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घिसी-पिटी फ़िल्में- खंड ९ [मारवाड़ी हास्य-नाटक]- दिनेश चन्द्र पुरोहित


 दिनेश चन्द्र पुरोहित रचनाकार परिचय:-





लिखारे दिनेश चन्द्र पुरोहित
dineshchandrapurohit2@gmail.com

अँधेरी-गळी, आसोप री पोळ रै साम्ही, वीर-मोहल्ला, जोधपुर.[राजस्थान]
मारवाड़ी हास्य-नाटक  [घिसी-पिटी फ़िल्में] खंड लेखक और अनुवादक -: दिनेश चन्द्र पुरोहित

[मंच रोशन होता है, जोधपुर स्टेशन का मंज़र सामने दिखाई देता है ! प्लेटफोर्म पर लगी घड़ी आठ बजकर पैंतीस मिनट का वक़्त बता रही है ! भले सुबह का वक़्त है, मगर गर्मी कम होने का नाम नहीं ! रशीद भाई बैग थामे प्लेटफोर्म नंबर एक पर आते हैं, वहां से पुलिया पर नज़र डालते हैं ! पुल पर सावंतजी, सुनील बाबू, ठोकसिंहजी, दयाल साहब वगैरा एम.एस.टी. होल्डर्स खड़े हैं ! वे वहां खड़े-खड़े पाली जाने वाली गाड़ी का इंतज़ार कर रहे हैं ! रशीद भाई इन लोगों को देखते ही, झट सीढ़ियां चढ़कर पुलिये पर आ जाते हैं ! उन लोगों के पास आकर, वे सावंतजी के पास खड़े हो जाते हैं ! अब गर्मी नाक़ाबिले बर्दाश्त होती जा रही है, अब सावंतजी कमीज़ के बटन खोलते हैं ! फिर, वे कहते हैं]

सावंतजी – [कमीज़ के बटन खोलते हुए, कहते हैं] – रसायनिक पाउडर से होली खेलते-खेलते, भिष्ठ मिल गए यार ! ना तो घर के रहे, और ना घाट के रहे ! अब तो मेरे भाई, घिसी-पिटी फ़िल्में बनकर रह गए ! क्या करें, यार ? अब तो भय्या, किसी काम के ना रहे !

[रशीद भाई सर से टोपी हटाकर, ज़ब्हा पर छाये पसीने के एक-एक कतरे को रुमाल से साफ़ करते हैं ! फिर, वे कहते हैं]

रशीद भाई – [ज़ब्हा पर छाये पसीने को साफ़ करके, कहते हैं] – मर्ज़ बढ़ता जा रहा है, जनाब ! अब क्या कहूं, आपको ? अब थोड़ी-थोड़ी देर में, उठ जाता है ! पहलू में खड़े सुनील बाबू की एक आदत खोटी, हर वक़्त कुछ न कुछ दूअर्थी संवाद बोलने की ! अब वे रशीद भाई की बात सुनते ही, झट बोल उठते हैं]

सुनील बाबू – रशीद भाई, इस उम्र में मत उठाओ यार ! चाची को तक़लीफ़ होगी !

रशीद भाई – और किसको तक़लीफ़ होगी, मेरे भाई ? मेरा उठ गया, तब मुझे ही देखना होगा ! या फिर तक़लीफ़ होगी, मेरे जीवन साथी को !

[रशीद भाई रहे, बीरबल की तरह हाज़िर-जवाबी ! उनको सुनील बाबू क्या जवाब दे पाते ? तब बेचारे बात का मुद्दा बदलने के लिए, घड़ी देखते हुए कहते हैं]

सुनील बाबू – गाड़ी जाने का वक़्त हो रहा है, मगर फुठरमलसा नज़र क्यों नहीं आ रहे हैं ?

[फुठरमलसा को नहीं देखे, दो दिन बीत गए हैं ! बुजुर्गों का कहना है, “एक काणे का दिल दूसरे काणे के बिना, नहीं लगता..चाहे पास में बैठने पर दोनों झगड़ा ही करते हो !” इसी कारण अब दयाल साहब का दिल, फुठरमलसा को देखे बिना नहीं लगता ! इस कारण वे प्रवेश-द्वार पर, नज़रें गढ़ाये खड़े हैं !]

दयाल साहब – [प्रवेश-द्वार को देखते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – वह आ रहा है, तुम्हारा फुठरमल !

[सभी की निग़ाहें, प्रवेश द्वार पर गिरती है ! वहां वे देखते हैं, “जी.आर.पी. का दस्ता कई आदमियों को हिरासत में लेकर आ रहा है, उन आदमियों में गोमिया दिखाई देता है ! जिसके हाथों पर हथकड़ी लगी हुई है ! वह चार क़दम आगे चलते फुठरमलसा को देखकर, उन्हें आवाज़ लगा बैठता है !]

गोमिया – [ज़ोर से चिल्लाता हुआ, फुठरमलसा को आवाज़ देता है] – ओ फुठरमलसा ! मुझे आकर, बचाओ ! [पुलिस के हवलदार की ओर देखते हुए कहता है] हुज़ूर ! मैं गुनाहगार नहीं हूं ! आपको भरोसा नहीं हो तो, आप आगे चल रहे काली सफारी पहनने वाले साहब से पूछ लीजिये ! [फुठरमलसा की तरफ़ अंगुली का इशारा करता है] हुज़ूर, वे मुझे जानते हैं !

[इतना कहकर, वह फुठरमलसा को एक बार और आवाज़ देता है ! उसके बोलने से हवलदार का ध्यान भंग हो जाता है, जिस बीड़ी को वह फूंक रहा है..वह नीचे गिर जाती है ! यह बीड़ी बण्डल की अंतिम बीड़ी थी, जिसका पूरा कश वह बेचारा ले नहीं पाया..और वह गिर गयी उसके चौंकने से ! अब बेचारे हवलदार को, बीड़ी का नया बण्डल ख़रीदना होगा ! इस कारण वह ख़फा होकर, इस गोमिये के रुखसारों पर जमा देता है...एक ज़ोर का झापड़ ! झापड़ जमाकर, वह कहता है]

हवलदार – [झापड़ जमाकर, कहता है] – चुप साला, तू है एक नंबर का तस्कर ! मुझे बरगलाता है, इस शेर सिंह को ?

[गोमिया ज़ोर से किलियाता हुआ, एक बार और फुठरमलसा को आवाज़ देता है]

गोमिया – [किलियाता हुआ आवाज़ देता है] – ओ फुठरमलसा ! आकर मुझे बचाओ, मेरे माई-बाप ! अरे जनाब, इधर तशरीफ़ रखिये !

[फुठरमलसा एक नज़र डालते हैं, उस गोमिये पर..फिर वे जानकर भी अजनबी बन जाते हैं ! वे पुलिए की सीढ़ियां चढ़ते हैं, मगर ऊपर के स्टेप उतर रहे आसकरणजी इस मंज़र को देख लेते हैं ! वे सीढ़ियां चढ़ रहे फुठरमलसा को रोककर, उन्हें कहते हैं]

आसकरणजी – [फुठरमलसा से कहते हैं] – जवाब दीजिये, फुठरमलसा ! आपका परिचित आदमी बरला रहा है, जाकर उसकी मदद कीजिये !

फुठरमलसा – किसका परिचित ? अरे जनाब, राह चलता कोई आदमी मुझे आवाज़ दे दे..तो क्या मैं उसका हितेषी बनकर पहुँच जाऊ उसके पास ? होशियार बनकर रहो, भा’सा ! कल आप भी उसके कहने से उसके पास चले गए, तो पुलिस आपको भी हिरासत में ले सकती है !

[अक्समात किन्नरों का दल, पायल खनकाता हुआ पुलिए की सीढ़ियां चढ़ता हुआ दिखायी देता है ! ये सारे किन्नर फ़टाफ़ट सीढ़ियां चढ़कर पहुँच जाते हैं, फुठरमलसा के पास ! फिर उन्हें घेरकर, वे सभी तालियाँ पिटते जाते हैं ! उनमें से चम्पाकली किन्नर फुठरमलसा के और नज़दीक आकर उनके गालों को सहलाता हुआ कहता है]

चम्पाकली – [उनके गालों को सहलाता हुआ कहता है] – अरे, सेठ फुठरमलसा ! आपके जैसा सुन्दर आदमी इस ख़िलक़त में नहीं, मेरे सेठ ! अब पहचान लीजिये, मुझे ! निहार लो मुझे, अच्छी तरह से ! मेरी जैसी ख़ूबसूरत मेहरारू आपको कहीं नहीं मिलेगी, मेरे सेठ ! हाय रामा पीर, क्या कोमल गाल बख्से हैं, मेरे सेठ को ?

फुठरमलसा – [हाथ से उसे दूर लेते हुए, कहते हैं] – दूर हट रे, किन्नर !

चम्पाकली – [लबों पर मुस्कान बिखेरता हुआ कहता है] – आसकरणजी टी.टी. बाबूजी को कह दूं, आपकी रोमांस की बात ? हाय मेरे सेठ, भूतिया नाडी की पाळ पर नंगे होकर कैसे नाचे थे ? कितना ख़ूबसूरत, और गठीला आपका बदन ? हाय मर मिटूं, आप पर..मेरे सेठ ! [धीमे से कहता है] आ जाऊं रात को, आपके पास ?

[इसके बाद वह अलग से फुठरमलसा के कान में फुसफुसाता हुआ नज़र आता है]

चम्पाकली – [फुसफुसाते हुआ कहता है] – भूतिया नाडी की पाळ पर नंग-धड़ंग होकर प्यारी के बिछोह में, कालिया भूत बनकर कैसे नाचे थे आप ? कह दूं आसकरणजी को, सारी भेद की बातें ? बोलो मेरे सेठ !

