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रसानंद दे छंद नर्मदा २०: ​​ त्रिभंगी​ [लेखमाला]- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

साहित्य शिल्पी
साहित्य शिल्पी के पाठकों के लिये आचार्य संजीव वर्मा "सलिल" ले कर प्रस्तुत हुए हैं "छंद और उसके विधानों" पर केन्द्रित आलेख माला। आचार्य संजीव वर्मा सलिल को अंतर्जाल जगत में किसी परिचय की आवश्यकता नहीं। आपने नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी.ई., एम.आई.ई., एम. आई. जी. एस., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ए., एल-एल. बी., विशारद, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है।

साहित्य सेवा आपको अपनी बुआ महीयसी महादेवी वर्मा तथा माँ स्व. शांति देवी से विरासत में मिली है। आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपने निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नाम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी 2008 आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है। आपने हिंदी साहित्य की विविध विधाओं में सृजन के साथ-साथ कई संस्कृत श्लोकों का हिंदी काव्यानुवाद किया है। आपकी प्रतिनिधि कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद 'Contemporary Hindi Poetry" नामक ग्रन्थ में संकलित है। आपके द्वारा संपादित समालोचनात्मक कृति 'समयजयी साहित्यशिल्पी भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' बहुचर्चित है।

आपको देश-विदेश में 12 राज्यों की 50 सस्थाओं ने 75 सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं- आचार्य, वाग्विदाम्बर, 20वीं शताब्दी रत्न, कायस्थ रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञान रत्न, कायस्थ कीर्तिध्वज, कायस्थ कुलभूषण, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, साहित्य वारिधि, साहित्य दीप, साहित्य भारती, साहित्य श्री (3), काव्य श्री, मानसरोवर, साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, हरी ठाकुर स्मृति सम्मान, बैरिस्टर छेदीलाल सम्मान, शायर वाकिफ सम्मान, रोहित कुमार सम्मान, वर्ष का व्यक्तित्व(4), शताब्दी का व्यक्तित्व आदि।

आपने अंतर्जाल पर हिंदी के विकास में बडी भूमिका निभाई है। साहित्य शिल्पी पर "काव्य का रचना शास्त्र (अलंकार परिचय)" स्तंभ से पाठक पूर्व में भी परिचित रहे हैं। प्रस्तुत है छंद पर इस महत्वपूर्ण लेख माला की बीसवीं कड़ी:
रसानंद दे छंद नर्मदा २०: ​​ त्रिभंगी

दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​, गीतिका,​ घनाक्षरी ​तथा बरवै​ छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए​ त्रिभंगी से.......


तीन बार हो भंग ​​त्रिभंगी​, तीन भंगिमा दर्शाये ​


त्रिभंगी ३२ मात्राओं का छंद है जिसके हर पद की गति तीन बार भंग होकर चार चरणों (भागों) में विभाजित हो जाती है। प्राकृत पैन्गलम के अनुसार:


पढमं दह रहणं, अट्ठ विरहणं, पुणु वसु रहणं, रस रहणं।

अन्ते गुरु सोहइ, महिअल मोहइ, सिद्ध सराहइ, वर तरुणं।

जइ पलइ पओहर, किमइ मणोहर, हरइ कलेवर, तासु कई।

तिब्भन्गी छंदं, सुक्खाणंदं, भणइ फणिन्दो, विमल मई।


(संकेत: अष्ट वसु = ८, रस = ६)


संकेत : प्रथम यति १० मात्रा पर, दूसरी ८ मात्रा पर, तीसरी ८ मात्रा पर तथा चौथी ६ मात्रा पर हो। हर पदांत में गुरु हो तथा जगण (ISI लघु गुरु लघु ) कहीं न हो।


केशवदास की छंद माला में वर्णित लक्षण:


विरमहु दस पर, आठ पर, वसु पर, पुनि रस रेख।

करहु त्रिभंगी छंद कहँ, जगन हीन इहि वेष।।


(संकेत: अष्ट वसु = ८, रस = ६)


भानुकवि के छंद-प्रभाकर के अनुसार:


दस बसु बसु संगी, जन रसरंगी, छंद त्रिभंगी, गंत भलो।

सब संत सुजाना, जाहि बखाना, सोइ पुराना, पन्थ चलो।

मोहन बनवारी, गिरवरधारी, कुञ्जबिहारी, पग परिये।

सब घट घट वासी मंगल रासी, रासविलासी उर धरिये।

(संकेत: बसु = ८, जन = जगण नहीं, गंत = गुरु से अंत)

