पद्मा मिश्रा का०हि०वि०, वाराणसी में पात्रता प्राप्त व्याख्याता हैं। आप कई विधाओं में रचना करती हैं, यथा - कविता, कहानी, ललित निबन्ध, पुस्तक समीक्षा आदि। आपकी कई रचनाओं का प्रकाशन कादम्बिनी, परिकथा, वर्तमान साहित्य, स्वर मंजरी, मधुस्यंदी, पुष्पगंधा, हिंदी चेतना, सृजक, विश्वगाथा [नव्या] आदि पत्रिकाओं तथा हिंदुस्तान, दैनिक जागरण [कानपुर, जम्शेदपुर], प्रभात खबर, दैनिक भास्कर, न्यू इस्पात मेल आदि पत्रों में हुआ है।
"साँझ का सूरज" [कहानी संग्रह] तथा ''सपनों के वातायन" [काव्य संग्रह] आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं। काव्य संकलन "जो दिल में है" तथा कहानी संकलन "पठार की खुशबू" में भी आपकी रचनायें प्रकाशित हैं। बहुभाषीय साहित्यिक संस्था ''सहयोग'' तथा ''अक्षर-कुम्भ'' की आप सक्रिय सदस्य हैं।
आपको ''अक्षर कुम्भ अभिनन्दन सम्मान", "किशोरी देवी साहित्य सम्मान" तथा बाल साहित्य परिषद की ओर से "जय प्रकाश भारती सम्मान" से सम्मानित किया जा चुका है।
"साँझ का सूरज" [कहानी संग्रह] तथा ''सपनों के वातायन" [काव्य संग्रह] आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं। काव्य संकलन "जो दिल में है" तथा कहानी संकलन "पठार की खुशबू" में भी आपकी रचनायें प्रकाशित हैं। बहुभाषीय साहित्यिक संस्था ''सहयोग'' तथा ''अक्षर-कुम्भ'' की आप सक्रिय सदस्य हैं।
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धरती ने बांटी हैं जग में अनुपम सौगातें,
मौसम ने जब से रंग बदले, कर ली मनमानी,
तार तार हो गयी धरा की वो चूनर धानी.
ताल ताल की सोंन चिरैया,बिन जल बौराई,
बूंद बूंद को प्यासी नदिया ,अश्रु बहा लाई.
ऊँचे महलों ने छीनी है,जीवन की धारा,
हरियाली के अंकुर छीने ,अमृत रस सारा.
जंगल कटे,कटी नदिया के तट की वो माटी,
माटी में मिल गयी धरा के सपनों की थाती.
कलियाँ मुरझाईं, पलाश के पल्लव सूख गए,
कंक्रीटों के जंगल बढ़ते, बादल रूठ गए.
अमराई में जैसे कोयल गाना भूल गयी ,
मंजरियाँ सूखीं रसाल की,खिलनाभूल गईं.
दादुर ,मोर,पपीहे की धुन सपनों की बातें,
अब तो प्यासी धरती है और पथरीली रातें.
पावस झूठा, सावन रूठा, पर अँखियाँ बरसी,
धरतीके बेटों ने रंग दी कैसी यह धरती.
ये धरती माता है जिनकी ,वो कैसे भूल गए?,
निर्वसना माँ के दामन में बांटे शूल नए.
सिसक रही कोने में सिमटी मानव की करुणा,
वापस कर दो मेरी धरती, जो थी चिर तरुणा.
उस ममता को उन्ही रोते बीत गए बरसों,
जिसने बांटा अमृत रस, ममता का धन तुमको.
बंद करो यह धुंआ विषैला अब तो दम घुटता है
प्यास बढ़ी, पानी बिन जैसे यह जीवन लुटता है.
अगर प्रकृति की बात न मानी, मानव पछतायेंगे,
जीवन -जल की बूंद बूंद को प्राण तरस जायेंगे.
1 टिप्पणियाँ
बहुत सुन्दर
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