंग्रेजी हुकूमत के अधीन आ चुका था। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी की अपने अधीनस्थ राज्यों से अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने की प्रवृति ने एक ओर तो राज्य के प्रत्येक नागरिक को आर्थिक रूप से जकड़ कर रख दिया था और दूसरी ओर राज्य के विविध प्राकृतिक संशाधनों का निर्ममतापूर्वक दोहन आरम्भ कर दिया था। इन सब बातों ने एक सामान्य आदिवासी को भी अंग्रेजों के विरुद्ध एकजुट होने को विवश कर दिया था।
"पेड़ नहीं रहेगा तो हम भी नहीं रहेंगे" रामभोई की आवाज में भारीपन था।
"जंगल काट के हमको क्या मिलेगा? ठेकेदार हमारा पैसा भी नहीं देता है। सब लकड़ी बस्तर के बाहर ले जा रहा है" जुग्गाराजू ने आक्रोश व्यक्त किया।
"जंगल नहीं रहेगा तो घर किधर रहेगा, शिकार किधर रहेगा" कुन्यादोरा ने पर्यावरण की अपनी समझ सामने रख दी।
"यह सब अंग्रेजों का काम है। अभी तक, क्या कभी किसी राजा ने इतना पेड़ पहले कटवाया था?" यादो राव ने जाग्रत करने का कार्य किया।
"नहीं कट्वाया था" सामूहिक स्वर उभरा।
"तो क्या करना चाहिये?" यादो ने पुन: भीड़ के सामने प्रश्न रखा।
"लड़ना चाहिये।"
"कैसे लड़ेंगे?" यादो ने पूछा।
"जो पेड़ काटेगा, उसका हम सिर काट लेंगे" जुम्माराजू ने लगभग चीखती हुई आवाज में कहा।
इसके अतिरिक्त अंग्रेजों की नस्लवादी मानसिकता के चलते लोग हर पल अपमानित होते रहने को विवश थे। उनके सामाजिक व धार्मिक प्रतीकों व परम्पराओं का खुलेआम अपमान अंग्रेज और उनके अधीनस्थ लोग करते रहते थे। इससे अंग्रेजों की विभिन्न धार्मिक व सामाजिक मान्यता वाले लोगों को परस्पर विभाजित रखने की नीति भी कार्यांवित होती रहती थी और ईसाइयत के प्रचार-कार्य को भी बल प्राप्त होता रहता था। दंतेश्वरी देवी के मंदिर में मुसलमान सैनिकों की तैनाती ऐसा ही कृत्य था। इन सब बातों को पुस्तक में बड़े ही प्रभावशाली व मार्मिक रूप में अभिव्यक्त किया गया है।
अरब-मुसलमान सैनिकों को दंतेवाड़ा भेज कर अंग्रेज यह सिद्ध करना चाहते थे कि मराठाओं ने राज्य के सबसे बड़े धार्मिक प्रतीकों का सम्मान नहीं रखा। वे यह भी चाहते थे कि इससे देवी-देवताओं की ताकत और उनकी क्षमताओं पर चर्चाएं आरम्भ हों और फिर यहाँ वे लोग अपना काम आरम्भ करें जिन्हें उनके अनुसार परमेश्वर का संदेश पूरी दुनिया में फैलाने के लिये नियत किया गया है। बस्तर में इसकी शुरुआत हो गई थी। वार्ड नाम के एक अमेरिकन पादरी ने जगदलपुर के पास चर्च बना कर लोगों को ईसा मसीह के संदेश देना और फिर उन्हें ईसाई धर्मावलम्बी बनाने का अभियान आरम्भ किया था।
उपन्यास के कुछ पात्र ऐतिहासिक हैं तो कुछ अन्य काल्पनिक। इन पात्रों में पोयामी और पकली जैसे पात्र आदिवासियों के जीवन में अंग्रेजी हस्तक्षेप के कारण हो रहे परिवर्तनों को कारगर रूप से सामने लाते हैं। वहीं राजा भूपालदेव, भोपालपट्टनम के जमींदार पामभोई या अहीरी की जमींदार लक्ष्मीबाई जैसे चरित्र अपने निहित स्वार्थों के लिये अंग्रेजों के पिट्ठू बन अपने ही लोगों पर अत्याचार करने वालों का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक तरफ़ राज्य के दीवान लाल दलगंजन सिंह जैसे लोग हैं जो दिल से लोगों का भला चाहते हुये भी खुल कर सामने नहीं आ पाते तो दूसरी तरफ़ धुर्वा राव, यादो राव, व्यंकट राव, झाड़ा सिरहा जैसे अनेक लोग हैं जो अपना सब कुछ दांव पर लगा कर भी अपनी जमीन, अपने जंगलों को बचाने के लिये उस सत्ता से लड़ जाते हैं जिसके आगे उनके शाषक भी लाचार हैं। मॉरिस का चरित्र भारतीय जनजीवन में घुसपैठ कर लोगों की मान्यताओं का मजाक बनाने तथा इस प्रकार प्राप्त सूचनाओं का अंग्रेजी राज्य विस्तार में प्रयोग करने वाले पादरियों का सच सामने लाता है।

