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ढोलकल डायरी [यात्रा वृतांत] {भाग - १} - राजीव रंजन प्रसाद

   

बस्तर में इतिहास का अर्थ बारसूर अथवा नारायणपाल तथा पर्यटन का अर्थ चित्रकोट अथवा कोटुम्सर हुआ करता था। अचानक एक दिन जानकारी प्राप्त होने के पश्चात दक्षिण बस्तर के युवा पत्रकार बाप्पी रे ने ढोलकल शिखर तक के यात्रा की और वहाँ से खींची गयी कुछ तस्वीरें सार्वजनिक कर दीं। इन तस्वीरों में नवीं-दसवीं सदी की एक भव्य गणेश प्रतिमा थी। जहाँ यह प्रतिमा स्थापित दिखाई पड़ रही थी वह कोई आम परिवेश प्रतीत नहीं होता था। चारो ओर सघन वन मध्य में एक सीधी खड़ी पहाड़ी जिसके एक हिस्से का आकार किसी ढोल की भांति था, उसके शीर्ष पर गणपति विराजित थे। बिलकुल अनछुवा स्थल था, बहुत सीमित लोगों को ही इसकी जानकारी थी इसलिये जैसे ही तस्वीरें मीडिया में आयीं हलचल मच गयी। परिवेश और प्रतिमा दोनो ही ऐसी थीं कि उसे देखने वाला मंत्रमुग्ध हो जाये। धीरे धीरे ढोलकल शिखर तथा यहाँ विराजित इस प्रतिमा ने बस्तर के इतिहास और पर्यटन का स्वय को पर्यायवाची बना लिया।

रचनाकाररचनाकार परिचय:-

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।

राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।

राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।

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आश्चर्य होता है कि यह स्थल अब तक गुमनाम क्यों था? यद्यपि लगभग अस्सी वर्ष पहले अंग्रेज भूवैज्ञानिक क्रूकशैंक ने पहली बार ढ़ोलकल स्थल का जिक्र "जियोलॉजिकल रिपोर्ट ऑफ साउथ बस्तर" में किया था। उनके अनुसार दो समानांतर पहाड़ियाँ हैं जिनका आकार एक खड़े ढ़ोल की तरह है। एक पहाड़ी के शिखर पर गणेश प्रतिमा अवस्थित थी तो दूसरी पर वर्तमान में भग्नावशेष है जिसका जिक्र क्रूकशैंक ने सूर्य मंदिर के रूप में किया था। सूर्य प्रतिमा अब यहाँ उपलब्ध नहीं है। संभवत: ढ़ोलकल अपने इर्दगिर्द घिरे घने जंगलों और दुर्गमतम रास्तों के कारण लोगों की निगाह से बच गया। नक्सली आतंकवाद के दौर में ग्रामीणों ने भी इस स्थल पर पूजा पाठ करना छोड़ दिया और ढ़ोलकल भुला दिया गया। यह स्थान जैसे ही पुन: उजागर हुआ इसकी विशेषतओं ने एकाएक पर्यटकों के लिये चुम्बक का काम करना आरम्भ कर दिया।

दक्षिण बस्तर में गणेश प्रतिमाओं की भरमार है। नाग शासकों की इन निर्मितियों में इतने अधिक तथा इतनी भांति की गणेश प्रतिमायें हैं कि अध्येता एक दौर में यहाँ गाणपत्य समुदाय के प्रमुखता से प्रसारित होने की मान्यता रखते हैं। दिवंगत आदिवासी नेता महेन्द्र कर्मा से दंतेवाड़ा में हुई मुलाकात के दौरान उनसे ढ़ोलकल पर चर्चा हुई थी। उन्होंने इस स्थल में प्रचलित एक किंवदंती के विषय में बताया जिसके अनुसार गणेश-परशुराम युद्ध के बाद गणेश जी के एक दाँत के कट जाने सम्बन्धी मान्यता यहाँ से जोड़ी जाती है। तथापि ढोलकल की गणेश प्रतिमा विशिष्ठ है। ढाई फिट ऊँची गणेश प्रतिमा वास्तुकला की दृष्टि से अत्यन्त कलात्मक है। प्रतिमा में ऊपरी दांये हाथ में परशु, ऊपरी बांये हाथ में टूटा हुआ एक दंत, नीचे का दायाँ हाथ अभय मुद्रा में अक्षमाला धारण किए हुए तथा निचला बायाँ हाथ मोदक धारण किए हुए विद्यमान है। पर्यंकासन मुद्रा में बैठे हुए गणपति की सूँड़ बायीं ओर घूमती हुई शिल्पांकित है। प्रतिमा के उदर में सर्प लपेटे हुए तथा जनेऊ किसी सांकल की तरह धारण किये हुए अंकित हैं। गणपति की जनेऊ के रूप में सांकल का चित्रण सामान्य नहीं है। इस प्रतिमा में पैर एवं हाथों में कंकण आभूषण के रूप में शिल्पांकित तथा सिर पर धारित मुकुट भी सुंदर अलंकरणों से सज्जित है। वस्तुत: यह बस्तर में प्राप्त गणेश की भव्यतम प्रतिमा है।

तो फिर ढोलकल का ध्वंस क्यों किया गया था? वो कौन थे जिन्होंने इस गणेश प्रतिमा को लगभग तीन हजार फिट की ऊँचाई से धकेल कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया था? वह क्या मानसिकता थी जिसने प्रतिमा को धकेलने से पहले उसकी गर्दन के निकट किसी भारी वस्तु से प्रहार किया था? क्या इस प्रतिमा को नष्ट किये जाने के पीछे कोई षडयंत्र था, कोई समाजशास्त्रीय कारण, कोई धार्मिक असहिष्णुता, विचारधारा का विद्वेष अथवा केवल शरारत के लिये किया गया कृत्य? ढोलकल प्रतिमा के ध्वंस और फिर उसके पुनर्निर्माण तक का एक एक पहलू समुचित विवेचना की मांग करता है।

..... शेष अगले अंक में.....  


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2 टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छा लगा ।
    अगली भाग की प्रतीक्षा मे भैठे है ।

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  2. मेरी जानकारी में क्रुकसेंग ने इस इलाके में प्राचीन प्रतिमाएँ होने का जिक्र किया है, किस देवता की प्रतिमाएँ हैं यह नहीं बताया है। बाकी बढिया शुरुवात।

    जवाब देंहटाएं

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