बुंदेले हरबोलों के मुँहहिन्दी साहित्य से यत्किंचित परिचित व्यक्ति भी इन पंक्तियों से अनभिज्ञ नहीं हो सकता। यदि लोकप्रियता को पैमाना माना जाए तो यह कविता शायद खड़ीबोली हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कविता होगी। हिन्दी की प्रादेशिक बोलियों में भी केवल कुछ भक्त कवियों की रचनाएं ही इससे अधिक लोकप्रियता प्राप्त कर सकी हैं। इन अनुपम पंक्तियों की लेखिका सुभद्रा कुमारी चौहान की आज पुण्यतिथि है। आज ही के दिन वर्ष 1948 को एक सडक दुर्घटना में मात्र 44 वर्ष की अल्पायु में इस महान कवयित्री, कथाकार, देशप्रेमी समाजसेविका की अनायास मृत्यु हो गई थी।
हमने सुनी कहानी थी
ख़ूब लड़ी मरदानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।
16 अगस्त 1904 को इलाहाबाद के समीप निहालपुर नामक गाँव में एक जमींदार परिवार में सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म हुआ। इनके पिता का नाम ठाकुर रामनाथ सिंह था। आपका विद्यार्थी जीवन प्रयाग में ही बीता। 'क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज' में आपने शिक्षा प्राप्त की। सुभद्रा चंचल और कुशाग्र बुद्धि थी। पढ़ाई में प्रथम आने पर उसको इनाम मिलता था। सुभद्रा कुमारी की काव्य प्रतिभा बचपन से ही सामने आ गई थी। 1913 में मात्र नौ वर्ष की आयु में पहली बार सुभद्रा की ‘नीम’ के पेड़ पर लिखी गई कविता प्रयाग से निकलने वाली पत्रिका 'मर्यादा' में 'सुभद्राकुँवरि' के नाम से प्रकाशित हुई थी।
नौवीं कक्षा के बाद ही सुभद्रा कुमारी की पढ़ाई छूट गई। पढ़ाई के दौरान ही आपकी मित्रता महादेवी वर्मा से हुई, यद्यपि महादेवी इनसे नीचे की कक्षा में थीं। इन दोनों की यह मित्रता आजीवन बनी रही। इस बारे में स्वयं महादेवी लिखती हैं, 'सातवीं और पांचवीं कक्षा की विद्यार्थिनियों के सख्य को सुभद्रा जी के सरल स्नेह ने ऐसी अमिट लक्ष्मण-रेखा से घेरकर सुरक्षित रखा कि समय उस पर कोई रेखा नहीं खींच सका।'

1920 - 21 में सुभद्रा और लक्ष्मण सिंह अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य थे। उन्होंने नागपुर कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया और घर-घर में कांग्रेस का संदेश पहुँचाया। 1922 का जबलपुर का 'झंडा सत्याग्रह' देश का पहला सत्याग्रह था और सुभद्रा जी की पहली महिला सत्याग्रही थीं। रोज़-रोज़ सभाएँ होती थीं और जिनमें सुभद्रा भी बोलती थीं। 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के संवाददाता ने अपनी एक रिपोर्ट में उनका उल्लेख लोकल सरोजिनी कहकर किया था।
सुभद्रा जी में बड़े सहज ढंग से गंभीरता और चंचलता का अद्भुत संयोग था। वे जिस सहजता से देश की पहली स्त्री सत्याग्रही बनकर जेल जा सकती थीं, उसी तरह अपने घर में, बाल-बच्चों में और गृहस्थी के छोटे-मोटे कामों में भी रमी रह सकती थीं।
