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एक और वर्ष अलविदा हो रहा है और एक नया वर्ष चैखट पर खड़ा है। उम्र का एक वर्ष खोकर नए वर्ष का क्या स्वागत करें? पर सच तो यह है कि वर्ष खोया कहां? हमने तो उसे जीया है और जीकर हर पल को अनुभव में ढाला है। अनुभव से ज्यादा अच्छा साथी और सचाई का सबूत कोई दूसरा नहीं होता। सूर्य उदय होता है और ढल जाता है। शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष आते-जाते रहते हैं। कैलेण्डर बदल जाता है।
नए वर्ष की शुरुआत हमें ऐसे चैराहे पर ला खड़ा करती है जहां अतीत और भविष्य हमें साफ-साफ दीखते हैं। अतीत का सुख-दुःख, आरोह-अवरोह, लाभ-हानि, शुभ-अशुभ सभी कुछ कहीं न कहीं ऐसे मील के पत्थर रख जाते हैं कि इंसान यदि भीतर से जगा हुआ हो तो हर घटना, संदर्भ, निर्णय, सोच, शैली हमारे लिए नई सीख, ऊर्जा और प्रेरणा बनती है। लेकिन हम भीतर से जगे हुए कहा है? भ्रष्टाचार एवं कालेधन से निजात पाने के लिये लागू की गयी नोटबंदी के बावजूद हम नये वर्ष के स्वागत में अरबों रुपये उड़ा देंगे। एक बार फिर देश के आम मेहनतकश लोगों के लिए तो आने वाला नया साल हर बार की तरह समस्याओं और चुनौतियों के पहाड़ की तरह खड़ा है। आम मेहनतकशों और गरीबों के दुखों और आँसुओं के सागर में बने अमीरी के टापुओं पर रहने वालों का स्वर्ग तो इस व्यवस्था में पहले से सुरक्षित है, वे तो जश्न मनायेंगे ही। मगर अच्छे दिनों के इन्तजार में साल-दर-साल शोषण-दमन-उत्पीड़न झेलती जा रही देश की आम जनता आखिर किस बात का जश्न मनाये? क्यों जश्न मनाये? मेरा देश महान् के स्थान पर मेरा देश परेशान ही नजर आता है। गलतफहमियां पनपनी नहीं चाहिए, क्योंकि इसी भूमिका पर विरोधी विचार जन्म लेते हैं। गलत धारणाओं को मिटाने के लिए शत्रु को पीठ पीछे नहीं, आमने-सामने रखें।
कार्य की शुरुआत गलत नहीं होनी चाहिए। अन्यथा गलत दिशा में उठा एक कदम ही हमारे लिए अंतहीन भटकाव पैदा कर देगा। यदि हम कार्य की योजना, चिंतन और क्रियान्विति यदि एक साथ नहीं करेंगे तो वहीं के वहीं खड़े रह जायेंगे जहां एक वर्ष पहले खड़े थे। क्या हमने निर्माण की प्रक्रिया में नए पदचिन्ह स्थापित करने का प्रयत्न किया? क्या ऐसा कुछ कर सके कि ‘आज’ की आंख में हमारे कर्तृत्व का कद ऊंचा उठ सका? आज भी लम्बे-चैड़े वादों और तरह-तरह की घोषणाओं के बावजूद देश के लगभग आधे नौजवान बेकारी में धक्के खा रहे हैं या फिर औनी-पौनी कीमत पर अपनी मेहनत और हुनर को बेचने पर मजबूर हैं? महाशक्ति बनने का दावा करने वाले इस देश की औरतें- बालिकाएं आए दिन बलात्कार, व्यभिचार एवं शोषण की शिकार हो रही है। लगभग 50 फीसदी स्त्रियाँ खून की कमी और 46 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, भूख और कुपोषण के कारण लगभग 7000 बच्चे रोजाना मौत के मुँह में समा जाते हैं। बजट का 90 फीसदी अप्रत्यक्ष करों द्वारा आम जनता से वसूला जाता है लेकिन आजादी के 