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ढोलकल डायरी [यात्रा वृतांत] {भाग - ६} - राजीव रंजन प्रसाद



एक पल में ही मैं सारी थकान भूल गया था। यह सर्वोच्च शिखर था और यहाँ से सामने दूर दूर तक केवल हरीतिमा दिखाई पड़ती थी। मेरे ठीक सामने ऐतिहासिक महत्व की वह प्रतिमा विद्यमान थी जो अब पुनर्निर्माण का प्रतीक बन गयी है। उस बस्तर का प्रतीक जिसे कोई विद्ध्वंसकारी ताकत नहीं तोड़ सकती। उस बस्तर का प्रतीक जिसने विचारधाराओं के हथौडों से विद्रूप होने के बाद भी मिटना नहीं सीखा। बारह सौ साल का समय कोई कम नहीं होता और इसपर हथौड़ा चलाने वाली मानसिकता निश्चय ही बामियान वाली थी। ऐतिहासिक महत्व की प्रतिमाओं को धर्म से जोडने वालों को इतना ही उत्तर क्या काफी नहीं कि इस स्थान तक मुझे पहुँचाने में सहायक दो मजबूत कंधे थे भाई फिरोज नवाब और भाई वसील खान के। कितना भव्य है यह ढोल के आकार का पर्वत और यह सवाल निश्चय जी सामने खड़ा होता है कि वे कौन लोग थे जिन्होंने इस स्थान पर ऐसी भव्य निर्मितियाँ की हैं। बस्तर में नाग शासकों का शासन समय 760 ई. – 1324 ई. तक रहा है। इस अंचल में अब तक प्राप्त जो भी भव्यतम है वह नाग शासकों की ही निर्मितियाँ हैं। यह ढोलकल तो कल्पनाशीलता के आयाम ही समुपस्थित करता है। इस ऊँचाई पर प्रतिमा का निर्माण वस्तुत: गौरव स्तम्भ के रूप में ही हुआ होगा। यह शिखर दूर दूर से दिखाई पड़ता है तथा इस स्थान पर पहुँच कर बैलाडिला पर्वत श्रंखला सहित सुदूर मैदानों तक दृष्टिगोचर होता है।


पुरातत्वविद प्रभात सिंह को पुन: पुन: धन्यवाद देने का यह अवसर था क्योंकि बहुत बारीकी से लगभग सत्तर टुकडों में प्राप्त इस प्रतिमा को जोड़ा गया है। चूंकि इस प्रतिमा के पहले चित्र प्राप्त होने के पश्चात से ही मैने देखा-विश्लेषित किया है अत: यह चिन्हित करने में मुझे अधिक असुविधा नहीं हुई कि प्रतिमा के कौन से हिस्से हमेशा के लिये नष्ट हो गये, उदाहरण के लिये सूँड की गोलाई जिसका आखिरी सिरा मोदक तक जाता था। प्रतिमा का यह हिस्सा प्राप्त ही नहीं हुआ था अत: जोडा नहीं जा सका। प्रतिमा के बायें पैर का अंगूठा बहुत ही कलात्मक मुद्रा में हुआ करता था किंतु उसे पुराना स्वरूप नहीं दिया जा सका। प्रतिमा को सुरक्षा प्रदान करने के दृष्टिगत शिखर में ही थोडा से हिस्से की खुदाई कर तल वाले हिस्से को नीचे फसा कर जोड दिया गया है। इससे प्रतिमा की उँचाई कम हो गयी है तथा मूषक अब विनायक के साथ नहीं रह गया है। तथापि जो बात बहुत गर्व के साथ कही जा सकती है वह यही कि छत्तीसगढ के पास ऐसे पुरातत्वविद हैं जो कम से कम समय में भी कठिनतम संरक्षण के कार्य को संभव बना सकते हैं।

