आकुल, कोटा
जाते ही नवरात दौर
त्योहारों के चलने लगे
अनगिन सपने पलने लगे।
रुत भी आ गई सकुचाई
छत फैली सौड़ रजाई
गली, चौक पथ पगडंडी
रंग-रोगन और पुताई
मधुमास खिले बौर फूटे
कलियाँ चटकी गदराई
मगन मयूर नाचे तक-धिन्
भँवरों ने पींग बढ़ाई।
चौपालों में रात चंग
ढप ढोल झाँझ बजने लगे
अनगिन सपने पलने लगे।
आँगन द्वारा सजीं लटकनें
रोशन टिम-टिम तारों सी
बेदम हैं ये लटकन सुबह
नकली बंदनवारों सी
सजी बारियाँ ड्योढ़ी कुंज
आशापालव हारों सी
और सभ्यता लोक संस्कृति
पलती क्षितिज किनारों सी
गाँवों की सौगात खेत-
खलिहान आज फलने लगे
अनगिन सपने पलने लगे।
रोशन अफ़्जाई से लोग
शहरों में मन बहलाते
पशुधन फसलें संग लोग
गाँवों में स्वप्न सहलाते
तीज-त्योहार लोक-गीतों से
जीवन का रँग भरते
नकलीपन शहरों के मगर
जीवन के रंग मिटाते
तो भी आज हाथ गाँवों के
शहरों को बढ़ने लगे
अनगिन सपने पलने लगे।
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