70 वर्षों बाद भी स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास, पानी, बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं से भी आम जनता वंचित है। प्रान्तीयता, जातीयता और राजनीति के नाम पर लोगों को आपस में लड़ाने का गन्दा खूनी खेल गुजरे साल में नयी नीचताओं तक पहुँच गया? इसलिए जश्न मनाने का नहीं, संकल्पित होने और शपथ लेने का अवसर है कि भविष्य में ऐसा कुछ नहीं करेंगे जो हमारे, उद्देश्यों, उम्मीदों, उमंगों और आदर्शों पर असफलता का प्रश्नचिन्ह लगा दें।
नया वर्ष हर बार नया संदेश, नया संबोध, नया सवाल लेकर आता है कि बीते वर्ष में हमने क्या खोया, क्या पाया? पर जीवन की भी कैसी विडम्बना! तीन सौ पैंसठ दिनों के बाद भी हम स्वयं से स्वयं को जान नहीं पाये कि उद्देश्य की प्राप्ति में हम कहां खड़े हैं? तब मन कहता है कि दिसम्बर की अंतिम तारीख पर ही यह सवाल क्यों उठे? क्या हर सुबह-शाम का हिसाब नहीं मिलाया जा सकता कि हमने क्या गलत किया और क्या सही किया? उद्देश्य के आईने में प्रतिबिम्बों को साफ-सुथरा रखा जाए तो कभी जीवन में हार नहीं होती। आंख का कोण बदलते ही नजरिया बदलता है, नजरिया बदलते ही व्यवहार बदलता है और व्यवहार ही तय करता है कि आप विजेता बनते हैं या फिर खाली हाथ रहते हैं। इसलिये नया साल जश्न मनाने का नहीं, नजरिया बदलने का अवसर है। आबिद सुरती उम्र के 80वें साल में यदि पानी की बर्बादी को रोकने के लिये संकल्पित हो सकते हंै और इसने लिये वे ठाणे जिले के मीरा रोड के 1666 घरों में जाकर 414 लीक हो रहे नलों को बिना एक पैसे लिए ठीक कर सकते हैं और लगभग 4.14 लाख मीटर पानी को वेस्ट होने से बचा सकते हैं तो हम देश की ऐसी ही अनेक अन्य तरह की बर्बादियों पर अंकुश लगाने के लिये क्यों नहीं आगे आते? सवाल दरअसल जिंदगी में अलग-अलग रूपों में आने वाली समस्याएं हैं, जिन्हें आप किस नजर से देखते हैं, उन्हें कैसे हैंडल करते हैं, इस पर निर्भर करता हैं कि आप चीजों को और घटनाओं को किस नजरिए से देखते हैं।
हमारे लोकतंत्र पर पूँजीवादी लोकतंत्र होने का तमगा लगा है और सच्चाई भी यही है कि सारी सरकारें वास्तव में इन्ही देशी-विदेशी लुटेरों की मैनेजिंग कमेटी के रूप में काम करती हैं। चाहे जिस पार्टी की सरकार सत्ता में आ जाये, धन्नासेठों के हितों में कोई आँच नहीं आती। नोटबंदी ने क्या बिगाड़ दिया इन धन्नासेठों और कालाबाजारियों का? सभी चुनावी पार्टियों के चुनाव का खर्च बड़े-बड़े धनकुबेर उठाते हैं। देश के सांसदों पर पाँच साल में लगभग 16 अरब 38 करोड़ रुपये खर्च किये जाते हैं, संसद की एक मिनट की कार्यवाही में ढाई लाख रुपये का खर्च आम जनता अपना पेट काटकर चुकाती है और वहाँ होता क्या है? नोटबंदी के दौरान एक पूरा लोकसभा एवं राज्यसभा का शीतकालीन सत्र बिना किसी कार्रवाही के शोर-शराबे के हवाले हो गया। किसको इसका अहसास है? कौन जिम्मेदार है इस 30 दिनों की बर्बादी के लिये?
