"एक ज़बरदस्त टक्कर लगी और सब कुछ ख़त्म …" अपने मोबाइल से हवलदार सीताराम ने इंस्पेक्टर पुरुषोत्तम को ठीक वैसे ही और उसी अंदाज़ में कहा, जैसा कि उसने एक प्रत्यक्षदर्शी गवाह के मुख से सुना था, "सर ड्राईवर को चीखने तक का मौका नहीं मिला। एक चश्मदीद ने मुझे यह सब बताया … खून के छीटे …"

१. पूरा नाम : महावीर उत्तरांचली
२. उपनाम : "उत्तरांचली"
३. २४ जुलाई १९७१
४. जन्मस्थान : दिल्ली
५. (1.) आग का दरिया (ग़ज़ल संग्रह, २००९) अमृत प्रकाशन से। (2.) तीन पीढ़ियां : तीन कथाकार (कथा संग्रह में प्रेमचंद, मोहन राकेश और महावीर उत्तरांचली की ४ — ४ कहानियां; संपादक : सुरंजन, २००७) मगध प्रकाशन से। (3.) आग यह बदलाव की (ग़ज़ल संग्रह, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। (4.) मन में नाचे मोर है (जनक छंद, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से।
२. उपनाम : "उत्तरांचली"
३. २४ जुलाई १९७१
४. जन्मस्थान : दिल्ली
५. (1.) आग का दरिया (ग़ज़ल संग्रह, २००९) अमृत प्रकाशन से। (2.) तीन पीढ़ियां : तीन कथाकार (कथा संग्रह में प्रेमचंद, मोहन राकेश और महावीर उत्तरांचली की ४ — ४ कहानियां; संपादक : सुरंजन, २००७) मगध प्रकाशन से। (3.) आग यह बदलाव की (ग़ज़ल संग्रह, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। (4.) मन में नाचे मोर है (जनक छंद, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से।
"ज़्यादा विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीं है बेवकूफ़। तुम्हे पता नहीं मैं हार्ट पेशंट हूँ …." इंस्पेक्टर पुरुषोत्तम ने टोकते हुए कहा।
"सॉरी सर" सीताराम झेंपते हुए बोला।
"ये बताओ, दुर्घटना हुई कैसे?" पुरुषोत्तम का स्वर कुछ गंभीर था।
"सर ये वाक्या तब घटा, जब एक कार सामने से आ रहे ट्रक से जा टकराई।"
"ट्रक ड्राइवर का क्या हुआ? कुछ पैसे-वैसे हाथ लगे की नहीं।"
"पैसे का तो कोई प्रश्न ही नहीं सर"
"क्यों?"
"वह मौके से फरार हो गया था. मैं दुर्घटना स्थल पर बाद में पंहुचा था।"
"तुम्हे दो-चार दिन के लिए निलंबित करना होगा।"
"क्यों सर?"
"तुम मौके पर कभी नहीं पंहुचते?"
"सॉरी सर!"
"अबे सॉरी कह रहा है बेवकूफ। क्या जानता नहीं दुर्घटनाएं हमारे लिए फायदे का सौदा होती हैं? आज के दौर में बिना ऊपरी कमाई के गुज़र -बसर करना मुश्किल है। जितने अपराध … उतनी आमदनी … " पुरुषोत्तम ने विस्तार पूर्वक सीताराम को समझाया, "खैर अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है … ट्रक और कार की अच्छी तरह जाँच-पड़ताल करो, शायद कुछ कीमती सामान हाथ आ जाये। एक काम करो मुझे ट्रक और कार का नंबर लिखवा दो.… इससे इनके मालिकों का पता चल जायेगा तो वहां से कुछ फायदा-मुनाफ़ा …" कहते-कहते इंस्पेक्टर के स्वर में चमक आ गई।
"साब जिस जगह दुर्घटना हुई है, वहां अँधेरा है. नंबर ठीक से दिखाई नहीं पड़ रहा है। एक सेकेण्ड सर … मोबाईल की रौशनी में कार का नंबर पढने की कोशिश करता हूँ।" और सीताराम ने जैसे ही कार का पूरा नंबर पढ़कर पुरुषोत्तम को सुनाया वह बुरी तरह चीख पड़ा, "नहीं, ये नहीं हो सकता … ये कार तो मेरे लड़के अमित की है…." और फ़ोन पर पहली बार मानवीय संवेदनाएं उमड़ पड़ी। अब तक जो इंस्पेक्टर दुर्घटना में नफा-नुकसान ही देख रहा था। पहली बार उसके हृदय का पिता जीवित हुआ था।
"संभालिये सर अपने आपको …" सीताराम इतना ही कह सका था कि फ़ोन डिस्कनेक्ट हो गया।
1 टिप्पणियाँ
महावीर उत्तरांचली जी की लघुकथा मानवीय संवेदना को प्रभावित करने वाली समसामयिक है| जो कुछ हो रहा होता है मनुष्य अपने जीवन में उसी तरह की घटनाएँ होने पर क्या -कैसा अनुभव करेगा अपने से जोडकर सोचे और अमल में लाये तो बात अच्छी बनती | लघुकथा के लिए उत्तरांचली जी बधाई !
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