रूपसी के घर रघुवीर क्या आया गाँव भर में चर्चा छिड़ गयी --- क्या नौजवान है , भला –सा गठा हुआ शरीर , यह तो सेना का सिपाही लगता है । सच भी यही था । रघुवीर सेना का नहीं , अपितु एक कंपनी का दरबान था, रूपसी के पति का एकलौता दोस्त । वह अपनी पत्नी के साथ कानपुर में रहता था , जहाँ रूपसी का पति जगदीश उसी कंपनी में दरबानी करता था , जिसमें रघुबीर भी । दोनों में मेल –जोल खूब था । आना –जाना लगा रहता था । जगदीश चूँकि वहाँ अकेले रहता था ,इसलिए उसका ज़्यादातर खाली समय रघुवीर के डेरे पर ही बीतता था । रघुवीर के यहाँ भी लोग ही कितने थे ?खुद वह और उसकी पत्नी अलबेली , बस ।
मनन कुमार सिंह संप्रति भारतीय स्टेट बैंक में मुख्य प्रबन्धक के पद पर मुंबई में कार्यरत हैं।
सन 1992 में ‘मधुबाला’ नाम से 51 रुबाइयों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ,
जिसे अब 101 रुबाइयों का करके प्रकाशित करने की योजना है तथा कार्य प्रगति पर है भी।
‘अधूरी यात्रा’ नाम से एक यात्रा-वृत्तात्मक लघु काव्य-रचना भी पूरी तरह प्रकाशन के लिए तैयार है।
कवि की अनेकानेक कविताएं भारतीय स्टेट बैंक की पत्रिकाएँ; ‘जाह्नवी’, ‘पाटलीपुत्र-दर्पण’ तथा स्टेट बैंक अकादमी गुड़गाँव(हरियाणा) की प्रतिष्ठित गृह-पत्रिका ‘गुरुकुल’ में प्रकाशित होती रही हैं।
रघुवीर गाँव में आकर रम –सा गया । दिन बीतते गए । रूपसी का सूना –सा दर गुलजार रहने लगा । गाँव के निठल्ले सुरती सूँघने के बहाने वहाँ जमने लगे । शायद इस बहाने भी रूपसी के दर की हरी घास हाथ लगे । रूपसी जवानी की दहलीज पार कर रही थी, पर हरदम हरियाली बिखेरती रहती । गाँववाले उसे परती की घास समझते। जो चर ले, वही मालामाल।
रूपसी के ससुर सत्संगी थे । रघुवीर रात –रात भर उनसे रामायण सुनता , करताल की धुन पर । बेचारे खुश थे कि कोई तो मिला उनकी सुननेवाला । नहीं तो यहाँ फुर्सत किसे है रामकथा सुनने की ?
एक दिन शाम को रघुवीर ने बुढ़ऊ से कहा , ‘ बाबूजी , जरा घूम –फिर लिया कीजिये , तंदुरुस्ती ठीक रहेगी । हाट जाइए ना , सुरती वगैरह लेते आइयेगा’। इतना कह रघुवीर ने उनकी तरफ कुछ पैसे बढ़ाये और बोला कि चाय भी पी लीजियेगा । बुढ़ऊ इंकार नहीं कर सके । वे बाज़ार चले गये ।
रघुवीर आगे के ओसारे में जमा रहा । खिड़की खुली थी । उसने अंदर झाँका , सन्न रह गया । रूपसी नहाकर कपड़े बदल रही थी। उसके बदन की मांसलता , सुंदरता और जाने क्या –क्या सिमटते –सिमटते रघुवीर के मस्तिष्क में गोल होने लगे और वह उन गोलाइयों में खो गया । खटका हुआ , रूपसी पलटी ,उसने देखा । रघुवीर थोड़ा ठहरकर पलट गया । सोचने लगा कि रूपसी के चेहरे पर उसे वैसे देख लिए जाने का मलाल था कि नहीं । तुरत ही वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि ऐसा कुछ नहीं था । हाँ , एक ललनासुलभ झिझक जरूर थी जिससे उसने जल्दी –से अपना बदन आँचल से ढका था। उसके यौवन की आभा उसके आँचल से छन –छनकर बरसी आ रही थी । रघुवीर की दृष्टि भींग रही थी , उस अजस्र धार से । वह डूबता चला गया उस बाँकी चितवन में जो रूपसी के स्वच्छंद नयनमंडल पर विद्यमान थी ।
