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बस्तर यात्रा वृतांत श्रंखला, आलेख - 16 वीराने में ब्रम्हा का मंदिर- [यात्रा वृतांत] - राजीव रंजन प्रसाद

रचनाकाररचनाकार परिचय:-

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।

राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।

राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।

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वीराने में ब्रम्हा का मंदिर - राजीव रंजन प्रसाद

जो अविश्वसनीय और अकल्पनीय हो वह बस्तर में अवश्य संभव होता है। माना जाता है कि ब्रम्हाजी का मंदिर भारत में केवल पुष्कर में ही अवस्थित है, संभवत: इसीलिये बीजापुर जिले के छोटे से गाँव मिरतुर के बाहरी छोर पर एक पेड़ के नीचे पुरातात्विक महत्व की ब्रम्ह देव की प्रतिमा अन्य अनेक प्रतिमाओं के साथ प्राप्त हुई है। ब्रम्हाजी की प्रतिमा का मिलना इतना महत्व का समझा गया कि उन्हें अन्य प्राप्त अवशेषों से अधिक प्राथमिकता दी गयी है। यह भी उल्लेख करना चाहूंगा कि प्रतिमा के तौर पर सृष्टि के निर्माता माने जाने वाले ब्रम्हा की अनेक एकलमूर्तियाँ देश में अन्यत्र भी मिलती हैं उदाहरण के लिये कर्नाटक के सोमनाथपुरा में बारहवीं शताब्दी के चेनाकेस्वा मंदिर में ब्रह्मा की मूर्ति। अनेक देवस्थानों में ब्रम्हा-विष्णु-महेश की एक साथ प्रतिमायें प्राप्त होती हैं और मिरतुर में भी वही वस्तुस्थिति है। मिरतुर में प्राप्त प्रतिमाओं के पृष्ठ भाग में एक लाल रंग का परिचय बोर्ड लगा हुआ है जिसमे खोजकर्ता के रूप में भैरमगढ में तहसीलदार के पद पर पदस्थ रहे रामविजय शर्मा का नाम उल्लेखित है, साथ ही मंदिर के पुजारी बैसाखू राउत का नाम भी बोर्ड पर लिखा गया है। इस बोर्ड पर ही बहुत बडे बडे अक्षरों में लिखा हुआ है ब्रम्हाजी का मंदिर।

यह स्थान मंदिर होने की कोई आहर्ता पूरी नहीं करता। एक विशाल वटवृक्ष के नीचे क्रमश: अनेक प्रतिमायें खुले में एक चबूतरे के उपर रखी हुई हैं। पहली प्रस्तर पट्टिका सप्तमातृकाओं की है जो आंशिक खण्डित है। इस पट्टिका में छ: मातृकायें एवं गणेश ही दृष्टिगोचर होते हैं। इसके पश्चात क्रमश: ब्रम्हा विष्णु तथा महेश की प्रतिमायें है जिससे लग कर एक घुडसवार योद्धा की प्रतिमा है। योद्धा के हाथ में भाला है किन्तु उसका शीष खण्डित है। इसके साथ ही लग कर दोनो हाथों में कमल थामे सूर्य प्रतिमा रखी हुई है। सामने की ओर लगभग खण्डित अवस्था में एक अलंकृत नंदी को भी देखा जा सकता है। इन सबको सम्मिलित रूप से देखने पर इस स्थान को केवल ब्रम्हाजी का मंदिर कहना सही व्याख्या नहीं लगती। यहाँ स्थित ब्रम्हा विष्णु तथा शिव की प्रतिमायें समान आकार-प्रकार ही हैं एवं एक ही शैलीगत स्मानता के साथ उनका निर्माण हुआ है। यह सहज अनुमान लग जाता है कि वे किसी ऐसे मंदिर का हिस्सा हैं जहाँ एक साथ ही ब्रम्हा-विष्णु-महेश की इन प्रस्तराकृतियों को एक साथ ही रखा गया था। बहुत कम प्रतिमायें अथवा मंदिर देश में होने की मान्यताओं के कारण इस स्थान की ख्याति को विशेषरूप से खोजकर्ताओं द्वारा ब्रम्हाजी का मंदिर कह कर प्रचारित किया गया है।

यहाँ प्राप्त सभी प्रतिमाओं में केवल ब्रम्हा जी मूर्ति अखण्डित है। प्रतिमा में ब्रम्हा जी अपने दाढी वाले स्वरूप में हैं तथा खड़े हुए हैं। विष्णु तथा शिव की प्रतिमायें अपने मध्य भाग से आर-पार खण्डित अवस्था में यहाँ रखी हुई हैं। भगवान शिव की प्रतिमा पूर्णत: नग्न अवस्था में है। भगवान शिव के लकुलिश अवतार से इस प्रतिमा को सम्बंधित माना जा सकता है तथा ऐसा होने की स्थिति में न केवल प्राप्त शिव प्रतिमा की महत्ता बढती है अपितु अध्येताओं के लिये इस स्थान की अभिरुचि में और भी अभिवृद्धि होती है। लकुलीश को भगवान शिव का चौबीसवां अवतार माना गया है तथा इन्होंने पाशुपत शैव धर्म की स्थापना की थी।

जिस चबूतरे पर ये प्रतिमायें रखी हुई हैं वहाँ फर्श में दूर तक कुछ जलाये जाने की प्रतीति होती है। स्थानीय जो हमारे साथ मिरतुर गाँव से ही मार्गदर्शन के लिये आये थे उन्होंने बताया कि किसी बात से आक्रोशित हो कर नक्सलियों ने इस स्थान पर आग लगा दी थी। आग से पत्थर की प्रतिमाओं को तो कुछ होना नहीं था, बहुत संभव है कि धार्मिक आस्थाओं पर चोट करने के उद्देश्य से भी ऐसी गतिविधियाँ सम्पादित की गयी हों। कारण जो भी हो लेकिन अब स्पष्टत: देखा जा सकता है कि मिरतुर गाँव बदलने लगा है। दंतेवाड़ा को जोडती हुई एक चौड़ी सड़क इस गाँव से हो कर गुजरने लगी है, निर्माण कार्य बहुत ही तीव्रता से चल रहा है। इसका प्रभाव यह भी देखने को मिला कि इस क्षेत्र में नक्सल गतिविधियाँ बहुत हद तक कम हुई हैं।

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3 टिप्पणियाँ

  1. राजीव रंजन प्रसाद, बस्तर यात्रा वृतांत श्रंखला, आलेख - 16 का वीराने में ब्रम्हा का मंदिर यह यात्रा वृतांत बहुत बढ़िया आर्टिकल

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  2. बेहतरीन और ज्ञान वर्धक भैया

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  3. बेहतरीन और ज्ञान वर्धक भैया

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