[फुठरमलसा झट-पट चम्पाकली के होंठों पर हाथ रखकर, उसका बोलना बंद कर देते हैं ! फिर वे उसे, धीमे-धीमे कहते हैं]

फुठरमलसा – [धीमे-धीमे कहते हैं] – यार चम्पाकली तू तो यार, समझदार होकर ऐसी अध-गेली बातें करता जा रहा है ? यों क्या चौड़ी करता है, लोगों के बीच में ?

चम्पाकली – [उनका हाथ हटाते हुए कहता है] – चौड़ी तो अभी करूँगी, मुझे किस की आती है, लाज ? मगर सेठ, तगड़ा नेग देते हो तो काम बने !

[फुठरमलसा झट जेब से कड़का-कड़क दस का नोट निकालकर, चम्पाकली को थमाते हैं ! रुपये पाकर भी, ये किन्नर वहां से हटते नहीं..तब आसकरणजी स्टेप उतरकर नीचे आते हैं, और उन लोगों को वहां खड़े देखकर आसकरणजी कहते हैं]

आसकरणजी – आप लोगों को मिल गया नेग, अब आप सभी पधारो !

गुलाबो – [आसकरणजी का रास्ता रोककर, उनके आगे खड़ा हो जाता है] – हाय हाय टीटी बाबूजी [ताली बजाता है] इस तरह, आपको जाने कौन देगा ? [एक बार और ताली बजाता है] जनाब आपका भला करे, एक दिन के लिए आप हमें भी बना दीजिये ना टीटी बाबू ! रामसा पीर, आपकी तरक्की करेगा !

[फुठरमलसा की गैंग एक दिन चैकिंग पार्टी बनी थी, अब वह बात इस गुलाबे से गुप्त रही नहीं ! अब बिचारे फुठरमलसा, अच्छे फंसे, इस हिंज़ड़े के जाल में ! हिंजड़ो के चंगुल से बचने के लिए आसकरणजी को, एक हाथी छाप सौ का नोट उस निखेत गुलाबा को थमाना पड़ता है !

आसकरणजी – [नोट थमाते हुए, कहते हैं] – गुलाबा तू जाने या मैं जानू, या जाने फुठरमलसा ! बस यहाँ तक ही बात रहनी चाहिए, गुलाबा ! मगर करूँ, क्या ? तेरी बड़ी खोटी आदत है, चौड़ी करने की !

[इतना कहकर, फुठरमलसा झट-पट स्टेप्स उतर जाते हैं, और साथ में वे अपने कानों में अंगुली भी डाल देते हैं..कारण यह है, उन्हें वहम हो जाता है...कहीं इन हिंज़ड़ो का हंसी का किल्लोर सुनकर, सीढ़ियों पर उतरते-चढते यात्री यहाँ खड़े होकर खिलका नहीं कर दे ? आसकरणजी के चले जाने के बाद, प्लेटफोर्म पर देहली एक्सप्रेस आकर ख़ड़ी हो जाती है !

फुठरमलसा अब पहुँच जाते हैं, अपने साथियों के पास ! वहां अभी भी रासायनिक पाउडर से होली खेलने के मुद्दे पर, गुफ़्तगू चल रही है ! अचानक सावंतजी की निगाहें, फुठरमलसा पर गिरती है ! वे झट अपने बोलने के भोंपू की दिशा बदलकर, फुठरमलसा की ओर कर देते हैं !

सावंतजी – लीजिये जनाब, फुठरमलसा पधार गए हैं ! अब आप इनसे पूछ लीजिये, मैं सच्च कह रहा हूं या झूठ ? ये फुठरमलसा ख़ुद, भुगत-भोगी है ! एक दिन इन्होंने उस पाउडर के हाथ लगाकर, अपनी जान जोखिम में डाल दी ! फिर इनका क्या हुआ, वह इनका दिल ही जानता है ? [फुठरमलसा से] साहब, मैं सच्च कह रहा हूं या झूठ ?

[फुठरमलसा कुछ नहीं कहते, तब सावंतजी उनके और नज़दीक आकर कहते हैं]

सावंतजी – बोलिए ना, साहब ! उस दिन को याद कीजिये आप, जब पाली उतरकर आपने यह कहा ‘आज मुझे कलेक्टर साहब के दफ़्तर में, बैठक में भाग लेना है..इसलिए, आज मैं खारची नहीं जाऊंगा ! क्योंकि, मेरी ड्यूटी कलेक्टर साहब के दफ़्तर में बोल रही है !

फुठरमलसा – फिर, क्या ?

सावंतजी – फिर गाड़ी के चले जाने के बाद आपको याद आया, के ‘आज तो मंगलवार है नहीं और बैठक रखी गयी है, मंगलवार के दिन ! अब क्या करें, बेटी के बाप ? गाड़ी चली गयी, अब खारची वापस जा नहीं सकता !’

फुठरमलसा – फिर मैंने क्या कहा, सावंतजी ?

सावंतजी – आपने कहा ‘कुछ नहीं, आज तो पाली डिपो चलकर, गोदाम का अनाज चैक करके सरकारी काम निकाल लेंगे ! काम करने के बाद, काजू साहब दे देंगे, उपस्थिति प्रमाण-पत्र !

[इस घटना को अब सावंतजी विस्तार-पूर्वक बयान करते हैं, और उधर फुठरमलसा की आँखों के आगे इस घटना के तथ्य चित्र बनकर छाते जा रहे हैं ! अब फुठरमलसा तंद्रा में लीन हो जाते हैं ! मंच पर, अन्धेरा छा जाता है ! थोड़ी देर बाद, मंच पर रौशनी फ़ैल जाती है ! अब एफ़.सी.आई. दफ़्तर का मंज़र, सामने दिखाई देता है ! अब फुठरमलसा, दयाल साहब के कमरे में दाख़िल होते दिखायी देते हैं ! वहां दयाल साहब की कुर्सी ख़ाली है, इसे देखकर वे ख़ुश हो जाते हैं ! फिर फटाक से उस कुर्सी पर बैठकर, टेबल पर रखी घंटी को बजाते हैं ! घंटी सुनते ही चम्पला वाच मेन, उनके सामने हाज़िर होता है ! चम्पले वाच मेन को सामने हाज़िर पाकर, वे आदेश दे डालते हैं !]

फुठरमलसा – देख रे, चम्पला कड़ी खायोड़ा ! आज मेरी ड्यूटी, इसी दफ़्तर में लगी हुई है ! अब तू मुझे यह बता, के ‘कितनी तो है गेहूं की बोरिया, और कितना है मुर्गी दाना ?’

चम्पला – जनाब, पूरी रिपोर्ट दे दूंगा आपको ! मगर पहले आप, इस कुर्सी से हट जाइये..यह कुर्सी हमारे साहब, दयाल साहब की है !

फुठरमलसा – इस कुर्सी पर कहीं नहीं लिखा हुआ है, के ‘यह कुर्सी दयाल साहब की है ?’ जानता नहीं, दयाल साहब और मैं एक ही रेंक के हैं ! इसीलिए, मुझे इस कुर्सी पर बैठने का पूरा-पूरा हक़ है !

चम्पला – मेरी बात मान जाइये, जनाब ! कहीं ऐसा न हो जाए, आपको परेशानी झेलनी पड़ जाय ? फिर आप पीपल के पान जैसा मुंह लिये, ठौड़-ठौड़ घुमते बुरे लगेंगे !

[मगर चम्पले की बात का कोई असर, फुठरमलसा पर होता दिखायी नहीं देता ! इतने में, डस्ट ओपेरटर मानारामसा कमरे में दाख़िल होते हैं ! वे दोनों हाथों की अँगुलियों से आँखें चौड़ी करके, आँखें फाड़ते हुए फुठरमलसा को देखते हुए आगे बढ़ते हैं ! और साथ में, फुठरमलसा से यह भी कहते जा रहे हैं !]

मानारामसा – [आँखें फाड़ते हुए, फुठरमलसा से कहते हैं] – आप कौन हो, मालिक ? मुझे लगता है, आप कहीं फुठरमलसा तो नहीं हैं ?

फुठरमलसा – [गुस्से में कहते हैं] – तू कौन है रे, कड़ी खायोड़ा ? आँखें फाड़कर, क्या मुझे डरा रहा है ?

मानारामसा – अब तो मुझे सौ फ़ीसदी भरोसा हो गया है, आप खारची वाले कड़ी खायोड़ा फुठरमलसा ही हैं ! [नज़दीक आकर कहते हैं] अब मालिक, आपकी क्या मनुआर करूँ ? [जेब से पोलीथीन की थैली बाहर निकालते हैं, उसमें से अफ़ीम की किरचियां निकालकर अपनी हथेली पर रखते हैं ! फिर, हथेली फुठरमलसा के आगे करते हुए उनकी मनुआर करते हैं] लीजिये मालिक, भोले बाबा की प्रसादी !

फुठरमलसा - यह क्या है रे, काला-काला ? कहीं यह चीज़, बंदरों के खाने की तो नहीं है ?

मानारामसा – बन्दर क्या जानता, अदरक का स्वाद ? जनाब इस चीज़ को, पारखी लोग ही परख सकते हैं ! दूसरे आदमी में, कहां है इतनी योग्यता ? इस चीज़ के बाज़ार में भाव हैं, हज़ार रुपये प्रति तोला ! आपको क्या कहूं, जनाब ? आप ख़ुद, कई हज़ारों रुपये ऊपर की चीज़ हैं !

फुठरमलसा – [ख़ुश होकर किरची उठाते हैं, फिर उसे अपने मुंह में रखते हैं] – मुझे तो यह चीज़, कोई शिलाजीत लगती है ! सच्च कहा रे, तूने ! वास्तव में इस चीज़ की पहचान पारखी लोग ही कर सकते हैं !