वह बैठा रहा उन्मन –सा, उसी ओसारे में ।
भूत की स्मृति –लहरियों ने जैसे उसे स्वप्न –लोक में पहुंचा दिया हो। उसे याद आ रही थी उस बरसात की रात , जब वह बिना ओवरटाइम किये ही कानपुर की उस कंपनी से बारिश में भींगते रात के करीब ग्यारह बजे अपने डेरे पर लौटा था । दरवाजे पर दस्तक देते –देते वह रुक गया था , जब उसे अलबेली की खिलखिल सुनायी पड़ी थी । वह सोचने लगा कि इतनी रात गये अलबेली क्यों खिलखिल कर रही है? लगता है उसने कुछ अच्छा सपना देखा होगा, तभी नींद में यूँ खिलखिला रही है । अलबेली का रूप उसके सामने साकार होने लगा । बारिश की समा, ऊपर से चढ़ती रात हो, तो नारी वैसे ही अच्छी लगती है । अलबेली तो फिर भी अलबेली थी । जिसने एक बार देखा , लार टपकाने लगा। कुछ देर अपने भाग्य पर इतराया था रघुवीर । अलबेली के साथ बीते क्षणों की कल्पना मात्र से उसका मन – मस्तिष्क झनझना गया । उतावला होने लगा। सोचा दरवाजा पीट दूँ और बरसात के मजे लूँ , नौकरी फिर कल हो जायेगी । अलबेली से कह दूँगा कि थोड़ी जल्दी खाना दे दिया करे जिससे पारी शुरू होने के समय कंपनी पहुँच जाऊँ। मस्ती का मिजाज बनाते हुए दरवाजे पर दस्तक देता कि रुक गया । अलबेली की खिलखिल – सिसकारी उसके कानों में पड़ी । अब मिश्रित स्वर भुनभुनाहट के रूप में उसके कानों में लगातार पड़ रहे थे। वह सोचने लगा , ‘आखिर क्या बात है ? अलबेली किससे बात कर रही होगी ? मैं तो निकला , तो कोई था नहीं यहाँ । किसीके आने की खबर भी नहीं थी । तभी अंदर से रुकती- दबती –सी अलबेली की हँसी सुनायी पड़ी , जैसे किसीने कस लिया हो , जकड़ लिया हो । वह नेपथ्य में जाने लगा । उस रात जब हम दोनों के अरमान आसमान की उचाइयाँ छू रहे थे और मैंने उसे जकड़ा था , तो ऐसे ही तो हँसी थी । बिलकुल ऐसा ही उसका प्रतिदान होता है , जब वह शारीरिक अलौकिकता का अनुभव कर रही होती है । पुरुषत्व जब परिभाषित हो रहा होता है , तब अलबेली की यही हँसी , उसका यही प्रतिदान तो पुरुष को और ऊँचाई तक जाकर प्रेम का पर्याय बनने को आमादा करता है। यह तो मेरा भोगा हुआ यथार्थ है । यह मेरी गैरहाजिरी में कैसे घटित हो सकता है ? अलबेली का अनावृत सौन्दर्य उसके समक्ष आ गया । वह बिना देखे ही कमरे के अंदर सबकुछ देख रहा था । तभी अलबेली की खिलखिल फिर सुनायी पड़ी, वही रुकरुक कर, वही मर्दाना पकड़जनित! रघुवीर के पैडों के नीचे से धरती जैसे खिसक गयी हो । वह अपने को बेजान महसूस कर रहा था । वह सोचने लगा कि क्या नियति है ? जिसे पूजो , वही घाव देता है । क्या –क्या न किया मैंने इसके लिये ? कड़ी मेहनत , ओवर टाइम ?इसीलिए न कि उसे किसी भी तरह की कमी न महसूस हो , उसकी हर जरूरत पूरी करूँ । पर यह है कि सब कुछ ठुकराकर मेरे यथार्थ को रौंद रही है । उसके मन ने टोका , जरूरतें तो और भी हैं । जिंस की जरूरतें अलग हैं , जिस्म की अलग । भूख कभी लिबास नहीं देखती । जिंस की ही भूख कल पर टल सकती है ,और नहीं । अंदर से आवाज अब थोड़ा जल्दी –जल्दी आने लगी , ‘ओह-अरे’, फिर कभी .... फिर ॰’ । कुछ धूम - धराम के बीच एक मर्दाना स्वर गूँजा , ‘ अलबेली , तू अकेली ही अच्छी लगती है । बारिश ? जाने दो । भींगते चला जाऊंगा । पहले लग जाने दे गोते उस समंदर में जिसके किनारे मैं तबसे प्यासा बैठा था कि कब गला तर हो । आज बूझ गयी चिर प्यास , जो उस दिन से जगी थी , जब हम पहले दिन मिले थे । मैंने याचनाभरी निगाहों से तुझे देखा था और तूने इच्छापूर्ण नजरों से मुझे निहारा था।