
रचना व्यास मूलत: राजस्थान की निवासी हैं। आपने साहित्य और दर्शनशास्त्र में परास्नातक करने के साथ साथ कानून से स्नातक और व्यासायिक प्रबंधन में परास्नातक की उपाधि भी प्राप्त की है।
जब नई -नई शादी हुई तो ये बुर्का उसे चुभता था मानो ये अहसास
दिलाता कि नर्म धूप हो या बसंत की सुहानी हवा , उसे अब वंचित
ही रहना है | शौहर ने उसे समझाया कि कुछ वक़्त गुजार लो ,
बच्चा हो जाये बस ... वह दूसरे शहर में ट्रांसफर करवा लेगा |
वहाँ जानने वाला कोई न होगा | आठ साल से इलाज चल रहा था |
सभी एक ही सवाल पूछते कि वह कब हामला होगी | अब घर में अकेली
होने पर भी वह बुर्का पहने रहती |
5 टिप्पणियाँ
Gahre Arth Liye Sunder Rachana
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंबधाई रचना व्यास जी!!!! मार्मिक लघुकथा. कम शब्दों में सटीक अभिव्यंजना. स्त्री को खुद अपनी स्थिति सुधारनी होगी. अन्यथा वह इसी तरह परदे में और परतों में ही सिमटकर रह जाएगी.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपने इसका भाव जाना अन्यथा ज्यादातर पाठकों की दृष्टि में ये अधूरी लगती है
हटाएंरचनाजी,
जवाब देंहटाएंकहानी को थोड़ा और आगे बढ़ाइए ! लिखिए, उस औरत ने एम.बी.एस.एस. की पढ़ाई कर रखी थी ! एक बार उस महिला के श्वसुर को दिल का दौरा पड़ा, तब उसने बुर्के को एक तरफ रखकर अपने ससुरजी का इलाज़ किया, उसके इलाज़ से उसके ससुरजी की ज़िंदगी बच गयी ! तबसे उसके ससुरजी और सासजी उसे बेटी की तरह मानने लगे ! इस तरह उसका बुरका स्वत: उठ गया और समाज में उसे मिसाल के रूप में देखा जाने लगा !" रचनाजी, कहानी इस स्थान पर आकर समाप्त होती है ! कहानी का कोई सुखद या दुखद अंत होता है ! लिखारै दिनेश चन्द्र पुरोहित
dineshchandrapurohit2@gmail.com
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