मानारामसा – आप से ज़्यादा कौन इस चीज़ का पारखी हो सकता है, जनाब ? इसमें सारे विटामिन मिले हुए हैं, इसको लेने से घर वाली खुश रहती है..घर में छायी अशांति मिट जाती है, और जो गोली आप मानसिक तनाव कम करने के लिए लेते हैं...फिर उस गोली को लेने की, कोई ज़रूरत नहीं !

फुठरमलसा – [हथेली से दो-तीन किरची उठाकर, अपने मुंह में डाल देते हैं] – और कोई गुण हो तो बता, पूरा विवरण दे दे एक बार !

मानारामसा – इसके लेने के बाद, आप अरबी घोड़े की तरह दौड़ोगे ! जीवता रहो, मालिक..आपने मेरी मनुआर अंगीकार करके मेरा मान बढ़ाया ! आपके घुटने सलामत रहे, सौ साळ ऊपर आपकी उम्र हो..हज़ारों साल आपका यश इस ख़िलक़त में बना रहे ! मगर..

फुठरमलसा – अगर-मगर कहना छोड़, साफ़-साफ़ कह “अब क्या कहना बाकी रह गया ?’

मानारामसा – अरे जनाब, आपकी मनुआर करता-करता मैं यह कहना भूल गया, के ‘आपको बड़े साहब ‘काजू साहब’ ने याद किया है ! आप जल्दी जाकर उनसे मिल लें, एक बार !’

फुठरमलसा – अरे कड़ी खायोड़ा, यह बात मुझे तू आते ही बताता ! जाता हूं, अब तू जा गोदाम में..अभी वहां आकर, माल चैक करता हूं ! तू जाकर तैयारी कर कड़ी खायोड़ा, अब यहाँ बैठा मत रह !

[फुठरमलसा जाते हैं, उनके जाते ही दयाल साहब कमरे में दाख़िल होते हैं ! इस वक़्त उनकी सांस धौकनी की तरह चल रही है ! वे हाम्पते हुए, आकर अपनी कुर्सी पर बैठते हैं ! मानारामसा इनके नज़दीक आकर, कहते हैं]

मानारामसा – [हाथ जोड़कर, कहते हैं] – बस मालिक, काम हो गया आपका ! अब आप आराम से बिराज जाइये ! आगे आपसे अर्ज़ है ‘कभी भी इस कुर्सी को ख़ाली छोड़कर कहीं जाइएगा मत ! जनाब, यह माया कुर्सी की ही है !

[सांस अब सामान्य होने के बाद, दयाल साहब जेब से रुमाल निकालते हैं..फिर अपने ज़ब्हा पर छाये पसीने के, एक-एक कतरे को साफ़ करते हुए कहते हैं]

दयाल साहब – [ज़ब्हा पर छाये पसीने को साफ़ करते हुए कहते हैं] – क्या कहूं, मानाराम ? इस दफ़्तर में इतनी सारी पड़ी है कुर्सियां, मगर यह फुठरमल आकर बैठेगा मेरी ही कुर्सी के ऊपर ! सारा दिमाग़ खराब कर दिया, इस फुठरमल ने ! इधर यह डी.एम. मांगता है...

मानारामसा – क्या मांगता है, जनाब ?

दयाल साहब – चावल की क्वालिटी-रिपोर्ट ! अब तू बता, कैसे करूँ इस रिपोर्ट तैयार ? उधर जाता हूं, माल चैक करने..वहां यह फुठरमल तैयार बैठा मिलता है ! इधर इस कमबख्त सावंत सिंह को कहा, के ‘पोलिस का पाउडर डाल दे उसमें, मगर यह सावंत सिंह सुनता ही नहीं ?’ आख़िर, अब मैं क्या करूँ ? कोई सुनता ही नहीं !

[रशीद भाई कमरे में आते हैं, इस वक़्त इनके मुंह पर नकाब लगी हुई है ! इनको देखते ही मानारामसा और चम्पला वहां से खिसक जाते हैं ! इन दोनों को भय है, कहीं यह रशीद भाई बोरियों के ऊपर छिड़काव करने का काम इन्हें नहीं सौंप दे ? अब रशीद भाई दयाल साहब के काफ़ी नज़दीक आकर, उनके कान में फुसफुसाते हुए कुछ कहते हैं]

दयाल साहब – करने दे, इसे चैक ! तेरे बाप का क्या गया ? मगर देख रशीद, फुठरमल दिन भर क्या करता है ? उसकी सही-सही रिपोर्ट तू काजू साहब को ज़रुर दे देना ! तूझे पता है, शाम को जाते वक़्त यह फुठरमल काजू साहब से मांगेगा उपस्थिति प्रमाण-पत्र ! अब जा रे, रशीद..काम कर अपना !

[रशीद भाई जाते हैं, और चम्पला चुगे हुए चावलों से भरी प्लेट लेकर आता है ! चावलों को देखते ही काम बढ़ा हुआ जानकर, दयाल साहब उसे खारी-खारी नज़रों से देखते हैं ! मंच पर, अँधेरा छा जाता है ! थोड़ी देर बाद, मंच के ऊपर रौशनी फ़ैल जाती है ! अनाज के गोदाम का मंज़र सामने आता है ! गोदाम से सटा हुआ, स्टोर का कमरा है ! जिसके बाहर, छोटी टेबल और दो कुर्सियां रखी है ! टेबल पर चार्ज लिस्टें रखी हुई है, जिसके पास स्टोक-रजिस्टर और पेन भी रखा हुआ है ! स्टोर रूम के बाहर दो कट्टे रखे हैं, जिनमें सफ़ेद डेल्टा पाउडर भरा हुआ है ! इस पाउडर को पानी मिलाकर, घोल तैयार किया जाता है ! फिर इस घोल का छिड़काव पम्प की मदद से अनाज की बोरियों के ऊपर किया जाता है ! छिड़काव के वक़्त इस पाउडर के घोल की ठंडी-ठंडी लहरे पैदा होती है, जिसकी ज़्यादा गंध लेना स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है ! क्योंकि, इससे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ! बोरियों पर छिड़काव कर रहे सावंतजी को मालुम होता है, अब घोल समाप्त हो गया है ! वे इसकी सूचना पम्प मार रहे रशीद भाई को देते हैं ! अब रशीद भाई झट पास रखे पानी से भरे दो घड़े, ख़ाली टंकी में उंडेल देते हैं ! फिर डेल्टा का कट्टा खोलकर, दोनों हथेली [धोबा भरकर] से पाउडर लेकर टंकी में डालते हैं ! फिर लकड़ी से घोल को हिलाकर, घोल तैयार करते हैं ! घोल में पम्प रखकर, रशीद भाई पम्प मारना शुरू कर देते हैं ! अब सावंतजी फव्वारे से बोरियों पर छिड़काव करते हुए, रशीद भाई से कहते हैं !]

सावंतजी – [छिड़काव करते हुए, कहते हैं] – ए रे, रशीद भाई ! इस जहर से होली खेलना हमारे नसीब में लिखा है, मगर तू ध्यान रखना कोई इधर आ न जाए !

रशीद भाई – [पम्प मारते हुए, कहते हैं] – भाईजान आप फ़िक्र मत कीजिये, मैं एक को भी इधर आने नहीं दूंगा ! मगर..

[इस गोदाम के सामने, कुछ ही क़दम आगे एक छायादार बबूल का वृक्ष है, जिसके तले मानारामसा अफ़ीम की पिनक में लेटे हैं ! इस बबूल के पास ही एक अस्थायी युरीनल है ! जो छ: फुट की शिलाओं को, चारों ओर घेरकर बनाया गया है ! अब फुठरमलसा काजू साहब से मुलाक़ात करके, इधर गोदाम की तरफ़ आते दिखायी दे रहे हैं ! सावंतजी और रशीद भाई छिड़काव के काम में व्यस्त हैं, इसलिए उनको इनके आगमन का कुछ पता नहीं ! काम करते हुए, वे दोनों गुफ़्तगू करते जा रहे हैं !]

सावंतजी – अगर-मगर मत बोल, काम की बात कर ! बोल आगे, क्या कह रहा था ?

रशीद भाई – कह रहा था, अगर फुठरमलसा इधर आ गए..खुदा की कसम मैं उन्हें रोक नहीं पाऊँगा !

[फुठरमलसा दबे पांव चले आते हैं, यहाँ ! और रशीद भाई की कही बात भी सुन लेते हैं ! वे यहाँ आते ही कुर्सी पर धम की आवाज़ करते, बैठ जाते हैं ! बेचारी, इनके भारी वज़न से चरमरा जाती है ! फिर जनाबे आली फुठरमलसा, कहते हैं]

फुठरमलसा – [बैठते हुए, कहते हैं] – ‘फुठरमलसा आ न जाए’ मत कहिये, फुठरमलसा तो आ गये..और धम करते बैठ गए, कड़ी खायोड़ो ! अब कहो हरामखोरों दिन-भर तुम लोगों ने किया किया ? [बबूल की ओर अंगुली का इशारा करते हुए कहते हैं] उस अफ़ीमची के पास बैठकर अफ़ीम ठोकना आसान है, मगर काम करते हुए पसीना निकालना करना कठिन है !

[तभी उन्हें स्टोर के दरवाज़े के पास, रखे कट्टे दिखायी दे जाते हैं ! अब वे कट्टे को खोलकर क्या देखते हैं, उसमें ? उसमें सफ़ेद उज़ला पाउडर भरा है, उसको देखते ही उनकी बांछे खिल जाती है ! वे खुश होकर, कहते हैं]

फुठरमलसा – रशीद भाई, इस कट्टे में मुझे टेलकम पाउडर लगता है ! इसको मैं अपने गालों पर मल दूंगा, तो मैं ज़्यादा ख़ूबसूरत हो जाऊंगा ! वैसे तो मैं ख़ूबसूरत हूं ही, इसी कारण मुझे मेरे मां-बाप ने मेरा नाम रखा है फुठरमल ! फुठरा यानि ख़ूबसूरत !