पति के साथ वह स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आन्दोलन में बराबर सक्रिय भाग लेती रहीं। कई बार जेल भी गईं। काफ़ी दिनों तक मध्य प्रांत असेम्बली की कांग्रेस सदस्या रहीं और साहित्य एवं राजनीतिक जीवन में समान रूप से भाग लेकर अन्त तक देश की एक जागरूक नारी के रूप में अपना कर्तव्य निभाती रहीं।

15 फरवरी 1948 को नागपुर में शिक्षा विभाग की मीटिंग से लौटकर जबलपुर आते समय एक सड़क दुर्घटना में सुभद्रा जी की मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु पर माखनलाल चतुर्वेदी जी ने लिखा था कि सुभद्रा जी का आज चल बसना प्रकृति के पृष्ठ पर ऐसा लगता है मानो नर्मदा की धारा के बिना, तट के पुण्य तीर्थों के सारे घाट अपना अर्थ और उपयोग खो बैठे हों। सुभद्रा जी का जाना ऐसा मालूम होता है मानो ‘झाँसी वाली रानी’ की गायिका, झाँसी की रानी से कहने गई हो कि लो, फिरंगी खदेड़ दिया गया और मातृभूमि आज़ाद हो गई। सुभद्रा जी का जाना ऐसा लगता है मानो अपने मातृत्व के दुग्ध, स्वर और आँसुओं से उन्होंने अपने नन्हे पुत्र को कठोर उत्तरदायित्व सौंपा हो। प्रभु करे, सुभद्रा जी को अपनी प्रेरणा से हमारे बीच अमर करके रखने का बल इस पीढ़ी में हो।
सुभद्रा जी की जीवनी उनकी ज्येष्ठ पुत्री सुधा चौहान (जो सुप्रसिद्ध लेखक अमृतराय की पत्नी तथा महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद की पुत्रवधू हैं) ने "मिला तेज से तेज" नाम से लिखी है जो हंस प्रकाशन से छपी है। इसी प्रकाशन से सुभद्रा जी की समस्त रचनाओं का संग्रह "सुभद्रा समग्र" भी प्रकाशित है।

इन्हें 'मुकुल' तथा 'बिखरे मोती' पर अलग-अलग सेकसरिया पुरस्कार मिले। भारतीय डाक तार विभाग ने 6 अगस्त 1976 को सुभद्रा कुमारी चौहान के सम्मान में 25 पैसे का एक डाक-टिकट जारी किया था। भारतीय तटरक्षक सेना ने 28 अप्रॅल 2006 को सुभद्रा कुमारी चौहान को सम्मानित करते हुए नवीन नियुक्त तटरक्षक जहाज़ को उन का नाम दिया है।
जबलपुर के निवासियों ने चंदा इकट्ठा करके नगरपालिका प्रांगण में सुभद्रा जी की आदमकद प्रतिमा लगवाई थी जिसका अनावरण 27 नवंबर 1949 को कवयित्री और उनकी बचपन की सहेली महादेवी वर्मा ने किया। प्रतिमा अनावरण के समय भदन्त आनन्द कौसल्यायन, हरिवंशराय बच्चन, रामकुमार वर्मा और इलाचंद्र जोशी भी उपस्थित थे। महादेवी जी ने इस अवसर पर कहा, "नदियों का कोई स्मारक नहीं होता। दीपक की लौ को सोने से मढ़ दीजिए पर इससे क्या होगा? हम सुभद्रा के संदेश को दूर-दूर तर फैलाएँ और आचरण में उसके महत्व को मानें - यही असल स्मारक है।"
सुभद्रा जी के सहित्य-कर्म पर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की गहरी छाप है। उन्होंने लगभग 88 कविताओं और 38 कहानियों की रचना की है। संख्या के परिमाण से उनका रचनाकर्म बहुत विस्तृत नहीं है परन्तु लोकप्रियता के हिसाब से वे अपने अधिकांश समकालीनों से कहीं आगे हैं। 'झांसी की रानी' कविता के अतिरिक्त उनकी अन्य कविताएं भी कम लोकप्रिय नहीं रहीं। उनके प्रथम कविता-संग्रह 'मुकुल' (प्रकाशन:1930) के छ: संस्करण 1948 में उनकी मृत्यु से पूर्व ही छप चुके थे। इनकी चुनी हुई कविताएँ 'त्रिधारा' में प्रकाशित हुई हैं। 'झाँसी की रानी' इनकी बहुचर्चित रचना है। राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भागीदारी और जेल यात्रा के बावजूद उनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए- 'बिखरे मोती (1932 ), उन्मादिनी (1934) और सीधे-सादे चित्र (1947 )।
