क्यूँ नींद नहीं आती मुझको ?
क्यूँ उखड़ा-उखड़ा रहता हूँ ?
क्यूँ उखड़ा-उखड़ा रहता हूँ ?
मनन कुमार सिंह संप्रति भारतीय स्टेट बैंक में मुख्य प्रबन्धक के पद पर मुंबई में कार्यरत हैं। सन 1992 में ‘मधुबाला’ नाम से 51 रुबाइयों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसे अब 101 रुबाइयों का करके प्रकाशित करने की योजना है तथा कार्य प्रगति पर है भी। ‘अधूरी यात्रा’ नाम से एक यात्रा-वृत्तात्मक लघु काव्य-रचना भी पूरी तरह प्रकाशन के लिए तैयार है। कवि की अनेकानेक कविताएं भारतीय स्टेट बैंक की पत्रिकाएँ; ‘जाह्नवी’, ‘पाटलीपुत्र-दर्पण’ तथा स्टेट बैंक अकादमी गुड़गाँव(हरियाणा) की प्रतिष्ठित गृह-पत्रिका ‘गुरुकुल’ में प्रकाशित होती रही हैं।
क्या बात हुई,
घड़ी की सूई ठमक गयी,
नीरस लगती दुनिया नयी,
कहने को सब कुछ आज मिला,
कौन बात का करूँ गिला,
पद-पदवी,सब मान-बड़ाई,
बरबस सुख-सुविधाएं आयीं,
फूटा कंठ, मुखरित नव गीत,
कहाँ गये बचपन के मीत,
खुले खेल कबड्डी होती,
बहुतों की धोती ढीली होती,
मारो लंगी, करो पैंतरा,
‘ची-ची’ और रसीली होती,
बाबा-चाचा-बाबूजी फिर माता,
भाई-बहन का दैवी नाता,
शब्द-शब्द पर जीना–मरना,
शब्द-शब्द को ललचाता,
फिर बचपन की पाठ-पढ़ाई,
उमड़ी यौवन की ललाई,
रोजी-रोटी की शुरू कमाई,
फिर जीवन में ललना आयी,
अपना सुर, उनका गीत,
अपना गीत,उनका सुर,
आया जीवन में राग मधुर,
लगा जीवन हो गया सुरपुर,
उतरे नभ से नीक खिलौने,
नरपुंगव के कोमल छौने,
किलकारी से गूँज उठा घर,
तीन पीढ़ी की बनी पकड़,
फिर बातें कुछ इधर-उधर,
होती सबकी खोज-खबर,
दुनिया का दस्तूर जो ठहरा,
सास-ननद का अपना पहरा,
ननद-भौजाई का भी लहरा,
पल-पल का रहता राज यूं गहरा,
चलता पल कभी है ठहरा ?
फिर चाकरी की फेंका-फेंकी,
मनुवा ने मायानगरी देखी,
पल-पल सोच रहा हूँ मैं---
भूली-बिसरी किन यादों के,
कितने सुप्त इरादों के,
अपनी और फिर अपनों की
कितनी-कितनी फरियादों के
बस चिथड़े-चिथड़ेचुनता हूँ।
क्यूँ नींद नहीं आती मुझको ?
क्यूँ उखड़ा-उखड़ा रहता हूँ ?
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5 टिप्पणियां
आभार साहित्य शिल्पी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मनन जी.....
हटाएंआभार साहित्य शिल्पी
जवाब देंहटाएंआभार साहित्य शिल्पी
जवाब देंहटाएंजीवन के सतरंगी स्वरूप का शब्दांकन मर्मस्पर्शी है.
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.