[इनकी बात सुनकर, बबूल की छांव में लेटे मानारामसा उठकर बैठ जाते हैं ! और, हंसते हुए अफ़ीम की पिनक में कहते हैं]

मानारामसा – [हंसते हुए कहते हैं] – लगा दे, लगा दे रे पाउडर ! मुझे क्या करना ? तू नाचेगा, साला कुतिया का ताऊ बनकर ! राती-लाल हो जायेगी, तेरी पिछली दुकान ! फिर तू नाचता रहना, लक्खू बंदरी की तरह !

[मगर रशीद भाई ने “होडा-होड गोडा-फोड़” प्रवृति को दूर करके, फुठरमलसा को चेतावनी देते हुए कहते हैं]

रशीद भाई – साहब, इस पाउडर से दूर रहो ! अगर हाथ लगा दिया, तो मालिक आप तक़लीफ़ पाओगे !

फुठरमलसा – तू मुझे मना करने वाला है, कौन ? अफ़सर का कर्तव्य है, पहले माल को चैक करे ! अब अगर तू बाधा उत्पन्न करने आया, मेरे कार्य के बीच में..? सच्च कहता हूं, तूझे निलंबित ज़रूर करवा दूंगा !

[इनके मना करने के बाद भी, फुठरमलसा मानते नहीं ! झट इसे मुफ़्त का माल समझकर, दोनों हाथो से पाउडर लेकर अपने गालों को मलना शुरू करते हैं ! फिर क्या ? उनके गालों पर खुजली चलने लगती है ! पाउडर से भरे हाथ अब जहां-जहां लगते हैं, वहां खाज शुरू हो जाती है ! खुजाने के बाद उस ठौड़ पर, जलन अलग से होती है ! यह जलन भी ऐसी है, बस वे हाय-तौबा मचाते हुए, बन्दर की तरह कूदते जा रहे हैं ! इनकी यह हालत देखकर, मानारामसा अपनी हंसी दबा नहीं पाते ! फिर, वे ज़ोर के ठहाके लगाते हुए कहते हैं]
मानारामसा – पहले ही कह दिया था, अफ़सरों ! पहले आपका मुंह होगा लाल, और बाद में होगी पिछली दुकान राती लाल ! बाद में कूदोगे आप, लक्खू बंदरी की तरह !

[फुठरमलसा के कूकारोल मचाने से, मानारामसा का सारा नशा उड़न छू हो जाता है ! अब वे नशे को, वापस लाना चाहते हैं ! और, सोचते जा रहे हैं]

मानारामसा – [सोचते जा रहे हैं] – रशीद भाई की जेब में आज सुबह आते ही अफ़ीम की पुड़िया रखवायी थी, अब इस पुड़िया की ज़रूरत आन पड़ी है..अब जाकर उनसे ले आता हूं ! रामसा पीर आपकी जय हो, एक बार और बाबा भोले शंभू को प्रसाद चढ़ा देंगे ! जय शिव शंकर !

[इतना सोचकर वे जा पहुंचे वहां, जहां खुजली व जलन के कारण फुठरमलसा कूद-फांद करते हुए कूकारोल मचाते जा रहे हैं ! मानारामसा पहुँचना चाहते हैं, रशीद भाई के पास ! मगर बीच में अवरोध की तरह कूद-फांद मचा रहे फुठरमलसा, उनको रशीद भाई के निकट जाने नहीं देते ! इसके अलावा वे, मानारामसा को हाथ से धकेलकर परे हटा रहे हैं ! मानारामसा भी, कौनसे कमतर खिलाड़ी हैं ? निकट जाने के लिए, वे उनका हाथ पकड़कर, उन्हें दूर लेते हैं ! इस तरह इनकी हथेलियों पर, आ जाता है डेल्टा पाउडर ! अफ़ीम हाथ न आने पर वे त्रस्त होकर, बोखला जाते हैं ! वे बोखलाये हुए, कहते हैं]

मानारामसा – [बोखलाये हुए, कहते हैं] – अरे ला रे, रशीद भाई ! अफ़ीम की पुड़िया दे दे यार !

रशीद भाई – [खीजे हुए कहते हैं] – पुड़िया गयी तेल लेने, आप पड़े रहो उस बबूल की छांव में ! नहीं पड़े रहो, तो छिड़काव कीजिये अनाज की बोरियों पर ! या फिर इलाज़ कीजिये, कूदते-फांदते फुठरमलसा का ! इसके बाद मैं दूंगा आपको, अफ़ीम की पुड़िया !

मानारामसा – ऐसा है भी क्या ? क्यों उतावली करते हो ? छिड़काव कर देंगे आराम से, आप कहो तो एक दिन आपको भी छिड़क दूं ?

सावंतजी – मज़ाक बहुत हो गयी, मानारामसा ! अब काम की बात कीजिये, जैसा रशीद भाई ने कहा है...वैसा ही, कीजिये ! या तो आप कीजिये बोरियों पर छिड़काव, या फिर कीजिये फुठरमलसा का इलाज़ ! हम दोनों तो इस पाउडर से होली खेले हुए हैं, जो अब इनके लिए कुछ नहीं कर सकते ! आप ही, कुछ कीजिये !

मानारामसा – [आग्रह करते हुए] – पुड़िया दे दे, यार रशीद ! मेरा नशा उड़ गया रे, अब तू नकटाई कर मत ! मुझे वापस नशा लाना ज़रूरी है, देख मेरे घुटनों का दर्द वापस शुरू हो गया है ! अब जल्दी कर, मेरे बाप !

फुठरमलसा – [किलियाते हुए ज़ोर से कहते हैं] – जले रे, जले रे..! [कूदकर कहते हैं] खोजबलिया तूने मुझे जला डाला, पाउडर दिखाकर ! अरे कड़ी खायोड़ो कुछ तो करो रे, मेरा इलाज़ ! अरे रामा पीर इन कमबख्तों को कुम्भीपाक नरक में डाल दो, मुझे जला डाला, इन दोज़ख के कीड़ो ने ?

[फुठरमलसा की ऐसी दशा देखकर, मानारामसा अपनी हंसी दबा नहीं पाते..अब, वे ज़ोर का ठहाका लगाकर हंसते हैं ! फिर लबों पर मुस्कान लाकर, फुठरमलसा से कहते हैं]

मानारामसा – [मुस्कराते हुए कहते हैं] – चुपचाप बैठ जाओ, फुठरमलसा ! मुझे हो गयी है, लघु शंका ! [छोटी अंगुली दिखाते हुए कहते हैं] पहले मैं मूत कर आ रहा हूं, फिर आकर आपको खाज मिटने की गोली दूंगा !

[इतना कहकर मानारामसा उस अस्थायी युरीनल में दाख़िल होते हैं ! एक मिनट ही नहीं बीता, झट मानारामसा पतलून की खुली चैन पकड़े युरीनल से वापस बाहर निकलते हैं..कूकारोल मचाते हुए ! अब वे भी कूदते-कूदते इन लोगों के नज़दीक चले आते हैं ! इधर कूद रहे हैं फुठरमलसा, और उधर कूद रहे हैं मानारामसा ! दोनों का भांगड़ा डांस, बड़ा गज़ब का..? डांस करते फुठरमलसा का हाथ कभी गालों पर चला जाता है, तो कभी कमर पर ! उधर मानारामसा पतलून के अन्दर हाथ डाले हुए नाच रहे हैं ! मानो वे नागा आदिवासियों की तरह, भांगड़ा की अलग ढंग से प्रस्तुति करते जा रहे हैं ! इनका नाच देखकर रशीद भाई और सावंतजी, डग-डग हंसते जा रहे हैं ! वे दोनों अपनी हंसी, दबा नहीं पा रहे हैं ! आख़िर में बेचारे अपने मुंह पर हाथ रखे, मींई मींई नीबली की तरह धीमें-धीमें हंसते जा रहे हैं !]

मानारामसा – [कूकारोल मचाते हुए, चिल्लाते हैं] – जल गया, जल गया रे ! अफ़ीम दबाकर, अब कटिया तू मज़ा ले रहा है नालायक !

फुठरमलसा – [मानारामसा को कहते हैं] – अब तू क्यों नाच रहा है, लक्खू बांदरी की तरह ? अब करें क्या, ठोकिरा ? अब तो दोनों की पिछली दुकान हो गयी, राती लाल खुजाते-खुजाते !

