डॉ. चंचल भसीन
सूरज की पौ फटते ही निकल पड़ती हैं
दो आँखें
ज़िंदगी की तलाश में
चलते-चलते रास्ते में मिलती हैं
दो टाँगें, चार टाँगें, छे, आठ, दस-बेशुमार
एक-दूसरे को रौंदती
फाँदती,
आगे बढ़ती
पीछे पछाड़ती
किसी का इंतज़ार नहीं
कहाँ जा रही हैं?
इस होड़ में
आगे बढ़ने पर भी
सब मिलने पर भी
संतुष्ट नहीं
फिर भी सभी होड़ में।
दूसरी ओर सिसकती ज़िंदगी
सहारे पर पलती
आँखों में इंतज़ार
उन हाथों का
सहारे का
किसी के आने का
निहारती
अंबर ताकती
बिलखती-तड़पती
हाथों की ढेडी लकीरों में ढूँढती
सुकून की राहें
न मिलने पर
उसे कोसती
कराहती
बेबसी दर्शाती
सब देखते
दुखी मन
फिर लौट आती शाम ढलते
एक नए कल को लिए। ( डॉ. चंचल भसीन )
8 टिप्पणियाँ
चंचल जी...बहुत ही अच्छी कविता...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया 🙏
हटाएंरमेश कुमार जी
डॉ. चंचल भसीन जी, लाजवाब और बेहतरीन रचना.
जवाब देंहटाएंआपका बहुत-बहुत आभार 🙏
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंआभार 🙏
हटाएंसरिता भाटिया जी
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद🙏
हटाएंआप बुद्धजीवियों के सराहने से क़लम को बल मिलता है।
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.