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दृष्टि [कविता] - डॉ महेन्द्र भटनागर

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बदली छायी
 डा. महेंद्र भटनागर रचनाकार परिचय:-


डा. महेंद्रभटनागर
सर्जना-भवन, 110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर -- 474 002 [म. प्र.]

फ़ोन : 0751-4092908 / मो. 98 934 09793
E-Mail : drmahendra02@gmail.com
drmahendrabh@rediffmail.com

स्पष्ट विभाजित है
जन-समुदाय -
समर्थ / असहाय।
हैं एक ओर -
भ्रष्ट राजनीतिक दल
उनके अनुयायी खल,
सुख-सुविधा-साधन-सम्पन्न
प्रसन्न।
धन-स्वर्ण से लबालब
आरामतलब / साहब और मुसाहब।
बँगले हैं / चकले हैं,
तलघर हैं / बंकर हैं,
भोग रहे हैं
जीवन की तरह-तरह की नेमत,
हैरत है, हैरत!
दूसरी तरपफ़ -
जन हैं
भूखे-प्यासे दुर्बल, अभावग्रस्त --- त्रस्त,
अनपढ़,
दलित असंगठित,
खेतों - गाँवों / बाजा़रों-नगरों में
श्रमरत,
शोषित / वंचित / शंकित!
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2 टिप्पणियाँ

  1. कविता में जो कहा गया है वह भारतीय समाज की वास्तविक्ता है। इसका कारण हमारी भेदभाव की संस्कृति है जिसकी प्रशंसा करते हम अघाते नहीं। किंतु उससे भी अधिक उत्तरदायी हमारी मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था है जो जन-जन में भेद रखने को उचित सिद्ध करने में नहीं हिचकता है। राजनेताओं को सुखसुविधाओं से नवाजा जाना उनकी कार्यक्षमता (यानी जनसेवा करने की सामर्थ्य) के लिए अनिवार्य है ऐसा तर्क देने में वे नहीं हिचकते। फिर भी हम उन्हीं को बारबार सत्ता सौंप देने से बाज नही आते। अपना विरोध नोटा (NOTA) बटन के माध्यम से नहीं दर्ज करते।

    जवाब देंहटाएं
  2. आ.डॉ.भटनागर जी की प्रत्येक कविता बहुत ही सुंदर भावों ,शब्दों का सुमेल है।आपके काव्य-संग्रह "इन्द्रधनुष" के आधार पर आपका प्रकृति प्रेम दिखाते हुए मैने एक समीक्षात्मक आलेख डॉ.शशि भूषण शीतांशु जी द्वारा आपके ऊपर संपादित की जा रही पुस्तक हेतु विगत दो साल से दिया हुआ है...आज मुझे हर्ष हो रहा है कि आज मुझे फिर आपकी कविता को पढ़ने का सुअवसर मिला... डॉ.पूर्णिमा राय,अमृतसर।

    जवाब देंहटाएं

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