पुस्तक में जगह-जगह बस्तर के सामाजिक जीवन, धर्म और लोकसंस्कृति की भी झाँकी भी मिलती है जो पाठक को अनायास खुद से जोड़ लेती है। विभिन्न पूरक कथाओं के माध्यम से बस्तर के पूर्व-इतिहास का परिचय भी साथ-साथ मिलता जाता है। यह सब बस्तर से अपरिचित पाठक को भी कथानक से जोड़कर उसे तत्कालीन बस्तर की परिस्तिथियों को समझने और उनसे सहानुभूति उत्पन्न करने में सफल हुआ है। भारत के विभिन्न भागों में अंग्रेजों के विरुद्ध हुये आदिवासी विद्रोहों की त्रासदी यह है कि अधिकांश लोग उनके साथ भावनात्मक रूप से जुड़ नहीं पाते। यही कारण है कि इन संघर्षों में सर्वात्म समर्पण कर अंग्रेजी सल्तनत का तख्त हिला देने वाले वीरों को वह सम्मान नहीं मिल पाता जो मंगल पांडे, रानी लक्ष्मीबाई, कुँवर सिंह आदि को मिलता है। लेखक राजीव रंजन की यह पुस्तक इस मामले में सफल हुई है।

शिल्प की दृष्टि से देखें तो इस उपन्यास में पात्रों के कथोपकथन का बहुत सुन्दर प्रयोग किया गया है जो न सिर्फ उपन्यास की रोचकता बढ़ाता है अपितु पाठक को पात्र से मानसिक धरातल पर जोड़ने का कार्य भी करता है। मूल कथानक के बीच बीच में पूरक कथाओं का समावेश लेखक राजीव रंजन की एक अन्य विशेषता है जो उनके लगभग सभी उपन्यासों में नजर आती है। ये पूरक कथाएं पाठक को कथानक की संपूर्ण पृष्ठभूमि से अवगत कराने का महत्वपूर्ण कार्य करती हैं और साथ ही विषयवस्तु की एकरसता को भी भंग करती हैं।

इस पुस्तक को पढ़ने के उपरान्त यह अनुभव होता है कि इसी तरह इतिहास की कई कड़ियाँ भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में बिखरी हुई हैं जिनके सामने आने पर ही वस्तुत: भारतवर्ष का वास्तविक इतिहास लिखा जा सकेगा। आशा है कि कुछ अन्य लेखक इस पुस्तक से प्रेरणा लेकर अपने अपने क्षेत्र में बिखरी ऐतिहासिक कहानियों को स्वर देंगे ताकि उनके आलोक में इतिहास को और बेहतर तरीके से समझा जा सके।

कुल मिलाकर "बस्तर 1857" एक ऐसी रोचक कृति बन पडी है जो बस्तर में ही नहीं अपितु भारतीय इतिहास व संस्कृति में रूचि रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिये पठनीय है और इसके लिये लेखक बधाई के पात्र हैं। पुस्तक को दिल्ली स्थित यश प्रकाशन (yashapublicationdelhi@gmail.com) ने बहुत सुरुचिपूर्ण ढंग से छापा है। इसके सजिल्द संस्करण की कीमत 295 रु० रखी गई है। इसे अमेजन और फ्लिपकार्ट से भी मंगाया जा सकता है।

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