बात फिर कल , नहीं कल पर टलती रही और मैं उन कलों के बीच बेकल मर –मर कर जीता रहा । तेरा यह सुगठित शरीर , रूप के साँचे में ढला ! उस पर से तुम्हारी निपुण कामकला ! भला कौन मर्द न मर जाए तेरी जैसी बला पर?’जड़वत खड़ा रघुवीर मर्दाने स्वर के भाव समझकर धिक्कार रहा था उस अलबेली को , जो कभी उसकी अलबेली हुआ करती थी । सोच रहा था कमबख्त अपने सजे –ढले बदन पर पराये मर्द के स्पर्श का अहसास समेट रही है। सोच रही होगी कि बस धो लेने से धूल जाएगा पराये मर्द के स्पर्श का दाग और बिछ जाऊँगी फिर से अलबेली बनकर अपने प्रियतम की गोद में । और वह जैसे बरस पड़ेगा आसमान –सा उसपर और समेट लेगा फिर से अपनी बाहों में । तभी उखड़ी –उखड़ी –सी साँसें फिजाँ में तैरने लगीं ।
‘ओह ‘, अलबेली चिहुंकी ।
‘ अब और न कुरेदो। इतनी लंबी दौर ? मैं नहीं दौड़ पाऊँगी’।
थोड़ी देर बाद सबकुछ शांत था । बारिश भी थम गयी थी । किसी अनजानी आशंका से घिरा चोर घर से बाहर निकला । गृहस्वामी अंधेरे में छिप गया । उसने कुछ समय यूँ ही काटा । वह खड़ा तो था अंधेरे में , पर उसे लग रहा था जैसे उसे सरेयाम नंगा कर दिया गया हो । जैसे लोग उसपर ताने कस रहे हों .......जलील !कापुरूष ! बंदर क्या समझेगा अदरक का स्वाद ? चला था ओवरटाइम करने । भला किसके लिये ? वह तो खुद ओवरटाइम कर रही है अपने यार के साथ । खिलाती भी खूब है उसे । यह बैल दिन –रात एक करके कमाता है और इसकी पतुरिया यार पालती है , उसे खिला –पिलाकर साँड करती है । आखिर किसके काम आएगा ?
उसने दरवाजा अंदर की ओर दबाया और कमरे में पहुँचा । उसे अलबेली के रूप का अलबेलापन नजर आया ।‘क्या बनाया है बनानेवाले ने ? बेशर्म , बेहया’, वह गुर्राया । फुसफुसाहट से अलबेली की आंखे खुल गयीं । सामने पति को देख चकरा गयी । सब कुछ तितर –बितर था । रूपसी के बिखरे बाल , बिस्तर के चादर की तरंगें सब घटित को उद्घाटित कर रहे थे । रूपसी ने अपने बाल समेटने के लिए हाथ बढ़ाया ,तो नजर हाथ के रुमाल पर चली गयी, जिससे वह चेहरे का पसीना पोंछ रही थी । पहले वह उसे चूम रही थी ।
रघुवीर ने पूछा , ‘नया रुमाल ? देखूँ’। उसने हाथ बढ़ाया , पर अलबेली ने रुमाल नहीं दिया । रघुवीर लेने चला , तो वह भागी । रुमाल उसके हाथ से गिर गया , वह अपनी नाइटी संभालने लगी ।
कलमुँही कहीं बेपरदा न कर दे । रघुवीर ने रुमाल उठाया । उसे फैलाया , उसपर लिखा था ‘जगदीश’। हरफ –हरफ पसीने से तर –बतर था। रघुवीर का पोर –पोर पसीने से सराबोर हो गया ।
शाम हो गयी । रूपसी चाय लेकर बैठक में आयी । बुढ़ऊ थे नहीं , सो उसने पल्लू नहीं काढ़ा था । बोली ,’ गर्मी लग रही हो तो बाहर बिस्तर लगा दूँ ?’