[इस तरह शरीर इनके वश में रहा नहीं, और इधर भौम पर चल रही लाल चींटियां अलग से चढ़ जाती है फुठरमलसा के बदन पर ! बात यह रही, आज सुबह-सुबह गाड़ी में फुठरमलसा के सालाजी मिल गये ! उन्होंने लूणी स्टेशन पर उनको खिला दिए, लूणी के रसगुल्ले ! मुफ़्त के रसगुल्ले खाए जो कुछ बात नहीं, मगर आदत के मुताबिक़ उन्होंने अपने सफ़ारी कमीज़ पर क्यों गिराया रसगुल्ले का रस ? अब फुठरमलसा को, लाल चींटियों के काटने का आनंद लेना भी..उनकी एक, मज़बूरी बन गयी है ! इनकी पिछली दुकान पर, इनका काटा जाना भी वाज़िब है ! क्योंकि ये लाल चींटियां काली सफारी कमीज़ पर गिरे रस की सुगंध पाकर, बदन पर चढ़ती जा रही है ! बदक़िस्मत से, उनकी कमर पर उनके लगा है बेल्ट..इस कारण यह चींटी-दल कमर से आगे जा नहीं पाता ! फिर क्या ? वो चींटी-दल अपनी जान की परवाह किये बिना, उनकी पिछली दुकान की चमड़ी काटनी शुरू कर देता है ! रुखसारों पर पाउडर मलने से उत्पन्न खुजली तो मिटी नहीं, और अब यह पिछली दुकान पर खुजली अलग से पैदा जाती है ! इधर पसीने के कारण उनकी कमर पर भी खुजली होती है, उसे खुजाते-खुजाते उनकी पिछली दुकान पर खुजली तेज़ हो जाती है..तभी रुखसारों [गालों] पर हो रही जलन, जान-लेवा हो जाती है ! अब जनाब के जहां भी हाथ लगते हैं, वहां खुजली व जलन शुरू हो जाती है ! इधर मानारामसा की तो, और बुरी हालत हो गयी है ! उनके बदन का कोई ऐसा हिस्सा न रहा..जहां खुज़ली शुरू नहीं हुई हो ? आख़िर बेचारे खुजाते-खुजाते, पतलून और कमीज़ खोलकर एक ओर फेंक देते हैं ! और अब वे, चड्डे में अवतरित हो जाते हैं ! मानारामसा को, फ़र्क क्या पड़ता है ? वे तो वैसे ही बाबा ठहरे, उन्हें कहाँ मोह इन कपड़ो का ? आख़िर वे ठहरे, भोले बाबा शिव शंभू के भक्त ! इधर फुठरमलसा को खुजाते खुजाते यह ध्यान नहीं रहता है, के “उनकी पतलून की चैन खुली पड़ी है !” अचानक उस खुली चैन पर, सावंतजी की नज़र गिरती है ! अब उनकी हंसी, ऐसी छूटती है..के, ‘बेचारे हंसते-हंसते उनके पेट में दर्द पैदा हो जाता है !’ वे किसी तरह हंसी रोककर, रशीद भाई से कहते हैं]

सावंतजी – [ज़ोर से कहते हैं] - डब्बा खुला है रे, रशीद भाई ! डाल दे, डाल दे...!

[अब “डाल दे, डाल दे..” शब्द ज़ोर से गूंजते जाते हैं, इस आवाज़ से फुठरमलसा चौंक जाते है ! मंच पर अन्धेरा छा जाता है, थोड़ी देर बाद मंच वापस रोशन होता है ! जोधपुर का मंज़र वापस आता है, अभी-तक ये सभी एम.एस.टी. वाले उतरीय पुल पर ही खड़े हैं ! फुठरमलसा कर्ण-भेदी आवाज़ सुनकर चौंक जाते हैं, और उनकी विचारों की श्रंखला टूट जाती है ! और उनकी आँखों के आगे आ रहे वाकये के चितराम, बंद हो जाते हैं..जिससे फुठरमलसा चेतन होकर, सामने देखते हैं ! सामने सावंतजी ज़ोर से यह कहते हुए, दिखाई दे देते हैं]
सावंतजी – [ज़ोर से कहते हैं] – डाल दे, डाल दे..! डाल दे मिर्ची बड़े, मेरे बैग में ! फुठरमलसा मिर्ची बड़े, खाना नहीं चाहते !

फुठरमलसा – [चेतन होने के बाद, आखें मसलते हुए कहते हैं] – खाऊं क्यों नहीं ? मैं तो पूरा ही गिट जाऊंगा, कालिया भूत की तरह ! आने दे, आने दे..मिर्ची बड़े आने दे !

रशीद भाई – [हंसी के ठहाके लगाते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – मिर्ची बड़े है, कहाँ ? सावंतजी ऊपर से दिखायी देते है सीधे, मगर है एक नंबर के ओटाळ ! आप खड़े-खड़े झेरे खा रहे थे, आपकी ऊंघ मिटाने के लिए सावंतजी ने “डाल दे, डाल दे..! मिर्ची बड़े, बैग में डाल दे...” का जुमला बोला था !

सावंतजी – आपको कहीं मिर्ची बड़े दिखायी दिए, क्या ?

[यह बात सुनते ही फुठरमलसा हो जाते हैं, सीरियस ! फिर सीरियस होकर, कहते हैं]

फुठरमलसा – आप कुछ भी बोलो, मगर आप शब्द “डाल दे, डाल दे..” बोला मत करो !

सावंतजी – क्यों जनाब, ऐसी क्या बात है ?

[सीटी की तेज़ आवाज़ सुनायी देती है, अहमदाबाद-मेहसाना लोकल गाड़ी प्लेटफोर्म नंबर दो पर आकर रुकती है ! उसके आने से यात्रियों के बीच मची हाका-दड़बड़ की आवाज़ के आगे, किसी को कुछ सुनायी नहीं देता..जनाबे आली फुठरमलसा, क्या कह रहे है ! सभी पुलिया उतरकर, गाड़ी के पास चले जाते हैं ! कई एम.एस.टी. होल्डर्स शयनान डब्बों में चले जाते हैं, मगर कई प्लेटफोर्म पर चहलक़दमी करते जा रहे हैं ! इन लोगों का विचार है, गाड़ी के रवाना होते समय वे झट डब्बों में दाख़िल हो जायेंगे ! इधर दीनजी डब्बे में दाख़िल होते हैं, दाख़िल होते ही उन्हें सावंतजी की दी गयी हिदायत याद आ जाती है के “रेल गाड़ी में वहां बैठना चाहिए, जहां इमरजेंसी खिड़की लगी हो ! ताकि आपदा के वक़्त झट बाहर निकलकर, हम अपनी जान बचा सकें !” इस हिदायत को याद रखते हुए, उन्होंने उस केबीन की सीटें रोक देते हैं, जहां इमरजेंसी खिड़की लगी है ! सीटें रोकने के लिए उन्होंने कहीं बैग रख दिया, तो कहीं रजिस्टर तो कहीं अख़बार..इस तरह सीटें रोककर वे खिड़की वाली सीट पर खुद बैठ जाते हैं ! रशीद भाई को मालुम है, अभी-तक गाड़ी में पंखें स्टार्ट नहीं हुए हैं ! अत: वे प्लेटफोर्म पर रखे लोहे के बड़े काले रंग के बोक्स पर, बैठ जाते हैं ! ताकि खुले में, वे ताज़ी हवा सेवन कर सके ! बैठने के बाद, वे सावंतजी और ठोकसिंहजी को आवाज़ देकर अपने पास बुलाते कहते हैं !]

रशीद भाई – इधर आ जाइये ! यह उठा हुआ दम, दुखी: कर डाला ! ख़ुदा रहम, ऐसे स्लो-पोइजन से आने वाली मौत से तो अच्छा है..एक ही झटके में, ये प्राण निकल जाए ! मगर, क्या करें सावंतजी ? अपने हाथ में, कुछ नहीं है ! ख़ाली हाथ आयें हैं, और ख़ाली हाथ जायेंगे !

सावंतजी – मौत तो भगवान के हाथ में है, बस हम तो इंतज़ार कर रहे हैं कब भगवान के घर से बुलावा आ जाय ? किसको मालुम, यह मौत कब आ जाए ? मगर एक बात कह दूं, आपको ! इस ज़िंदगी को स्टार्ट हुए, हो गए पूरे सतावन साल ! अब आपको, एक अजीबोगरीब वाकया सुनाता हूं !

रशीद भाई – सुनाइये !

सावंतजी – मेरे पड़ोसी की मां अपने पांवो से चलने में असमर्थ थी, सारे काम वह खटिया पर पड़ी पड़ी करती थी ! कल उसकी सहेली आयी उससे मिलने, सारी रात न जाने उन्होंने आपस में क्या बातें की होगी ? और आज दोनों सहेलियां तड़के चार बजे, भगवान के घर चली गयी !

रशीद भाई – वाह भाई, वाह ! यह तो, अल्लाह की करामत है ! ऐसा लगता है, आपके पड़ोसी की मां अपनी सहेली का इंतज़ार ही कर रही थी, वह आयी और भगवान के घर का बुलावा साथ ले आयी !

ठोकसिंहजी – बस, यही बात है, के ‘बेमाता ने जो मौत के योग बनाए हैं..वे योग जब मिलेंगे तब ही हमारी मौत आयेगी !’ अभी-तक इस ज़िंदगी की गाड़ी को, भंगार में जाने का हुक्म नहीं मिले हैं ! आख़िर, इस गाड़ी को कौन देगा सिंगनल ? यह तो जनाब, बेमाता जाने !

सावंतजी – सिंगनल देगा कौन, ठोकसिंहजी ? हम तो हैं, घिसी-पिटी फ़िल्में ! वैसे तो जानते हैं हम, बाज़ार में पुरानी फिल्मों की कितनी क़दर है ? आज़कल के फिल्म निर्माता, इन फिल्मों की नक़ल करके नयी फ़िल्मों का निर्माण करते आये हैं ! इस कारण पुराणी फिल्मों की मांग बढ़ती जा रही है, वैसे यह सरकार भी..

रशीद भाई – [बात काटते हुए, कहते हैं] – अरे जनाब, तब ही मैं कहता हूं यह सरकार पागल नहीं हैं..यह बहुत समझदार है, यारों ! इस कारण, यह नए छोरों को नौकरी देती नहीं ! बस, वह तो कर्मचारियों की सेवा-अवधि बढ़ाकर अपने जैसी घिसी-पिटी फिल्मों से काम चला रही है !

दीनजी – [खिड़की से मुंह बाहर झांककर कहते हैं] – क्यों नहीं चलायेगी ? आप जैसी घिसी-पिटी फ़िल्में मुखासमत [विरोध] कर नहीं सकती, क्योंकि सेवा-निवृति के नज़दीक आने के बाद कोई कर्मचारी अपनी सर्विस बुक ख़राब करवाना नहीं चाहेगा !