सुर काज सँवारन, अधम उघारन, दैत्य विदारन, टेक धरे।

प्रगटे गोकुल में, हरि छिन छिन में, नन्द हिये में, मोद भरे।


त्रिभंगी का मात्रिक सूत्र निम्नलिखित है


"बत्तिस कल संगी, बने त्रिभंगी, दश-अष्ट अष्ट षट गा-अन्ता"

लय सूत्र: धिन ताक धिना धिन, ताक धिना धिन, ताक धिना धिन, ताक धिना।

नाचत जसुदा को, लखिमनि छाको, तजत न ताको, एक छिना।


उक्त में आभ्यंतर यतियों पर अन्त्यानुप्रास इंगित नहीं है किन्तु जैन कवि राजमल्ल ने ८ चौकल, अंत गुरु, १०-८-८-६ पर विरति, चरण में ३ यमक (तुक) तथा जगण निषेध इंगित कर पूर्ण परिभाषा दी है।


गुजराती छंद शास्त्री दलपत शास्त्री कृत दलपत पिंगल में १०-८-८-६ पर यति, अंत में गुरु, तथा यति पर तुक (जति पर अनुप्रासा, धरिए खासा) का निर्देश दिया है।


सारतः: त्रिभंगी छंद के लक्षण निम्न हैं:


१. त्रिभंगी ३२ मात्राओं का (मात्रिक) छंद है।

२. त्रिभंगी समपाद छंद है।

३. त्रिभंगी के हर चरणान्त (चौथे चरण के अंत) में गुरु आवश्यक है। इसे २ लघु से बदलना नहीं चाहिए।

४. त्रिभंगी के प्रत्येक चरण में १०-८-६-६ पर यति (विराम) आवश्यक है। मात्रा बाँट ८ चौकल अर्थात ८ बार चार-चार मात्रा के शब्द प्रावधानित हैं जिन्हें २+४+४, ४+४, ४+४, ४+२ के अनुसार विभाजित किया जाता है। इस तरह २ + (७x ४) + २ = ३२ मात्राएँ हर एक पंक्ति में होती है।

५. त्रिभंगी के चौकल ७ मानें या ८ जगण का प्रयोग सभी में वर्जित है।

६. त्रिभंगी के हर पद में पहले दो चरणों के अंत में समान तुक हो किन्तु यह बंधन विविध पदों पर नहीं है।

७. त्रिभंगी के तीसरे चरण के अंत में लघु या गुरु कोई भी मात्रा हो सकती है किन्तु कुशल कवियों ने सभी पदों के तीसरे चरण की मात्रा एक सी रखी है।

८. त्रिभंगी के किसी भी मात्रिक गण में विषमकला नहीं है। सम कला के मात्रिक गण होने से मात्रिक मैत्री का नियम पालनीय है।

९. त्रिभंगी के प्रथम दो पदों के चौथे चरणों के अंत में समान तुक हो। इसी तरह अंतिम दो पदों के चौथे चरणों के अंत में समान तुक हो। चारों पदों के अंत में समान तुक होने या न होने का उल्लेख कहीं नहीं मिला।


उदाहरण:


१. महाकवि तुलसीदास रचित निम्न पंक्तियों में तीसरे चरण की ८ मात्राएँ अगले शब्द के प्रथम अक्षर पर पूर्ण होती हैं, यह आदर्श स्थिति नहीं है, किन्तु मान्य है।


धीरज मन कीन्हा, प्रभु मन चीन्हा, रघुपति कृपा भगति पाई।

पदकमल परागा, रस अनुरागा, मम मन मधुप करै पाना।

सोई पद पंकज, जेहि पूजत अज, मम सिर धरेउ कृपाल हरी।

जो अति मन भावा, सो बरु पावा, गै पतिलोक अनन्द भरी।


२. तुलसी की ही निम्न पंक्तियों में हर पद का हर चरण आपने में पूर्ण है।


परसत पद पावन, सोक नसावन, प्रगट भई तप, पुंज सही।

देखत रघुनायक, जन सुख दायक, सनमुख हुइ कर, जोरि रही।

अति प्रेम अधीरा, पुलक सरीरा, मुख नहिं आवै, वचन कही।

अतिशय बड़भागी, चरनन लागी, जुगल नयन जल, धार बही।


यहाँ पहले २ पदों में तीसरे चरण के अंत में 'प' तथा 'र' लघु (समान) हैं किन्तु अंतिम २ पदों में तीसरे चरण के अंत में क्रमशः 'वै' गुरु तथा 'ल' लघु हैं।