रचनाकाररचनाकार परिचय:-

राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।

राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।

राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।
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शिखर पर पहुँच कर हमारा कार्य पूरा नहीं हुआ था। हम इस शिखर से अपना राष्ट्रध्वज लहराना चाहते थे। हम इस संदेश को व्यापक बनाना चाहते थे कि पुरातात्विक धरोहरें सभी की साझा हैं और उसपर विधारधारा अथवा विद्वेष के हथौड़े बर्दाश्त नहीं किये जायेंगे। राष्ट्रध्वज की शान तथा उससे जुड़ी भावनाओं का अहसास आपको गर्व के इन्हीं पलों में सर्वाधिक होता है। तिरंगे को सम्मान के साथ खोलते ही हमारी रगों में जोश कई गुना हो गया था। तिरंगे को लहराये जाने के साथ साथ हमारा उमंग आसमान की अनंत ऊंचाईयों पर था। कितनी स्वत: स्फूर्त थी यह भावना कि हम सावधान की मुद्रा मे आये और हम सबने मिलकर राष्ट्रगान आरम्भ किया। राष्ट्रगान ढोलकल की ऊँचाईयों से दूर दूर तक निश्चित ही सुनाई दे रहा होगा। हमारी मनोभावनाओं को ढोलकल की पहाडी ने भी पूरी दृढता से सुना और महसूस किया यहाँ तक कि जब राष्ट्रगान के पश्चात नारे गुंजायित होने लगे तो उसकी प्रतिध्वनि भी हम तक उसी उर्जा से वापस पहुँची। राष्ट्रध्वज के साथ इस शिखर पर तस्वीरे लेना हमारे लिये भी वैसा ही गर्व-कारक था जैसा किसी शिखर को विजित करने के पश्चात हमारे जवानों की अनुभूति होती होगी। हम कुछ देर शिखर पर रुके, ढोलकल के संरक्षण पर विमर्श किया, एक दूसरे को इस अभियान को परिणति तक पहुँचाने के लिये बधाई दी।


हमारे कुछ साथी इस बात से चिंतित भी दिखे कि हमें शिखर से नारे लगाने की आवश्यकता नहीं थी तथा इस क्षेत्र में विद्यमान नक्सल खतरे को देखते हुए यह आ बैल मुझे मार जैसा ही कृत्य था। तथापि अधिकतम साथियों की यही राय थी कि हमारी निर्भीकता ही हमारा वास्तविक संदेश है। शिखर पर तिरंगा लहराने के जो सांकेतिक मायने हैं वे व्यापक हैं। शिखर से नीचे उतरना इसपर चढने से अधिक खतरनाक था। बहुत सावधानी से अपितु लगभग हर पत्थर पर बैठ बैठ कर ही मैं इस शिखर से नीचे उतर सका। यहाँ से लौटने की यात्रा आरम्भ हुई। चूंकि लक्ष्य हासिल हो गया था अत: लौटते हुए छ: किलोमीटर की यात्रा बड़ी लगने लगी। हर कुछ दूरी पर चलने के पश्चात लगता कि रास्ता समाप्त ही नहीं हो रहा है। इस समय तक हमारे पास पानी की एक बूंद भी शेष नहीं थी। रुकते-बैठते और अपनी थकान से जूझते हम ढलान उतरते रहे। जब तक ढोलकल शिखर दिखाई पड़ता रहा, मैं उसे पीछे मुड़-मुड कर देखता रहा और अभिभूत होता रहा। मंजिल से लगभग दो किलोमीटर पहले अंतत: एक पहाड़ी नाले ने राहत दी और सूखे हुए कंठों को तरलता हासिल हुई। सिर और चेहरे पर पानी डालने के पश्चात अखिरी के दो हजार मीटर और चलने का साहस मिल सका। अंतत: एक उपलब्धि भरी अविस्मरणीय यात्रा सम्पन्न हुई। काश कि हमारा उद्देश्य और संदेश भी व्यापक हो...।












..... शेष अगले अंक में।

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