ठोकसिंहजी – सच कहा, दीनजी ! जहां तक इस बदन में ताकत है, ये घिसी-पिटी फ़िल्में चलती रहेगी ! अब क्या करें, जनाब ? चले, जितनी यह ज़िंदगी है ! भगवान के घर से, जब कभी बुलावा आ जाएगा..तब, हम एक मिनट भी नहीं रुकेंगे ! बीते जितने पल अपने है, बस जनाब उसे सुखद बनाओ दीनजी !

दीनजी – करें भी, क्या ? मज़बूरी है, जनाब ! इन घिसी-पिटी फिल्मों की घर में भी कहाँ है, क़दर ? घर बैठ गए, तब दुल्हनें यही कहेगी ‘बा’सा खोड़ीला-खाम्पा है..बाहर ही नहीं जाते ! पूरे दिन घर घर बैठे, खटिया तोड़ते है ! जनाब, यह है ज़िंदगी का सच ! जब-तक ये पांव चलते हैं, तब-तक चुप-चाप नौकरी करते रहेंगे !

सावंतजी – सेवानिवृत भी हो गए, तो क्या ? प्राइवेट जोब कर लेंगे कहीं, बस यही ज़िंदगी है ! आख़िर जो भी बुलाएगा, इन घिसी-पिटी फिल्मों को..बस, हम चले जायेंगे वहां नौकरी करने !

[प्लेटफोर्म पर लगी घड़ी में नौ बजकर, हो गए पंद्रह मिनट ! अब दयाल साहब घड़ी देखकर आते हैं, फिर अपने साथियों के पास आकर कहते हैं]

दयाल साहब – गाड़ी के इंजन ने सीटी दे दी है, भाई लोगों ! अब बैठ जाइये गाड़ी में, ना तो ये घिसी-पिटी फ़िल्में जोधपुर में ही रह जायेगी ! फिर कहना मत, के ‘हमारी सी.एल. पर चाकू चला दिया !’

दीनजी –– अब बाहर क्यों खड़े हैं, भाइयों ! अब बैठ जाइये गाड़ी में, लाइट आ गयी है..पंखें चालू हो गए हैं ! अब आप लोगों का दम उठेगा नहीं, [खिड़की के अन्दर मुंह डालते हुए कहते हैं] आ जाइये..बिराज जाइये, अपनी सीटों पर !

[अब सभी अपनी-अपनी सीटों पर बैठ जाते हैं, धीरे-धीरे गाड़ी प्लेटफोर्म छोड़ देती है ! ऐसा लगता है, आज फुठरमलसा का मूड ठीक नहीं है ! वे पड़ोस वाले केबीन में अकेले बैठे हैं ! इतने में उनके पास चले आते हैं, शर्माजी..वी.आई.पी. बैग को थामे ! और सीधे आकर फुठरमलसा से सवाल दाग देते हैं]

शर्माजी – फुठरमलसा यार, यहाँ क्यों अकेले बैठे हो..पीपली जैसा मुंह लिए ? चलिए यार, आपके साथियों के पास चलकर बैठते हैं !

फुठरमलसा – बैठना तो मैं चाहता हूं, मगर करूँ क्या ? मेरे बैठते ही, या तो वे उठकर चले जाते हैं, नहीं तो वे मेरे जैसे सीधे आदमी को उड़ाने के लिये मुझसे मज़ाक करते रहते हैं !

शर्माजी – [हंसते-हंसते कहते हैं] – क्या आप पीपली के पान हो, या हो बोरटी के पान ? इनके उड़ाने से, आप उड़ जाओगे ? उठिए, और चलिए मेरे साथ ! मैं चलकर देखता हूं, आपको कौन उड़ा सकता है !

[शर्माजी फुठरमलसा का हाथ पकड़कर, ले जाते हैं उनके साथियों के केबीन में ! और इधर, आ जाता है भगत की कोठी का स्टेशन ! इस पहले वाले में, भगत की कोठी से चढ़े यात्री आकर बैठ जाते हैं ! अब इस केबीन में, एक भी ख़ाली सीट नहीं है ! उधर अपने साथियों के केबीन में आकर, फुठरमलसा क्या देखते हैं ? के, ‘ठोकसिंहजी अपना बैग सिरायते रखकर, तख़्त पर लेटे हैं ! सावंतजी और दीनजी, आमने-सामने खिड़की वाली सीटों पर बैठे हैं ! दीनजी जिस तख़्त [bench] पर बिराज़े हुए हैं, उसी तख़्त पर के.एल. काकू भी बैठे हैं ! इनके सामने दयाल साहब बैठे हैं ! अभी वे दतचित होकर अपनी डायरी देख रहे हैं..के ‘आज दफ़्तर जाकर, उनको कौनसा काम निपटाना है ?’ बची हुई सीट पर, छंगाणी साहब सर के नीचे हाथ रखकर लेटे हैं !’ छंगाणी साहब लम्बे व् दुबले आदमी है ! वे बिजली घर के सेवानिवृत सहायक अभियंता है, जो अभी इसी बिजलीघर दफ़्तर में डेली वेजेज़ पर काम कर रहे हैं ! इस कारण इनको, रोज़ पाली आना-जाना करना पड़ता है ! इनके सर के पूरे बाल सफ़ेद हो चुके हैं, और ये जनाब इन बालों को मेल खाती उज़ली सफ़ेद ड्रेस पहना करते हैं ! इनकी ड्रेस को देखकर ऐसा लगता है, मानो ड्रेस को धुलने के बाद, टीनापोल लगा दिया हो ! सरकार इनको रिटायर कर चुकी है, मगर ये जनाब दिल और शरीर से सेवानिवृत कर्मचारी नहीं लगते हैं ! तंदरुस्ती के मामले में ये अभी भी, आज के जवानों को पीछे रखते हैं ! जब रेल गाड़ी जोधपुर प्लेटफोर्म पर आती है, उस वक़्त ये चलती गाड़ी से नीचे उतरकर उतरीय पुल चढ़ जाते हैं ! इनको अपनी घर वाली से बहुत प्रेम है, गाड़ी में बैठे-बैठे उनको याद करते रहते हैं ! जब-कभी अपने साथियों से गुफ़्तगू करते वक़्त, वे भागवान का टोपिक बीच में ज़रूर डाल दिया करते हैं ! भले उनका वहां जिक्र करने की, कोई ज़रूरत नहीं रही हो ? इनकी बातों में, होता भी क्या ? आज मेमसाहब ने तुलसी ग्यारस का उपवास किया है, कल वे गंगाश्यामजी के मंदिर गए थे तब पूर्णिमा के एकासना करने की कथा सुनी..अगली पूर्णिमा को वे ज़रूर, उजावणा की प्रसादी करने का विचार रखती है ! इस तरह के टोपिक चलाकर वे भागवान की कथा बांचते रहते है, और अगले सुनने वालों से हूंकारा ज़रूर भरवाया करते हैं !]
अब केबीन में फुठरमलसा और शर्माजी दाख़िल होते हैं ! दाखिल होकर साथियों से कहते हैं !]

शर्माजी – वाह, भी वाह ! आप लोग फुठरमलसा को अकेला छोड़कर, इधर आकर कैसे बैठ गए ? लो देखो, मैं फुठरमलसा को राज़ी करके इधर लाया हूं..आपके पास बैठाने के लिए ! [दीनजी से कहते हैं] खिसको दीनजी एक तरफ़ !

दीनजी – [थोड़ी जगह बनाकर कहते हैं] – लीजिये बिराजिये, फुठरमलसा मालिक !

[फुठरमलसा बैठ जाते हैं दीनजी के पहलू में, धम करते ! ना तो वे वे अपने दायीं तरफ़ देखते हैं ना बाईं तरफ़ ! बस मन भर का बोझ डाल देते हैं सीट पर ! उनके इस तरह से बैठने से काकू संभल नहीं पाते..बस, झट उनका सर टकरा जाता है फुठरमलसा के सर से ! अब काकू खिसकना चाहते हैं, दूसरी तरफ़ ! मगर वहां तो आकर बैठ गए हैं शर्माजी ! शर्माजी तो ऐसे बिराजे हैं, खोड़ीले खाम्पे की तरह..आराम से पालथी मारकर ! फिर ऊपर से अपना वी.आई.पी. बैग खोलकर, दफ़्तर की फाइलें बाहर निकालकर आराम से काम करने बैठ गए ! अब उनके लिए फुठरमलसा गए, भट्टी की भाड़ में...वे तो बैठे-बैठे आराम से, दफ़्तर का काम निपटाते जा रहे हैं ! उनको बेचारे काकू की दुर्दशा का भी, कोई भान नहीं ? बेचारे काकू की स्थिति तो, चक्की के दो पाट के बीच में पीसे जा रहे अनाज की तरह हो गयी है ! उन्हें एक तरफ़ दबा रहे हैं फुठरमलसा, और दूसरी तरफ़ दबाते जा रहे हैं शर्माजी ? इस कारण अब वे होंठों में ही, शर्माजी को गालियों के गुलदस्ते भेंट करते जा रहे हैं !]

के.एल.काकू – [होंठों में ही कहते हैं] – कैसा है, यह नालायक शर्माजी ? कमबख्त, लेकर आ गया फुठरमलसा को ! खुद तो बैठ गया, फाइलें लेकर ! और मुझको फंसा डाला बीच में..इधर माता के दीने फुठरमलसा दबाते जा रहे हैं मुझे, और दूसरी तरफ़ दबा रहा है मुझे यह खुद ! साला कमीना, बैठ गया यहाँ फाइलें लेकर ? नालायक, फिर तू दफ़्तर करता क्या होगा ? साला करता होगा, परायी पंचायती ? भले इसके अलावा, करता क्या होगा ?

