रमेशराज,
15/109, ईसानगर,
अलीगढ़-२०२००१
|| चार दिनों की है ||
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पूँजीवादी चैंटे, कुछ दिन खुश हो लें करकैंटे
जनवादी चिन्तन की खिल्ली चार दिनों की है।
राजनीति के हउआ, कुछ दिन मौज उड़ालें कउआ
सत्ता-मद में डूबी दिल्ली चार दिनों की है।
ओढ़े टाट-बुरादा, फिर भी ऐसे जिये न ज्यादा
गलती हुई बरफ की सिल्ली चार दिनों की है।
अब घूमेगा डंडा, इसकी पड़े पीठ पर कंडा
दूध-मलाई चरती बिल्ली चार दिनों की है।
कांपेंगे मुस्तंडे, अब अपने हाथों में डंडे
जन की चाँद नापती गिल्ली चार दिनों की है।
शोषण करती तोंदें , कल संभव है शोषित रौंदें
फूलते गुब्बारे की झिल्ली चार दिनों की है।
|| प्यारे देख जरा ||
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तेरे हाथ न रोटी, उत मुर्गा की टाँगें-बोटी
नेता उड़ा रहे रसगुल्ला, प्यारे देख जरा।
खड़ी सियासत नंगी, जिसकी हर चितवन बेढंगी
ये बेशर्मी खुल्लमखुल्ला, प्यारे देख जरा।
नेता करें सभाएँ, छल को नैतिक-धर्म बताएँ
इनके अपशब्दों का कुल्ला, प्यारे देख जरा।
गर्दन कसता फंदा, छीले सुख को दुःख का रंदा
सर पै रोज सियासी टुल्ला, प्यारे देख जरा।
नश्वर जगत बताकर, तेरे भीतर स्वर्ग जगाकर
लूटने जुटे पुजारी-मुल्ला, प्यारे देख जरा।
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4 टिप्पणियाँ
nice
जवाब देंहटाएंरचना अपनी सार्थकता तब ओढ़ लेती है जब वह सीधे मुंह जनता से बात करे. कुछ ऐसा ही लिखा है जिसे बार-बार पढ़ने को जी चाहता है.
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
हटाएंआदरणीय साहित्य शिल्पी में तेवरियाँ प्रकाशित कीं, हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.