
आचार्य बलवन्त वर्तमान में बैंगलूरु के एक कालेज में हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत हैं।
आपका एक काव्य-संग्रह "आँगन की धूप" प्रकाशित हो चुका है। इसके अतिरिक्त आपकी कई रचनाएं समय समय पर अहिंसा तीर्थ, समकालीन स्पन्दन, हिमप्रस्थ, नागफनी, सोच-विचार, साहित्य वाटिका, वनौषधिमाला आदि पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में भी प्रकाशित होती रही हैं। आपकी कुछ रचनाएं आकाशवाणी जलगाँव और बंगलूरु से भी प्रसारित हुई हैं।
आपका एक काव्य-संग्रह "आँगन की धूप" प्रकाशित हो चुका है। इसके अतिरिक्त आपकी कई रचनाएं समय समय पर अहिंसा तीर्थ, समकालीन स्पन्दन, हिमप्रस्थ, नागफनी, सोच-विचार, साहित्य वाटिका, वनौषधिमाला आदि पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में भी प्रकाशित होती रही हैं। आपकी कुछ रचनाएं आकाशवाणी जलगाँव और बंगलूरु से भी प्रसारित हुई हैं।
हर आँगन में उजियारा हो, तिमिर मिटे संसार का।
चलो, दिवाली आज मनायें, दीया जलाकर प्यार का।
सपने हो मन में अनंत के, हो अनंत की अभिलाषा।
मन अनंत का ही भूखा हो, मन अनंत का हो प्यासा।
कोई भी उपयोग नहीं, सूने वीणा के तार का ।
चलो, दिवाली आज मनायें, दीया जलाकर प्यार का।
इन दीयों से दूर न होगा, अन्तर्मन का अंधियारा।
इनसे प्रकट न हो पायेगी, मन में ज्योतिर्मय धारा।
प्रादुर्भूत न हो पायेगा, शाश्वत स्वर ओमकार का।
चलो, दिवाली आज मनायें, दीया जलाकर प्यार का।
अपने लिए जीयें लेकिन औरों का भी कुछ ध्यान धरें।
दीन-हीन, असहाय, उपेक्षित, लोगों की कुछ मदद करें।
यदि मन से मन मिला नहीं, फिर क्या मतलब त्योहार का ?
चलो, दिवाली आज मनायें, दीया जलाकर प्यार का।
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