
डा. महेंद्रभटनागर
सर्जना-भवन, 110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर -- 474 002 [म. प्र.]
फ़ोन : 0751-4092908 / मो. 98 934 09793
E-Mail : drmahendra02@gmail.com
drmahendrabh@rediffmail.com
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पहले सोचते हैं हम
अपने घर-परिवार के लिए।
फिर-
अपने धर्म, अपनी जाति, अपने प्रांत
अपनी भाषा और अपनी लिपि के लिए।
आस्थाएँ: संकुचित।
निष्ठाएँ: सीमित परिधि में क़ैद।
हम अपने इस सोच की रक्षा के लिए
मानव-रक्त की नदियाँ बहा देते हैं,
पड़ोसियों को गोलियों से भून देते हैं,
वहशी बन जाते हैं, आदमख़ोर हिंस्र
जानवर से भी अधिक,
भयानक शक़्ल धारण कर लेते हैं।
हमारे ‘महान’ और ‘शहीद’ बनने का
एक मात्र रास्ता यही है।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह सोच
हमारी चेतना का अंग बन चुका है,
हम इससे मुक्त नहीं हो पाते।
बार-बार हमारा ईश्वर हमें उकसाता है-
हम दूसरों के ईश्वरों की हत्या कर दें
उनके अस्तित्व चिन्ह तोड़ दें
और स्वर्ग का स्थान
केवल अपने लिए सुरक्षित समझें।
साक्षी है इतिहास
कि देश हमें नहीं दिखता,
विश्व-मानवता का लिबास
हमें नहीं फबता।
इस पृथ्वी पर मात्र हम रहेंगे -
हमारे धर्मवाले
हमारी जातिवाले
हमारे प्रांत वाले
हमारी जबान वाले
हमारी लिपि वाले,
यही हमारा देश है,
यही हमारा विश्व है।
कौन तोड़ेगा इस पहचान को?
ख़ाक करेगा इस गलीज जहान को?
नये इंसानो!
आओ, क़रीब आओ
और मानवता की ख़ातिर
धर्म-विहीन, जाति-विहीन
समाज का निर्माण करो,
देशों की भौगोलिक रेखाएँ मिटाकर।
विभिन्न भाषाओं
विभिन्न लिपियों को
मानव-विवेक की उपलब्धि समझो।
नये इंसानो!
अब चुप मत रहो
तटस्थ मत रहो।
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2 टिप्पणियाँ
इंसान के क्रिया-कलाप अपने भौतिक अस्तित्व को बचाये रखने के लिए होते हैं। उसके अस्तित्व के लिए प्राकृतिक विपदाएं तथा अन्य जीवजंतु तो खतरे होते ही हैं, साथ में स्वयं अन्य मनुष्य भी होते हैं। अपने अस्तित्व के लिए जिन प्राकृतिक संशाधनों पर वह निर्भर करता है उन पर एकाधिकार के प्रयास निरंतर चलते रहते हैं, प्रयास कभी एकल रूप से तो कभी समूह या वृहत्तर समुदाय के रूप में और कभी राष्ट्र के रूप में चलते रहते हैं। प्रकृति ने सभी जीवों को ये सहजवृत्ति प्रदान की है।
जवाब देंहटाएंहमारी सोई हुई संवेदना को झकझोरती एक बेहतरीन रचना. 2007 से ग्वालियर छूटा तो बहुत कुछ छूटा मुझसे.
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.