"वो देखो दाने-पानी की तलाश में निकलती तिलचट्टों की भीड़।" लेबर चौक के चौराहे पर हरी बत्ती की प्रतीक्षा मैं खड़ी कार के भीतर से किसी ने मजदूरों के समूह पर घिनोनी टीका-टिप्पणी की।

१. पूरा नाम : महावीर उत्तरांचली
२. उपनाम : "उत्तरांचली"
३. २४ जुलाई १९७१
४. जन्मस्थान : दिल्ली
५. (1.) आग का दरिया (ग़ज़ल संग्रह, २००९) अमृत प्रकाशन से। (2.) तीन पीढ़ियां : तीन कथाकार (कथा संग्रह में प्रेमचंद, मोहन राकेश और महावीर उत्तरांचली की ४ — ४ कहानियां; संपादक : सुरंजन, २००७) मगध प्रकाशन से। (3.) आग यह बदलाव की (ग़ज़ल संग्रह, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। (4.) मन में नाचे मोर है (जनक छंद, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से।
२. उपनाम : "उत्तरांचली"
३. २४ जुलाई १९७१
४. जन्मस्थान : दिल्ली
५. (1.) आग का दरिया (ग़ज़ल संग्रह, २००९) अमृत प्रकाशन से। (2.) तीन पीढ़ियां : तीन कथाकार (कथा संग्रह में प्रेमचंद, मोहन राकेश और महावीर उत्तरांचली की ४ — ४ कहानियां; संपादक : सुरंजन, २००७) मगध प्रकाशन से। (3.) आग यह बदलाव की (ग़ज़ल संग्रह, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। (4.) मन में नाचे मोर है (जनक छंद, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से।
"हराम के पिल्ले," कार के निकट मेरे साथ खड़ा कलवा उस कार वाले पर चिल्लाया, "हमारा शोषण करके तुम एशो-आराम की जिंदगी गुज़ार रहे हो और हमे तिलचट्टा कहते हो। मादर .... ।" माँ की गाली बकते हुए कलवे ने सड़क किनारे पड़ा पत्थर उठा लिया। वह कार का शीशा फोड़ ही देता यदि मैंने उसे न रोका होता। कार वाला यह देखकर घबरा गया और जैसे ही हरी बत्ती हुई वह तुरंत कार को दौड़ाने लगा।
"कलवा पागल हो गए हो क्या तुम?" मैंने उसे शांत करने की कोशिश की।
"हाँ-हाँ पागल हो गया हूँ मैं। हम मजदूरों की तबाह-हाल जिंदगी का कोई आमिरजादा मजाक उडाए तो मैं बर्दास्त नहीं कर सकता। साले का सर फोड़ दूंगा। चाहे वह टाटा-बिडला ही क्यों न हो?" कलवा पर जनून हावी था।
"जल्दी चल यार फैक्ट्री का सायरन बजने वाला है, कहीं हॉफ-डे न कट जाये," और दोनों मित्र मजदूरों की भीड़ मैं ग़ुम हो गए।
दिन तक माहौल काफी बदल चुका था। सभी मजदूर बाहर काके के ढाबे पर दिन की चाय पीते थे। गपशप भी चलती थी. जिससे कुछ घडी आराम मिलता था। चाय तैयार थी और मैंने दो गिलास उठा लिए और एक कलवा को पकड़ते हुए कहा," साहब के मिजाज़ अब कैसे हैं? सुबह तो बड़े गुस्से मैंने थे!"
"अरे यार दीनू रोज की कहानी है," कलवा ने गरमा-गरम चाय को फूंकते हुए कहा, "घर से फैक्ट्री ... फिर फैक्ट्री से घर... अपनी पर्सनल लाइफ तो बची ही नहीं... सारा दिन मशीनों की न थमने वाली खडखडाहट। चिमनी का गलघोटू धुआँ। किसी पागल हाथी की तरह सायरन के चिंघाड़ने की आवाज़। कभी न ख़त्म होने वाला काम... क्या इसलिए उपरवाले ने हमे इन्सान बनाया था?" आसमान की तरफ देखकर जैसे कलवा ने नीली छतरी वाले से प्रश्न किया हो, "सुबह के टेम, सही बोलता था, वह उल्लू का पट्ठा--हम तिलचट्टे हैं। क्या कीड़े-मकोड़ों की भी कोई जिंदगी होती है? क्या हमें भी सपने देखने का हक है?"
"तुम्हारी बात सुनकर मुझे पंजाबी कवि पाश की पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं," मैंने हँसते हुए कहा।
"यार तू बंदकर अपनी सहितियक बकवास। जिस दिन फैक्ट्री में कदम रखा था, बी० ए० की डिग्री मैं उसी दिन घर के चूल्हे मैं झोंक आया था।" कहकर कलवा ने चाय का घूँट भरा।
"सुन तो ले पाश की ये पंक्तियाँ, जो कहीं न कहीं हमारी आन्तरिक पीड़ा और आक्रोश को भी छूती है," मैंने जोर देकर कहा।
"तू सुनाये बिना मानेगा नहीं, चल सुना," कलवा ने स्वीकृति दे दी।
"सबसे खतरनाक है मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का, सब सहन कर जाना
घरों से रोजगार के लिए निकलना और दिहाड़ी करके लौट आना
सबसे खतरनाक है हमारे सपनो का मर जाना,"
मेरे मुख से निकली 'पाश' की इन पंक्तियों ने आस-पास के वातावरण में गर्मी पैदा कर दी। काके चायवाले ने हैरानी से भरकर कहा," अरे तुम दोनों तो बड़ी ऊँची-ऊँची बातें करने लगे हो."