सुभद्रा जी की राष्ट्र-प्रेम की कविताएं जन-जन में अपने देश पर बलिदान हो जाने का जोश भर देती थीं। स्त्रियों को सम्बोधित करती उनकी एक कविता की बानगी देखें:
"सबल पुरुष यदि भीरु बनें, तो हमको दे वरदान सखी।इसी प्रकार 'झांसी की रानी' कविता सुनकर आज भी जन-सामान्य आन्दोलित हो उठता है। इनकी एक अन्य प्रसिद्ध कविता 'जलियाँ वाले बाग़ में बसन्त' को पढ/सुन कर सहसा आंखों में अश्रु आ जाते हैं।
अबलाएँ उठ पड़ें देश में, करें युद्ध घमासान सखी।
पंद्रह कोटि असहयोगिनियाँ, दहला दें ब्रह्मांड सखी।
भारत लक्ष्मी लौटाने को , रच दें लंका काण्ड सखी।।"
परिमलहीन पराग दाग़-सा बना पड़ा है'वीरों का कैसा हो वसन्त', 'स्वदेश के प्रति', 'विजयादशमी', 'विदाई', 'सेनानी का स्वागत', 'झाँसी की रानी की समाधि पर' आदि उनकी ऐसी ही अन्य सशक्त कविताएँ हैं।
हा! यह प्यारा बाग़ ख़ून से सना पड़ा है।
आओ प्रिय ऋतुराज! किंतु धीरे से आना
यह है शोक स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा-खाकर
कलियाँ उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर।

उस हिन्दू जन की गरविनीदेशप्रेम के अतिरिक्त अन्य विषयों पर भी सुभद्रा जी ने अत्यंत सुन्दर कविताएं लिखी हैं। बचपन को जिस मधुरता से उन्होंने अभिव्यक्त किया है वैसा आधुनिक हिन्दी काव्य में अन्य कोई कवि नहीं कर सका है। उदाहरणार्थ -
हिन्दी प्यारी हिन्दी का
प्यारे भारतवर्ष कृष्ण की
उस प्यारी कालिन्दी का
है उसका ही समारोह यह
उसका ही उत्सव प्यारा
मैं आश्चर्य भरी आंखों से
देख रही हूँ यह सारा
जिस प्रकार कंगाल बालिका
अपनी माँ धनहीना को
टुकड़ों की मोहताज़ आज तक
दुखिनी सी उस दीना को
बार-बार आती है मुझकोअपनी संतति में मनुष्य किस प्रकार अपना बचपन देखता है, इसकी बडी मार्मिक अभिव्यक्ति 'मेरा नया बचपन' कविता में होती है
मधुर याद बचपन तेरी,
गया ले गया तू जीवन की
सबसे मस्त खुशी मेरी
मैं बचपन को बुला रही थीशैशव सम्बन्धी इन कविताओं की एक और बहुत बड़ी विशेषता है, कि ये 'बिटिया प्रधान' कविताएँ हैं। हम आज "बेटी बचाओ, बेटी पढाओ" जैसे नारे लगा रहे हैं, किन्तु सुभद्रा जी तो संसार का समस्त सुख बेटी में देखती हैं। 'बालिका का परिचय' में बिटिया के महत्व का प्रतिपादन देखें:
बोल उठी बिटिया मेरी
नंदन वन सी फूल उठी
यह छोटी-सी कुटिया मेरी।
दीपशिखा है अंधकार कीकहा जाता है कि उन्होंने अपनी पुत्री का कन्यादान करने से यह कह कर मना कर दिया था कि 'कन्या कोई वस्तु नहीं कि उसका दान कर दिया जाए।' स्त्री-स्वातंत्र्य के शोर-शराबे से दूर जीवन के ठोस धरातल पर समानता का यह प्रतिष्ठापन सुभद्रा जी के ही अनुरूप था।
घनी घटा की उजियाली
