"ओहो मैं तंग आ गया हूँ शोर-शराबे से, नाक में दम कर रखा है शैतानों ने।" दफ्तर से थके-हारे लौटे भगवान दास ने अपने आँगन में खेलते हुए बच्चों के शोर से तंग आकर चींखते हुए कहा। पिटाई के डर से सारे बच्चे तुरंत गली की ओर भाग खड़े हुए। उनकी पत्नी गायत्री किचन में चाय-बिस्किट की तैयारी कर रही थी।

१. पूरा नाम : महावीर उत्तरांचली
२. उपनाम : "उत्तरांचली"
३. २४ जुलाई १९७१
४. जन्मस्थान : दिल्ली
५. (1.) आग का दरिया (ग़ज़ल संग्रह, २००९) अमृत प्रकाशन से। (2.) तीन पीढ़ियां : तीन कथाकार (कथा संग्रह में प्रेमचंद, मोहन राकेश और महावीर उत्तरांचली की ४ — ४ कहानियां; संपादक : सुरंजन, २००७) मगध प्रकाशन से। (3.) आग यह बदलाव की (ग़ज़ल संग्रह, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। (4.) मन में नाचे मोर है (जनक छंद, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से।
२. उपनाम : "उत्तरांचली"
३. २४ जुलाई १९७१
४. जन्मस्थान : दिल्ली
५. (1.) आग का दरिया (ग़ज़ल संग्रह, २००९) अमृत प्रकाशन से। (2.) तीन पीढ़ियां : तीन कथाकार (कथा संग्रह में प्रेमचंद, मोहन राकेश और महावीर उत्तरांचली की ४ — ४ कहानियां; संपादक : सुरंजन, २००७) मगध प्रकाशन से। (3.) आग यह बदलाव की (ग़ज़ल संग्रह, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। (4.) मन में नाचे मोर है (जनक छंद, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से।
"गायत्री मैं थक गया हूँ जिम्मेदारियों को उठाते हुए। एक पल भी सुकून मय्यसर नहीं है।" बैग को एक तरफ फैंकते हुए, ठीक कूलर के सामने सोफे पर फैल कर बैठते हुए भगवान दास ने अपने शरीर को लगभग ढीला छोड़ते हुए कहा। इसी समय एक ट्रे में फ्रिज़ का ठंडा पानी और तैयार चाय-बिस्किट लिए गायत्री ने कक्ष में प्रवेश किया और ट्रे को मेज़ पर पतिदेव के सम्मुख रखते हुए बोली, "पैर इधर करो, मैं आपके जुते उतार देती हूँ। आप ख़ामोशी से तब तक चाय-पानी पीजिये।"
कूलर की हवा में ठन्डा पानी पीने के उपरांत भगवान दास चाय-बिस्किट का आनन्द लेने लगे तो ऑफिस की थकन न जाने कहाँ गायब हो गई और उनके चेहरे पर अब सकून छलक रहा था। वातावरण में अजीब-सी शांति पसर गई थी।
"ये दीवार पर किनकी तस्वीरें टंगी हैं।" गायत्री ने अपने पति से प्रश्न किया।
"क्या बच्चों जैसा सवाल कर रही हो गायत्री? मेरे माँ-बाबूजी की तस्वीरें हैं।" कहते हुए भगवन दास के मनोमस्तिष्क में बाल्यकाल की मधुर स्मृतियां तैरने लगीं। कैसे भगवान दास पूरे घर-आँगन में धमा-चौक मचाते थे! माँ-बाबू जी अपने कितने ही कष्टों-दुखों को छिपाकर भी सदा मुस्कुराते थे।
"क्या आपको और आपके भाई-बहनों पालते वक़्त, आपके माँ-बाबूजी को परेशानी नहीं हुई होगी? अगर वो भी कहते हम थक गए हैं, जिम्मेदारियों को उठाते हुए। बच्चों के शोर-शराबे से तंग आ चुके हैं, तो क्या आज तुम इस काबिल होते, जो हो?" गायत्री ने प्रश्नों की बौछार-सी भगवान दास के ऊपर कर डाली, "और सारा दिन घर के काम-काज के बीच बच्चों के शोर-शराबे को मैं झेलती हूँ। यदि मैं तंग आकर मायके चली जाऊं तो!" गायत्री ने गंभीर मुद्रा इख़्तियार कर ली।
"अरे यार वो थकावट और तनाव के क्षणों में मुंह से निकल गया था।" मामला बिगड़ता देख, अनुभवी भगवान दास ने अपनी गलती स्वीकारी।
"अच्छा जी, कितनी सहजता से कह दिया आपके मुंह से निकल गया था!" गायत्री नाराज़ स्वर में ही बोली।
"अब गुस्सा थूको और तनिक मेरे करीब आकर बैठो।" चाय का खाली कप मेज़ पर रखते हुए भगवान दास बोले। फिर उसी क्रम को आगे बढ़ते हुए, बड़े ही प्यार से भगवान दास ने रूठी हुई गायत्री को मानते हुए कहा, "जिसकी इतनी खूबसूरत और समझदार बीबी हो, वो भला जिम्मेदारियों से भाग सकता है।" गायत्री के गाल पर हलकी-सी चिकोटी काटते हुए भगवान दास बोले।
"बदमाश कहीं के" गायत्री अजीबो-गरीब अंदाज़ में बोली। एक अजीब-सी मुस्कान और शरारत वातावरण में तैर गई।
1 टिप्पणियाँ
थकान और सुकून ये लघुकथा लाजवाब है.
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