"काके नपुंसक लोग बातें ही कर सकते हैं और कुछ नहीं!" कहकर कलवा ने ठहाका लगाया, "जरा अपना टीवी तो आन कर, कुछ समाचार ही देख लें।"
टीवी पर रात हुए रेलवे दुर्घटना के समाचार को दिखाया जा रहा था। दुर्घटना स्थल के तकलीफ देह चित्र। रोते-बिलखते परिवारजन। रेलमंत्री द्वारा मुवावजे की घोषणा। मृतकों को पांच-पांच लाख और घायलों को दो-दो लाख।
"बाप रे..." पास खड़े मजदूर ने आश्चर्ये से कहा, "यहाँ दिन-रात मेहनत करके मरने से भी स्साला कुछ नहीं मिलता! रेल दुर्घटना में पांच-पांच लाख!"
"काश! मृतकों और घायलों में हम भी होते!" उस मजदूर की बातों के समर्थन में जैसे कलवा धीरे से बुदबुदाया हो।
मेरे हाथ से चाय का गिलास छूट गया और मैंने अपने जिस्म पर एक झुरझुरी-सी महसूस की।
3 टिप्पणियाँ
कहानी अच्छी लिखी गयी है! इस कहानी में ग़रीबी व अनुपयोगी शिक्षा पद्दति की और लेखक ने इशारा किया है, स्नातक स्तर की पढ़ाई करने के बाद भी नायक को उचित नौकरी नहीं मिलती है..जिससे उसकी मनोदशा पर बुरा प्रभाव पड़ता है! मगर, लेखक ने उसकी ज़िंदगी को तिलचट्टे की ज़िदगी का प्रतीक बताकर, कुछ ग़लती की! डाइनोसर के ज़माने में भी ये तिलचट्टे थे, और आज़ भी ये अपना अस्तित्व बनाए बैठे हैं! मगर, उस ज़माने के बड़े शरीर वाले जानवर लुप्त हो गए! लेखक को इस बिंदु पर गौर करना चाहिए, के ये बड़े-बड़े अमीर धन-दौलत के मद से आज़ झूम रहे हैं..वक़्त ऐसा आ रहा है, तब ये भी डाइनोसर, मेमूथ वगैरा की तरह ये आज़ के अमीर भी लुप्त हो जायेंगे! अब ग़रीब युवा अपनी शक्ति को पहचान रहा है! आज़ वह युग आ गया है, आज़ बारह साल का ग़रीब बच्चा कम्प्युटर का ज्ञान लेकर कई तरह की नयी खोजे कर लेता है, और वह कम उम्र में कंपनी का निर्माण कर बैठता है! फिर लेखक को इस ग़रीब युवा के दिल में निराशा के भाव नहीं लाने चाहिए! अच्छा यह होता, के लेखक उसे स्वरोज़गार की रौशनी दिखलाता..जिस पर चलकर वह जुगाड़ करके "बिना खर्च किये बिजली पैदा होने वाली" मशीनों का निर्माण करता! आगे चलकर एक कंपनी का निर्माण करके कई दूसरे युवाओं को आगे बढ़ने की प्रेरणा देता! बस, मेरा कथन यही है के "कहानी अधूरी है, इसे पूरी करनी बहुत ज़रूरी है! पूरी होने के बाद, शीर्षक यह बनता "तिलचट्टा कौन है..?"
जवाब देंहटाएंदिनेश चन्द्र पुरोहित
ई मेल dineshchandrapurohit2@gmail.com
कुछ वक़्त गुजर जाने के बाद, मैं आपके समक्ष मारवाड़ी कहानी "हिंज़ड़ौ कुण है..?" हिंदी अनुवाद सहित प्रस्तुत करूंगा! उस कहानी में यह दर्शाया है के "समाज के साम्मानित आदमी गुंडो से डरकर अपने घरों में दुबक कर चुप-चाप बैठ जाते हैं! चाहे वे गुंडे उनकी बहू-बेटियों की इज्ज़त के साथ खिलवाड़ करते आये हो! ये लीग ऐसे गुंडों को कोई सजा नहीं दे पाते, बल्कि एक हिंज़ङा उन गुंडों को सजा देकर, समाज को जतला देता है के "हिंजङो कुण है..?"
जवाब देंहटाएंइस कहानी को शीघ्र आपके दरबार में लाने का उत्सुक
दिनेश चन्द्र पुरोहित
ई मेल dineshchandrapurohit2@gmail.com
आजकल हम जीना भूल तिलचट्टे ही हो गये है....:(
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.