३.महाकवि केशवदास की राम चन्द्रिका से एक त्रिभंगी छंद का आनंद लें:


सम सब घर सोभैं, मुनिमन लोभैं, रिपुगण छोभैं, देखि सबै।

बहु दुंदुभि बाजैं, जनु घन गाजैं, दिग्गज लाजैं, सुनत जबैं।

जहँ तहँ श्रुति पढ़हीं, बिघन न बढ़हीं, जै जस मढ़हीं, सकल दिसा।

सबही सब विधि छम, बसत यथाक्रम, देव पुरी सम, दिवस निसा।


यहाँ पहले २ पदों में तीसरे चरण के अंत में 'भैं' तथा 'जैं' गुरु (समान) हैं किन्तु अंतिम २ पदों में तीसरे चरण के अंत में क्रमशः 'हीं' गुरु तथा 'म' लघु हैं।


४. श्री गंगाप्रसाद बरसैंया कृत छंद क्षीरधि से तुलसी रचित त्रिभंगी छंद उद्धृत है:


रसराज रसायन, तुलसी गायन, श्री रामायण, मंजु लसी।

शारद शुचि सेवक, हंस बने बक, जन कर मन हुलसी हुलसी।

रघुवर रस सागर, भर लघु गागर, पाप सनी मति, गइ धुल सी।

कुंजी रामायण, के पारायण, से गइ मुक्ति राह खुल सी।


टीप: चौथे पद में तीसरे-चौथे चरण की मात्राएँ १४ हैं किन्तु उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता चूंकि 'राह' को 'र'+'आह' नहीं लिखा जा सकता। यह आदर्श स्थिति नहीं है। इससे बचा जाना चाहिए। इसी तरह 'गई' को 'गइ' लिखना अवधी में सही है किन्तु हिंदी में दोष माना जाएगा।


***


त्रिभंगी छंद के कुछ अन्य उदाहरण निम्नलिखित हैं


०१. री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं।

हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ।।।


मंदार सरोजं, कदली जोजं, पुंज भरोजं, मलयभरं।

भरि कंचनथारी, तुमढिग धारी, मदनविदारी, धीरधरं।। --रचनाकार : ज्ञात नहीं


संजीव 'सलिल'