[इतने में फुठरमलसा देते हैं, एक धक्का..काकू को ! और उधर गाड़ी रुक जाने से लगता है, एक और धक्का काकू को ! अब यह दोहरा धक्का, काकू कैसे सहन करे..? धक्का देकर, फुठरमलसा कहते हैं..]

फुठरमलसा – [काकू को धक्का देते हुए कहते हैं] – खिसको काकू, थोड़ा और आगे ! अब मैं दोपहरी करूंगा !

[खाने की बात सुनते ही दयाल साहब झट उठ जाते हैं, और होंठों में ही कहते हैं]

दयाल साहब – [होंठों में ही कहते हैं] – अरे, सांई झूले लाल ! इस जोधपुर के खंडे प्रसिद्ध है, या फिर प्रसिद्ध है फुठरमलसा जैसे खावण खंडे ! अब यहाँ बैठे रहे तो फुठरमलसा ज़रूर कपड़े खराब तो करेंगे ही, और साथ में हमें भी जबरदस्ती देखनी होगी बदसलूकी खाने खाना की !

[फिर क्या ? झट दयाल साहब उठकर, वहां से रूख्सत हो जाते हैं..दूसरे केबीन में जाकर, ख़ाली सीट देखने ! अब उनके जाने के बाद, तख़्त पर काफ़ी जगह हो गयी है ! अत: छंगाणी साहब आराम से लेट जाते हैं ! क्योंकि अब इस तख़्त पर इनके अलावा ख़ाली सावंतजी ही बैठे हैं ! अब फुठरमलसा, दीनजी से कहते हैं]

फुठरमलसा – [दीनजी से कहते हैं] – यार भा’सा ! क्या करें जनाब, खाना खाने की पूरी ठौड़ ही नहीं मिली..अब क्या करें, रामा पीर ?

दीनजी – जनाब, ऐसी बात है, तो आप खाना मत खाइए ! जब पूरी सीट मिल जाए, आपको ! तब, आप भोजन कर लेना !

[मगर फुठरमलसा क्यों मानेंगे, उनकी सलाह ? झट थोडा टेडा बैठकर, थोड़ी सी जगह पैदा कर लेते हैं ! और वहां रख देते हैं, खाने का तीन खण वाला सट ! अब उसको खोलकर, रोटियाँ और सब्जी वाले खण निकालते हैं..तभी दीनजी इनकी गंदी आदत को जानते हुए, झट उनसे कहते हैं]

दीनजी – रुक जाइये, फुठरमलसा ! बैग से अख़बार निकालकर दे रहा हूं, आपको ! अख़बार के पन्नों को टिफन के खण के नीचे बिछा दीजिये, ताकि सीटें खराब नहीं होगी !
फुठरमलसा – आप धीरज रखिये, भा’सा ! मैं सीटें खराब नहीं करूंगा, आप मुझ पर भरोसा रखिये !

[अब फुठरमलसा का अख़बार लेने का कोई सवाल नहीं, उन्होंने तो झट तीनों खण सीट पर रखकर भोजन करना शुरू कर दिया है ! सब्जी की सौरम, फैलती है ! पछीत पर सो रहे रशीद भाई की नींद खुल जाती है, यह सब्जियों की महक पाकर ! फिर सब्जियों को देखकर, रशीद भाई चहक उठाते हैं..]

रशीद भाई – वाह फुठरमलसा, वाह ! क्या सब्जियां बनायी है, भाभीसा ने ? आलू, गोभी, मटर और टमाटर की मिक्स्ड सब्जी, देशी घी में तैयार की गयी रतालू की सब्जी..अरे भाई, क्या देसी घी से तर लज़ीज़ फुलके ? फुठरमलसा, खाने का आनंद आ जाएगा..!

[फुठरमलसा को कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं, रशीद भाई स्वादिष्ट भोजन की चाहे जितनी तारीफ़ कर डाले ? मगर वे इनको खाने का निमंत्रण, देने वाले नहीं ! वे सब्जी में रोटी का निवाला डूबा-डूबकर, उस कोर को मुंह में डालते ही जा रहे हैं ! उन्हें यह भी पता नहीं, के ‘सब्जी के छींटे, उनके सफारी सूट पर गिरते जा रहे हैं ! सब्जी में डाला हुआ घी-तेल सीट पर गिरकर, सीट को गंदी करता जा रहा है ! अब इधर गाड़ी की खरड़-ख़रड आवाज़ और छंगाणी साहब के खर्राटे, और फिर उधर फुठरमलसा के खाने की हलबलाहट की आवाज़...? अब ख़ुदा को ही मालुम, ये सभी आवाजें आपस में कैसे ताल-मेल बैठाती जा रही है ? थोड़ी देर में फुठरमलसा के भोजन का पहला दौर, किसी तरह पूरा हो जाता है ! अब वे सट को बंद करके, बैग में रख देते हैं ! फिर वे बैग से ठंडे पानी की बोतल निकालते हैं, और सावंतजी से कहते हैं]

फुठरमलसा – सावंतजी कड़ी खायोड़ा, थोडा खिड़की से दूर हटो, मैं खिड़की से हाथ बाहर निकालकर अपने हाथ धो रहा हूं !

सावंतजी – अरे साहब मैंने कड़ी के सब्जी खायी नहीं है, मगर आपके मफलर और आपका कमीज़ ने रतालू की सब्जी ज़रूर खायी है ! मगर मैं आपका हुक्म ज़रूर मानूंगा, अगर न मानूंगा तो जनाब आप मेरे ऊपर जूठा पानी गिरा देंगे ? लीजिये, अभी दूर हटता हूं !

[खिड़की से बाहर हाथ निकालकर, फुठरमलसा हाथ धोते हैं ! पानी के छींटो से बचने के लिये सावंतजी और दीनजी भा’सा अपना मुंह झट दूर लेते हैं, दीनजी भा’सा के कुछ नहीं होता, मगर बेचारे सावंतजी के अक्समात दूर हट जाने से.. उनकी कमीज़ की जेब से, नक़ली दांत चिपकाने के मसाले की डिबिया नीचे गिर पड़ती है ! डिबिया नीचे गिरते ही, सावंतजी की हालत ऐसी लगती है..जैसे उनकी जान हलक में आकर, फंस गयी हो ? फिर क्या ? झट उस डिबिया को रखते हैं, अपनी जेब में ! डिबिया को डालते ही उनको ऐसा लगता है, मानो बदन में जान आ गयी हो ? अब वे नाराज़गी से, फुठरमलसा से कहते हैं]

सावंतजी – [गुस्से में कहते हैं] – यह क्या कर डाला, फुठरमलसा ? अभी नुक्सान हो जाता, जनाब ! जानते नहीं, आप ? मुंह में डाली हुई बत्तीसी को चिपकाने का यह मसाला, करीब दो हज़ार रुपये खर्च करके लाया हूं !

दीनजी – [बात काटते हुए कहते हैं] – फुठरमलसा ! सावंतजी के ऊपर मेहरबानी रखें, जनाब ! आपके कारण ही, इनको बत्तीसी के पैसे खर्च करने पड़े ! इनके दांत नहीं होने पर आप, ठोक जाते थे बाल गोपाल का प्रसाद !

फुठरमलसा – मैं तो अब भी ठोक जाऊंगा, आप सभी देखते जाओगे !

दीनजी – अब कैसे ठोकोगे ? यह बत्तीसी इनके मुंह में, बराबर फिट हो गयी है ! अब इनका हिस्सा, आप कैसे अरोग जाओगे ?

सावंतजी – अब भले आप कुछ भी कहो, यार ? बस, अब बातें रह गयी ! पहले आप लोग कहते थे, ‘ये क्या खायेंगे ? ये है, एक दंता !’ बस मालिक, अब आप कोई बुरी नज़र मत लगाना !

रशीद भाई – सावंतजी, मैं आपके लिए मौलवी साहब से एक इमाम जामीन मांगकर ले आ जाऊंगा ! उसको पहनने के बाद किसी की बुरी नज़र आपको लगेगी नहीं ! मगर जनाब, फुठरमलसा को छोड़कर !

दीनजी – जी हां, रशीद भाई आप सच कहते हो ! अपने बुजुर्ग भी कहते हैं, अघोरी की नज़र से रहना दूर ! वहां तो यह इमाम जामीन भी असर नहीं करता !

ठोकसिंहजी – फुठरमलसा सब कुछ खा सकते हैं, अघोरी की तरह ! कुछ भी खिला दो, इनको.. मगर खिलाना है, मुफ़्त में ! इसलिए कहते हैं, इनको अघोर मलसा !

फुठरमलसा – [टोपिक बदलने का प्रयास करते हैं] – मुझे लगी है प्यास, और आप लोग मज़ाक करते जा रहे हैं ? क्यों प्यासा मार रहे हो, बेटी के बाप ? जल्दी थमा दीजिये, पानी की बोतल ! [दुखी होकर, वे रामा पीर को पुकारते हैं] ए, मेरे रामा पीर ! इन लोगों ने मुझे यहाँ बुलाकर, अब प्यासा मार डाला !

[मुस्कराते हुए अपनी पानी की बोतल को बैग में रखते हैं, फिर कहते हैं !]

फुठरमलसा – [बड़ाबड़ाते हुए कहते हैं] - थोडा सा पानी बचा है, इस बोतल में..इसे मैं बाद में पीऊँगा ! अभी तो भाई लोगों की बोतलें, ख़ाली करता रहूँगा !