उषा है यह कमल-भृंग की
है पतझड़ की हरियाली।
इसके अतिरिक्त दाम्पत्य प्रेम का अत्यंत श्रेष्ठ निरूपण भी सुभद्रा जी की कविताओं में मिलता है। 'प्रियतम से', 'चिन्ता', 'मानिनि राधे' जैसी कविताएं उनकी श्रेष्ठ प्रेम कविताएँ हैं। दाम्पत्य प्रेम की एक झलक देखें:
यह मर्म-कथा अपनी ही हैसुभद्रा जी ने बहुत सुंदर भक्ति-कविताएं भी लिखी हैं। आराध्य के सामने सर्वात्म समर्पण की एकदम सहज अभिव्यक्ति देखें:
औरों की नहीं सुनाऊँगी
तुम रूठो सौ-सौ बार तुम्हें
पैरों पड़ सदा मनाऊँगी
बस, बहुत हो चुका, क्षमा करो
अवसाद हटा दो अब मेरा
खो दिया जिसे मद में मैंने
लाओ, दे दो वह सब मेरा।
देव! तुम्हारे कई उपासकसुभद्रा कुमारी चौहान ने 'नीम', 'फूल के प्रति', 'मुरझाया फूल' आदि कविताओं में प्रकृति का चित्रण भी बड़े सहज भाव से किया है। इसी प्रकार समानता, जातिप्रथा, छुआछूत जैसे अनेक विषयों पर सुभद्रा जी ने अपनी कलम चलाई है। छुआछूत की कुप्रथा की बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति उनकी अंतिम कविता में दृष्टव्य है:
कई ढंग से आते हैं
पूजा को बहुमूल्य भेंट वे
कई रंग की लाते हैं।
मैं अछूत हूँ, मंदिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है।सुभद्रा जी ने कहानी लिखना आरंभ किया था क्योंकि उस समय संपादक कविताओं पर पारिश्रमिक नहीं देते थे। इसके अलावा समाज की अनीतियों से जुड़ी जिस वेदना को वह अभिव्यक्त करना चाहती थीं, उसकी अभिव्यक्ति का भी एक मात्र माध्यम गद्य ही हो सकता था। अतः सुभद्रा जी ने कहानियाँ लिखीं और एक ही वर्ष में एक कहानी संग्रह 'बिखरे मोती' प्रकाशित करा दिया। उनकी कहानियों में देश-प्रेम के साथ-साथ समाज की विद्रूपता, अपने को प्रतिष्ठित करने के लिए संघर्षरत नारी की पीड़ा और विद्रोह का स्वर देखने को मिलता है। उनकी अधिकांश कहानियाँ सत्य घटनाओं पर आधारित हैं। देश-प्रेम के साथ-साथ उनमें स्त्रियों व गरीबों के लिए सच्ची सहानुभूति दिखती है।
किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥
प्यार असीम, अमिट है, फिर भी पास तुम्हारे आ न सकूँगी।
यह अपनी छोटी सी पूजा, चरणों तक पहुँचा न सकूँगी॥
आज इस महान कवयित्री की पुण्यतिथि के अवसर पर साहित्यशिल्पी परिवार उन्हें सादर श्रद्धांजलि देता है!
6 टिप्पणियाँ
सुभद्रा कुमारी चौहान जी की पुण्यतिथि के अवसर पर बहुत अच्छी सार्थक श्रद्धांजलि प्रस्तुति हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " बर्फ से शहर के लिए " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंGreat article! I liked the presence of your article.
जवाब देंहटाएंyou may also visit,
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Accha article......congrats
जवाब देंहटाएंSubhadra Ji ek mahan vyaktiva thi. Unko mera naman. Unki durlabh tasveerein upload karne ke liye aapka dhanyawad.
जवाब देंहटाएंGOOD ARTICAL
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.