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युद्ध धर्म [कविता] - कुलवंत सिंह

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कवि कुलवंत सिंहरचनाकार परिचय:-






कवि कुलवंत सिंह



शत्रु सीमा पर खड़ा ललकारता
तू हाथ बाँध ईश को पुकारता ।
वीरता की यह नही पहचान है
हटना युद्ध धर्म से अपमान है ।

त्याग, तप, जप का यहाँ क्या काम है
संहार - शत्रु वीरों की शान है ।
लावा जो हृदय में है दहक रहा
बहने दो ज्वालामुखी भभक रहा ।

बिगुल नही तुमने बजाया, सच है
समर कब तुमने था चाहा, सच है ।
तू हाथ जोड़ अब दिखा न दीनता
इस समर को जीतना ही वीरता ।

अर्थ, स्वार्थ, काम जहां अविराम है,
संघर्ष कुलिष ही वहां परिणाम है ।
उठती हैं जब रण में चिनगारियाँ
याद करो अपनी तुम सरदारियाँ ।

निरीह बन गीत विनय के गा नही
सरल, सरस, अनुनय अब अपना नही ।
हाथ ले अंगार चल अब उस दिशा
प्राण मोह त्याग, मिटा काली निशा ।

अग्नि सी धधक, उबाल रख रक्त में
शत्रु दमन कर उसे गिरा गर्त में ।
वीर बन शक्ति रख, हो सदा विजयी
आग बन राख कर, हो सदा विजयी ।



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3 टिप्पणियाँ

  1. कवि कुलवंत सिंह आपकी रचना सराहनीय बधाई

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति विश्व तंबाकू निषेध दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

    जवाब देंहटाएं
  3. शत्रु सीमा पर खड़ा ललकारता
    तू हाथ बाँध ईश को पुकारता ।
    वीरता की यह नही पहचान है
    हटना युद्ध धर्म से अपमान है ।

    वाह..वाह..

    जवाब देंहटाएं

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