नरेन्द्र मोदी के 10 करोड़ रोजगार देने और ‘मेक इन इंडिया’ जैसे जुमलों के बावजूद सच्चाई यही है कि चपरासी के 368 पदों के लिए 23 लाख से भी ज्यादा नौजवान आवेदन करते हैं जिनमें पीएच.डी. और एमबीए के डिग्रीधारक भी शामिल हैं। एम.ए. और बी.एससी. किये हुए नौजवान लेबर चैक पर अपने आप को बेचते हुए मिल जायेंगे! स्टार्टअप के नाम पर 10 हजार करोड के फण्ड बना देने या ऐसी ही योजनाओं का क्या लाभ जो योजना योजना ही बनी रहती है, उसकी क्रियान्विति नहीं होती। हर मंत्रालय के पास करोड़ों के फण्ड है, जो बिना उपयोग के ही पड़े रह जाते हैं। इसके लिये नीतियां दोषी है या फिर मंत्री नकारे है।
न्याय एवं समतामूलक समाज निर्माण के नारों का क्या? देश के दस प्रतिशत अमीर लोगों ने कुल सम्पत्ति के 76.3 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा किये हुए हंै। उनकी कमाई लगातार बढ़ती जा रही है जिसे उद्योग, शेयर मार्केट, मनोरंजन उद्योग आदि क्षेत्रों में लगाकर मुट्ठीभर लोग बेहिसाब मुनाफा बटोर रहे हैं। एक ओर मुकेश अम्बानी है जिसके 6 लोगों के परिवार के लिए 2700 करोड़ की लागत से बना मकान है और दूसरी ओर पूरे देश में 18 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हैं और 18 करोड़ लोग फुटपाथों पर सोते हैं। देश की ऊपर की तीन फीसदी और नीचे की 40 प्रतिशत आबादी की आमदनी के बीच का अन्तर आज 60 गुना हो चुका है। सिर्फ सरकारों के बदल जाने से समस्याएं नहीं सिमटती। अराजकता, भ्रष्टाचार और अस्थिरता मिठाने के लिये सक्षम नेतृत्व चाहिए। उसकी नीति और निर्णय में निजता से ज्यादा निष्ठा चाहिए। अन्यथा एक भ्रष्टाचार को मिटाने के नाम पर नये भ्रष्टाचार को जन्म देते रहेंगे, जैसाकि नोटबंदी के दौरान बैंकों का भ्रष्टाचार उभरा है। सिर से पाँव तक सड़ चुकी व्यवस्थाओं को बदलना और चारों ओर लूट-खसोट, अन्धी प्रतिस्पद्र्धा, अपराध, शोषण-दमन-उत्पीड़न, अमानवीयता और भयंकर गैर-बराबरी से निजात दिलाना ही नये वर्ष का वास्तविक संकल्प हो सकता है।
च्युइंगम बेचने के रास्ते से होता हुआ दुनिया का सबसे अमीर आदमी बनने वाला बुफेट अपनी सारी कमाई, सारी पूंजी एक क्षण में दान कर सकता है, तो हमारी राजनीति में अपने स्वार्थों का त्याग कर देश निर्माण करने वाले लोग क्यों नहीं आगे आते? बुफेट के पास जितना काम करने का माद्दा है, उतना ही उसे समाज के लिए दे देने का भी। भूटान का उदाहरण हमारे सामने हैं। वहां के लोग खुशमिजाज माने जाते हैं। आखिर क्यों? क्योंकि वे अपना पैसा हथियार खरीदने पर खर्च नहीं करते, बल्कि एजुकेशन पर इसे खर्च करते हैं। एजुकेशन का मतलब यहां पर डाॅक्टर, इंजीनियर, टीचर बनाने वाली फैक्टरी कतई नहीं है, बल्कि वहां स्कूल से लेकर काॅलेज तक स्टूडेंट्स को मानवीय मूल्यों के बारे में नैतिकता और चरित्र