‘नहीं’।
‘आप पसीने –पसीने हो रहे हैं’।
‘वैसे ही । सीने में आग लगी हो , तो पसीना आ ही जाता है’। रघुवीर सहजता से बोला ।
‘ सीने की आग ?’पसीना ? मैं समझी नहीं’।
‘आग सामने हो तो सीने में उतर ही जाती है’, रघुवीर बड़ी चतुराई से रूपसी के चेहरे को निहारते हुए उसके मन का भाव पढ़ने लगा । रूपसी की आँखें झुकीं होकर भी रघुवीर के अंदर झाँक रही थीं ,उसकी बातों को तोल रही थीं , उसके मन को टटोल रही थीं। दोनों की नजरें मिलीं , ठिठक गयीं । दोनों मौन थे , मगर अंदर अथाह समंदर हिलोरें ले रहा था , किनारे डूबते –से प्रतीत होते थे । रूपसी ने मौन भंग किया , ‘आग ? सामने ? देखिएगा , जलना न पड़े’।
‘अब जलना शेष कहाँ?यहाँ तो जला हुआ दिल लेकर जमाने से चौखट तलाश रहे हैं कि कहीं तो ठंढक मिले’, रघुवीर टोह लेते हुए बोला ।
‘इसीलिए चौखट के सामने पड़े हैं क्या?
चाय पीजिये वरना ठंडी हो जायेगी’,।
‘आप नहीं पियेंगी ?’
‘पी लूँगी ’।
‘साथ पीने का मजा अलग होता है।वैसे आपकी इच्छा’।
रूपसी एक गिलास में चाय लेकर आयी । बोली,’ अरे , शुरू नहीं की आपने ? ठंडी हो जायेगी । लीजिये , मैं भी अपनी चाय ले आयी’।
‘बैठिए न । आप खड़ी हैं । अच्छा लगता है ?’रघुवीर ने चारपाई की तरफ इशारा किया । रूपसी पैताने की तरफ बैठ गयी ।
चाय समाप्त हुई । बुढ़ऊ बाज़ार से आ गये । रूपसी गिलास लेकर अंदर गयी ।
खाने का समय हुआ । बुढ़ऊ ने कहा , ‘बेटा रघुवीर , आओ खाना खा लें’।
‘आप खा लीजिये, मैं बाद में खा लूँगा’।
‘तबीयत तो ठीक है न बेटा ? परिवारवालों की याद आ रही है ?’
‘ नहीं बाबूजी । भला जहाँ आपका स्नेह मिला हो और भाभी की आवभगत , वहाँ क्या किसीको घर की याद आयेगी?’
रूपसी उसी खिड़की पर खड़ी सबकुछ सुन रही थी । तुरत ससुर का खाना लेकर आ गयी । बुढ़ऊ ने खाना खाया , बिस्तर पर गये और करताल की ध्वनि गूँजने लगी ,
‘रघुपति राघव , राजा राम।
एक सखी सीय संग बिहाई’।
रघुवीर का खाना आया तो बोला , ‘अकेले ही क्या ?’
बिना हिल –हुज्जत के रूपसी भी अपना खाना बाहर ले आयी । दोनों साथ -साथ खाना खा रहे थे और राम कथा सुन रहे थे । बुढ़ऊ तो मगन थे गाने में । गाते –गाते थोड़ी देर बाद लुढ़क गये,आँख लग गयी । अब मैदान साफ था । खिलाड़ी सजगता से खेल रहा था । एक भी चाल खाली नहीं पड़ने देना चाहता था । उसने रूपसी को सहलाया , ‘भाभीजी , आप थक जाती होंगी काम करते –करते’ । उसका हाथ रूपसी की पीठ पर था । वह जरा भी नहीं हिली । रघुवीर का साहस बढ़ा । उसका हाथ फिसलने लगा रूपसी की पीठ के खुले दायरे में।
‘सी’, चुभ गयी भाभीजी ।
‘फूल में कांटे तो होते ही हैं । चुभेंगे नहीं?’ । रघुवीर का तन –मन भींग गया , बोला, ‘भाभीजी , कुछ लाया था आपके लिए । डरता था कि आप कहीं नाराज न हो जाएँ ‘।
‘अब भी डरते हो ?’
