ओ,
लहकती बहकती
बसन्ती हवाओ !
छुओ मत मुझे,
इस तरह
मत छुओ !
लहकती बहकती
बसन्ती हवाओ !
छुओ मत मुझे,
इस तरह
मत छुओ !

डा. महेंद्रभटनागर
सर्जना-भवन, 110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर -- 474 002 [म. प्र.]
फ़ोन : 0751-4092908 / मो. 98 934 09793
E-Mail : drmahendra02@gmail.com
drmahendrabh@rediffmail.com
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अनुराग भर-भर
गुँजा फागुनी स्वर
न ठहरो
न गुज़रो
इधर से
बसन्ती हवाओ !
भटकती बहकती
बसन्ती हवाओ !
मुझे ना डुबाओ
उफ़नते उमड़ते
भरे पूर रस के
कुओं में, सरों में,
मधुर रास-रज के
कुओं में, सरों में,
छुओ मत मुझे
इस तरह
मत छुओ।
ओ, बसन्ती हवाओ !
दहकती चहकती
बसन्ती हवाओ !
अभिशप्त
यह क्षेत्र वर्जित
सदा से,
न आओ इधर
यह विवश !
एक
सुनसान वीरान मन को
समर्पित
सदा से,
न आओ इधर
ओ, बसन्ती हवाओ !
गमकती खनकती
बसन्ती हवाओ !
छुओ मत मुझे
इस तरह
मत छुओ !
तप्त प्यासे
कुओं में, सरों में
नहीं यों
भिगोओ मुझे !
इन
अवश अंग
युग-युग पिपासित
कुओं में, सरों में
नहीं यों
भिगोओ मुझे !
ओ, बसन्ती हवाओ !
मचलती छलकती
बसन्ती हवाओ !
छुओ मत मुझे
इस तरह
मत छुओ !
यह
अननुभूत ओझल अस्पर्शित
सदा से !
न आओ इधर
यह
उपेक्षित अदेखा अचीन्हा
सदा से !
1 टिप्पणियाँ
बहुत ही अच्छी कविता....बचपन की याद आ गई जब हम पढा करते थे हवा हु ह्वा मै बसती हवा हू... बंसत की बात ही निराली होती है...धन्यवाद
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