के बारे में पढ़ाया था, और यह भी कि मौत जिंदगी का असल सत्य है और उससे भी बड़ा सत्य यह है कि जीवन के खत्म होने से पहले हम इसे जी लें। ये भी कि हथियारों से कुछ हासिल नहीं होता, कुछ भी नहीं। हम तो अहिंसा, नैतिकता एवं ईमानदारी की केवल बातें करते हैं, इनसे राजनीतिक या व्यक्तिगत लाभ उठाते हैं, कुछ तो शुभ शुरुआत करें। क्यांेकि गणित के सवाल की गलत शुरुआत सही उत्तर नहीं दे पाती। गलत दिशा का चयन सही मंजिल तक नहीं पहुंचाता। दीए की रोशनी साथ हो तो क्या, उसे देखने के लिये भी तो दृष्टि सही चाहिए। वक्त मनुष्य का खामोश पहरुआ है पर वह न स्वयं रुकता है और न किसी को रोकता है। वह खबरदार करता है और दिखाई नहीं देता। इतिहास ने बनने वाले इतिहास के कान में कहा और समाप्त हो गया। नये इतिहास ने इतिहास से सुना और स्वयं इतिहास बन गया। बेशक, हर नया साल इन सम्भावनाओं से भी भरा हुआ होता है कि हम इस तस्वीर को बदल डालने की राह पर आगे बढ़ें। लेकिन अगर हम बस हाथ पर हाथ धरकर ऐसे ही बैठे रहेंगे और अपनी दुर्दशा के लिए कभी इस कभी उस पार्टी को कोसते रहेंगे या उनके बहकावे में आकर एक-दूसरे को अपनी हालत के लिए दोषी मानते रहेंगे तो सबकुछ ऐसे ही चलता रहेगा, जैसे पिछले सात दशकों से चल रहा है। हर घटना स्वयं एक प्रेरणा है। अपेक्षा है जागती आंखों से उसे देखने की और जीवन को नया बदलाव देने की।
5 टिप्पणियाँ
व्यक्तिगत तौर पर हम में से अधिकांश जन शासकीय व्यवस्था को कोसते रहते हैं, किंतु उसमें बदलाव लाने के लिए कोई आंदोलन नहीं छेड़ते हैं या वैकल्पिक मार्ग ढूंड़ते है। मैं मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था को नकारता हूं क्यों कि इसमें बहुदलीय व्यवस्था है जिसमें दलों की कार्यपद्धति पर कोई नियंत्रण रहता है, न उनमें आंतरिक लोकतंत्र है और न हे उनके कोई सिद्धांत रहते है। सबका एक ही मकसद रहता है: पांच वर्ष के लिए सत्ता हिथियाना जिसके लिए हर हथकंडा जायज माना जाता है। क्या कारण है कि हर समस्या के लिए अंततः न्यायालय की शरण में जाना पड़्ता है? क्या कारण है कि शासन चला रहे प्रतिनिधि अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं करते?
जवाब देंहटाएंदुर्भाग्य यह है कि न जनता और न ही राजनेता लोकतंत्र में अपने कर्तव्यों को समझते हैं। मतदान करने के पीछे लोगों का इरादा सही दल/जनप्रतिनिधि चुनना नहीं होता।
मैं मतदान करता हूं, किंतु किसी प्रत्यासी को मत नहीं देता , क्योंकि जीतने के बाद वह हमारा नहीं बल्कि अपने दल का प्रतिनिधित्व करता है। कोई दल बतायें जो साफ-सुथरा हो। तब किसे? मैं तो नोटा (NOTA) का हिमायती हूं क्योंकि अपना विरोध जताने का यह सीधा रास्ता है। नोटा से पहले दूसरा कोई तरीका अपनाता था।
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