‘नहीं,’ उसने रूपसी के जिस्म की पकड़ ढीली कर दी । ब्रीफ़केस खोलकर सामान छितरा दिये----साड़ियाँ ...... ।
‘अच्छी है सब’।
‘आपके बदन पर खूब फबेंगे’।
‘पहन लूँगी’।
‘मैं पहना दूँ तो ?’
रूपसी शोख़ी से मुस्कुरायी , बोली कुछ नहीं । रूपसी के शरीर के शेष वस्त्र बदल गये। क्या सजीली छटा थी ! लंबे अरसे के बाद पुरुष –स्पर्श से वह रोमांचित थी, अंग –अंग फुदक रहा था । और तब ......वे डूबते चले गये विस्मृति के समंदर में जहाँ कोई कुछ न रहा , एकाकार हो गये दोनों । तारों की हँसी फीकी पड़ने लगी । निस्तब्धता समाप्त होने लगी , सबेरा हुआ । सब कुछ अब रोज़मर्रा की भाँति घटित होने लगा ।
एक लंबा अरसा गुजरकर रघुवीर रुखसत हुआ । रूपसी रोयी ,उससे फिर आने का वादा भी लिया था उसने । अपनी निशानी के तौर पर रघुवीर ने रूपसी को एक रुमाल दिया था । कहा था सहेजकर रखना । यह मेरे दोस्त जगदीश की पसंद है ।
छुट्टिओं में जगदीश घर आया । रूपसी की दुनिया फिर गुलजार हो जाती , पर जगदीश तो नशे में रहता था । रूपसी का खयाल उसे कम ही होता । एक दिन उसकी भौजाई ने उसे खबरदार किया कि सतर्क रहो , रूपसी का चाल –चलन अच्छा नहीं हैं । तुम्हारा एक दोस्त रघुवीर आया था । खूब गुलछर्रे उड़ाये दोनों ने । उसने अपनी छत या खिड़की से जो कुछ देखा था नमक –मिर्च मिलाकर जगदीश को बता दिया । आग –बबूला जगदीश पत्नी के पास पहुँचा । पूछने पर बात पक्की निकली । रूपसी ने कहा तुम्हारा कोई दोस्त रघुवीर तो था । बोल रहा था तुमने हाल –चाल लेने भेजा । रघुवीर ने सामान तलाशे। देखा नयी –नयी साड़ियाँ हैं , और भी बहुत कुछ । वहीं एक रुमाल भी था , जो रघुवीर ने रूपसी को दिया था । जगदीश ने रुमाल फैलाया , तो सन्न रह गया । यह तो वही रुमाल था जो जगदीश ने अलबेली को दिया था । कहा था इसे मेरी तरफ से रखो । मेरा नाम लिखा है इसपर लाल –लाल हरफ़ों में ।
‘किसने दिया है?’ उसने रूपसी से पूछा
‘रघुवीर ने ही । कहता था तुम्हारी पसंद का है’।
जगदीश के पाँवतले की धरती खिसकती –सी जान पड़ी ।वह बड़बड़ाया , ‘कमीना हरपाल था वह’। उसे याद आने लगे हरपाल के एक –एक शब्द । उसने कहा था , अच्छी दोस्ती निभायी तूने । मैं भी दोस्ती का फर्ज अदा करना जानता हूँ । लुटा –सा जगदीश क्या करता? खिसियायी बिल्ली खंबा नोचे की स्थिति थी उसकी । संग्राम में पराजित योद्धा जैसे अपने सैनिकों पर बरसता है , वैसे ही मान –मर्दित जगदीश रूपसी पर बरसा , उसे ताने दिये , प्रताड़ित किया ।
दूसरे दिन रेल लाइन पर एक युवती की लाश मिली , सर अलग और धर अलग ।
कौवों का झुंड कांव –कांव कर जश्न मनाने की तैयारी कर रहा था । एक मादा कौवा अपने नर से पूछ रही थी , ‘नारी के बलिदान के बिना तुम पुरुषों का प्रतिशोध पूरा नहीं होता?’
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1 टिप्पणियाँ
अच्छी कहानी...आज के जीवन को चिरतार्थ करती...
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