०२. रस-सागर पाकर, कवि ने आकर, अंजलि भर रस-पान किया।

ज्यों-ज्यों रस पाया, मन भरमाया, तन हर्षाया, मस्त हिया।।


कविता सविता सी, ले नवता सी, प्रगटी जैसे जला दिया।

सारस्वत पूजा, करे न दूजा, करे 'सलिल' ज्यों अमिय पिया।।


०३. ऋतुराज मनोहर, प्रीत धरोहर, प्रकृति हँसी, बहु पुष्प खिले।

पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले।।


लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले।

पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले।।


०४. ऋतुराज मनोहर, स्नेह सरोवर, कुसुम कली मकरंदमयी।

बौराये बौरा, निरखें गौरा, सर्प-सर्पिणी, प्रीत नयी।।


सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी।

दस दिशा तरंगित, भू-नभ कंपित, प्रणय प्रतीति न 'सलिल' गयी।।


०५. ऋतु फागुन आये, मस्ती लाये, हर मन भाये, यह मौसम।

अमुआ बौराये, महुआ भाये, टेसू गाये, को मो सम।।


होलिका जलायें, फागें गायें, विधि-हर शारद-रमा मगन।

बौरा सँग गौरा, भूँजें होरा, डमरू बाजे, डिम डिम डम।।


०६. ऋतुराज मनोहर, सुनकर सोहर, झूम-झूम हँस नाच रहा।

बौराया अमुआ, आया महुआ, राई-कबीरा बाँच रहा।।


पनघट-अमराई, नैन मिलाई के मंचन के मंच बने।

कजरी-बम्बुलिया आरोही-अवरोही स्वर हृद-सेतु तने।।


शम्भुदान चारण


०७. साजै मन सूरा, निरगुन नूरा, जोग जरूरा, भरपूरा।

दीसे नहि दूरा, हरी हजूरा, परख्या पूरा, घट मूरा।।


जो मिले मजूरा, एष्ट सबूरा, दुःख हो दूरा, मोजीशा।

आतम तत आशा, जोग जुलासा, श्वांस ऊसासा, सुखवासा।।


डॉ. प्राची.सिंह


०८.मन निर्मल निर्झर, शीतल जलधर, लहर लहर बन, झूमे रे।

मन बनकर रसधर, पंख प्रखर धर, विस्तृत अम्बर, चूमे रे।।


ये मन सतरंगी, रंग बिरंगी, तितली जैसे, इठलाये।

जब प्रियतम आकर, हृदय द्वार पर, दस्तक देता, मुस्काये।।


स्व. सत्यनारायण शर्मा 'कमल'


०९ छंद त्रिभंगी षट -रस रंगी अमिय सुधा-रस पान करे।

छवि का बंदी कवि-मन आनंदी स्वतः त्रिभंगी-छंद झरे।।


दृश्यावलि सुन्दर लोल-लहर पर अलकावलि अतिशय सोहे।

पृथ्वी-तल पर सरिता-जल पर पसरी कामिनि मन को मोहे।।


१०. उषाकाल नव-किरण जाल जल का उछाल चुप रह लख रे

रति सद्यस्नाता कंचन गाता रूप लजाता दृश्य अरे

मुद सस्मित निरखत रूप-सुधा घट चितवत नेह-पगा छिप रे

हँस गगन मुदित रवि नैसर्गिक छवि विस्मित मौन ठगा कित रे


११. नम श्यामल केश कमल-मुख श्वेत रुचिर परिवेश प्रदान करे।

नत नयन खुले से निमिष-तजे से अधर मंद मुस्कान भरे।।


उभरे वक्षस्थल जल क्रीडास्थल लहर उछल मन प्राण हरे।

सोई सुषमा सी विधु ज्योत्स्ना सी शरद पूर्णिमा नृत्य करे।।


१२. था तन रोमांचित मन आलोड़ित सिकता-कण शत-शत बिखरे।

सस्मित आकृति अनमोल कलाकृति मुग्ध प्रकृति भी इस पल रे।।


उतरीं जल-परियाँ सिन्धु-लहर सी प्रात प्रहर सुर-धन्या सी।

नव दीप-शिखा सी नव-कलिका सी इठलाती हिम-कन्या सी।।


संजीव 'सलिल'


१३. हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे।

हर संकट हर हर मंज़िल वरकर, सबका भाग्य निखारेंगे।।


पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे।

भारत माँ पावन जन मन भावन, सीकर चरण पखारेंगे।।


१४. अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे।

कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे।।


शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है।

आँसू न बहायें , जन-गण गाये, पंथ वही तो वरना है।।


१५. श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें।

गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें।।


उपकरण जुटायें, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें।

आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ, उन्नत देश करें न चुकें।।


१६. नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम काम सदा।

किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'।।


प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें।।

श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें।।


जनश्रुति / क्षेपक- रामचरितमानस में बालकाण्ड में अहल्योद्धार के प्रकरण में चार (४) त्रिभङ्गी छंद प्रयुक्त हुए हैं. कहा जाता है कि इसका कारण यह है कि अपने चरण से अहल्या माता को छूकर प्रभु श्रीराम ने अहल्या के पाप, ताप और शाप को भङ्ग (समाप्त) किया था, अतः गोस्वामी जी की वाणी से सरस्वतीजी ने त्रिभङ्गी छन्द को प्रकट किया.





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- क्रमश:21

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6 टिप्पणियाँ

  1. aglee kadi men kis chhnd ko liya jaaye? koee pathak apni pasand bataye.

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  2. आचार्य जी...हम तो आपके बताने के अनुरूप चल रहे है..हमे तो छंद के बारे मे पता नही था...आप एक हिंदी की इतिहास बना रहे है..धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत अच्छा आलेख..त्रिभंगी भी कोई छंद का नाम होगा मैंने कभी नही सोचा था...धन्यवाद

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  4. उत्तर
    1. सर ,
      आलेख भी मिला और आज लग भी गया।
      धन्यवाद
      साहित्य शिल्पी के लिए अभिषेक सागर

      हटाएं

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