[अचानक के.एल.काकू को लगती है प्यास, वे सेवाभावी रशीद भाई से पानी की बोतल माँगते हैं ! वे ठोकसिंहजी के बैग से बोतल निकालकर, उसे काकू को थमा देते हैं ! काकू ठहरे, क़ायदे वाले आदमी..इसलिए वे ऊपर से पानी पीकर, फुठरमलसा को बोतल थमा देते हैं ! इस समय ठोकसिंहजी को कहाँ आ रही है, नींद ? क्योंकि, यहाँ सोने के लिए पर्याप्त जगह तो है नहीं..फिर बेचारे करेंगे, क्या ? नींद लेने का नाटक ही करेंगे, और क्या ? उनकी बोतल फुठरमलसा के पास चली जाय, यह ठोक सिंहजी को गवारा नहीं ! वे झट फुठरमलसा से बोतल छीनकर, वापस अपने बैग में डाल लेते हैं ! इसके बाद, वे टोचराई करते हुए कहते हैं]

ठोकसिंहजी – फुठरमलसा ! खुद की बोतल, बैग में पड़ी दूध दे रही है ? पानी पीना हो तो तो ख़ुद की बोतल निकालते क्यों नहीं हो, बैग से ? लोगों का पानी पीना लगता है, अमृत और दूसरों की बोतलों को..[धीरे से बोलते हैं] मुंह लगाकर उन्हें जूठी कर देते हो ?

[अपने साथियों की ऐसी ओछी बातें सुनकर, फुठरमलसा का दिल दर्द से भर जाता है ! इधर गाड़ी की खरड़ खरड़ आवाज़, और उधर छंगाणी साहब के खर्राटों की आवाज़..कैसे आती है नींद..? यहाँ ना तो सोने की ठौड़, और ना लोगों का मोह ? फुठरमलसा जनाब झिल गए हैं, बेचारे ? अब फुठरमलसा जाए, तो कहाँ जाए ? पहले वाले केबीन की सारी सीटें भर गयी है ! अब वे अपने दिल में, शर्माजी को भर-पेट गालियां देते हैं ! जिसने आराम से बैठे जनाबे आली फुठरमलसा को, इस केबीन में लाकर बैठा दिया..ख़ाली, उनको परेशान करने के लिये ! अब यह शर्माजी नाम का खडूसिया, लेकर बैठ गया है अपने दफ़्तर की फाइलें ! और देख नहीं रहा है, फुठरमलसा को ! बेचारे क्या-क्या तक़लीफ़, उठाते जा रहे हैं ? ऐसा लगता है, अब इसने नहीं बोलने की कसम खा रखी है ? फुठरमलसा के दिल में शर्माजी के प्रति नफ़रत भर जाती है, उनके दिल से यह एक ही आवाज़ निकल रही है के “यह साला शर्मा नहीं, निशरमा है..माता का दीना !” आख़िर दुखी होकर वे बैग को उठाते है, इनके उठते ही सभी साथियों की नज़र इनके पिछवाड़े पर गिरती है ! अब सभी साथियों को मालुम होता है, रोज़ लोगों को तेल की चिकनाई वाली सीटों पर बैठाकर उनकी पतलून खराब करने वाले फुठरमलसा आज पूरे झिल गए हैं ! उनका वापस उसी जगह पर बैठ जाना, जहां बैठकर उन्होंने अभी खाना खाया है..! बदक़िस्मत से वे, उस तेल की चिकनाई वाली सीट को साफ़ करना भूल गए हैं ! और बिना ध्यान दिए, वे वापस वहीँ बैठ जाते हैं ! अब सभी उनका पिछवाड़ा देखकर, हंसते हैं ! सावंतजी से बिना डाइलोग बोले रहा नहीं जाता, वे हंसते हुए डाइलोग बोल देते हैं]

सावंतजी – [हंसते हुए कहते हैं] – आख़िर, आज पहाड़ के नीचे ऊंट आ गया है !

[ऊंचे क़द के छंगाणी साहब की नींद उड़ जाती है, इन लोगों के हंसने से ! सावंतजी का बोला गया डायलोग, वे अपने ऊपर ले लेते हैं ! जैसे ही उनके कानों में सावंतजी के शब्द गिरते हैं..वे चौंकते हुए कहते हैं]

छंगाणी साहब – भाई मैं लंबा ज़रूर हूं, मगर आप मुझे ऊंट मत समझो ! ऊंट की गाबड़ [गरदन] बहुत लम्बी होती है, मगर बाढ़ने [काटने] के लिए नहीं होती ! आप लोगों में से, किसी भाई को बैठना हो तो..आकर बिराज जाइये ! मगर, आप इस तरह मोसा [ताना] मत बोला करें ! सीधे आकर बिराज जाइये, यहाँ !

इतना कहने के बाद छंगाणी साहब को मेमसाहब याद आ जाते हैं, फिर क्या ? झट उठकर बैठ जाते हैं, और उनका किस्सा बयान करते हुए कहते हैं]

छंगाणी साहब – लीजिये जनाब, एक किस्सा बयान करता हूं ! एक दिन मेरे मेम साहब बोले, के...

रशीद भाई – [पछीत से उतरकर कहते हैं] – बस, बस..! आपकी मेम साहब का पुराण बाद में सुनेंगे, अब लूणी स्टेशन आ गया है ! अब आप चाय पीने-पीलाने की बात कीजिये !

[इन्जन सीटी देता है, गाड़ी की रफ़्तार कम हो जाती है ! गाड़ी आकर प्लेटफोर्म पर आकर रुकती है ! अब वेंडरों की आवाज़े प्लेटफोर्म पर गूंजती जाती है, इधर पुड़ी-सब्जी बेचने वाले वेंडर डब्बों की खिड़कियों के पास से गुज़रते हैं ! अब कभी चाय की थड़ी वाले की आवाज़ गूंज़ती है “चायेऽऽ ऊनी ऊनी चाय, मसाले वाली चाय !” तब कभी पुड़ी वाले शर्माजी की आवाज़ गूंज़ती है “अंईऽऽऽ पुड़ी-सब्जी दस रुपये पाव, साथ में ले लो दाणा मेथी का अचार..ओय पुड़ी खायके !” इनकी आवाजें सुनकर, फुठरमलसा उठकर डब्बे के दरवाज़े के पास चले आते हैं ! अब वे बाहर प्लेटफोर्म पर निग़ाह डालते हैं, वहां उन्हें चाय लाने वाला छोरा हुक्म सिंह दिखायी दे जाता है ! अब वे उसे आवाज़ देकर, अपने पास बुलाते हैं ! आवाज़ सुनकर, हुक्म सिंह हुक्म बजाने हेतु आता है निकट !]

हुकम सिंह – [चाय से भरा सिकोरा थमाते हुए, कहता है] – लीजिये जनाब, आपकी मनपसंद एम.एस.टी.कट चाय ! हुज़ूर दो दिन के, चाय के पैसे बकाया है ! अब दे दीजिये, जनाब ! नहीं तो, कल सेठ चाय देगा नहीं !

फुठरमलसा – पैसे कहाँ भागकर जाते हैं, भले आदमी ? आदमी की ज़बान का भरोसा, नहीं है रे कड़ी खायोड़ा ?

हुकम सिंह – जनाब आदमी का भरोसा कर सकता हूं, मगर आपका नहीं ! जनाब, आप तो..

[बाहर प्लेटफोर्म पर चाय पी रहे दयाल साहब, काजू साहब और शर्माजी के कानों में हुकम सिंह की आवाज़ सुनायी देती है ! यह बात सुनकर, वे इनको टका-टक देखते जाते हैं ! मगर कुबदी शर्माजी, बिना डाइलोग बोले कैसे रह पाते ?]

शर्माजी – [हुकम सिंह से कहते हैं] – बन्ना हुकम सिंहसा ! फुठरमलसा आदमी नहीं है, और पुरुष भी नहीं है ! मगर, महापुरुष ज़रूर है ! तूने शत प्रतिशत सही बात कही है !

[शर्माजी के कोमेंट्स सुनते ही, काजू साहब और दयाल साहब ज़ोर से ठहाका लगाकर हंसते हैं ! के.एल.काकू मुंह पर रुमाल दबाकर, मींई मींई नीम्बली की तरह हंसते जा रहे हैं ! अब फुठरमलसा सोचने को बाध्य हो जाते हैं, के ‘ये लोग इस तरह मेरी इज़्ज़त की बखिया उधेड़ देंगे, तो हुक्म सिंह जैसे पराये आदमियों के सामने मेरी क्या इज़्ज़त बनी रहेगी ?’ फिर क्या ? फुठरमलसा झट जेब से कड़का-कड़क दस का नोट निकालकर, हुकम सिंह को थमा देते हैं ! फिर, वे उससे कहते हैं]

फुठरमलसा – [नोट थमाते हुए कहते हैं] – ले भाई दस का नोट, हिसाब कल करेंगे ! अब तू धीरज रखना, कड़ी खायोड़ा !

हुक्म सिंह – [नोट लेकर, अपनी जेब में रखता है] – हजूरे आलिया, मैं कड़ी की सब्जी खाकर नहीं आया हूं ! मगर देसी घी में बनी लापसी, ज़रूर ठोककर आया हूं ! रूख्सत दीजिये, चलता हूं ! [जाता है]

[इंजन सीटी देता हैं, यात्री डब्बों में आकर अपनी सीटों पर बैठ जाते हैं ! अब गाड़ी लूणी स्टेशन छोड़ चुकी है ! और उसने, अपनी तेज़ रफ़्तार बना ली है ! अब बूट पोलिश करने वाले छोरों का दल, डब्बे में दाख़िल होता दिखाई देता है ! इन छोरों में अजिया, अनवर, बबलू, तनवीर और शहजाद, बातें करते हुए आगे बढ़ रहे हैं !]

शहजाद – [होंठों में ही, बड़बड़ाता हुआ चलता है] – सारी कमाई तुम लोग कर लोगे, नासपीटों, अरे मेरा भी ध्यान रखना ! सालों, मैं यहीं हूं ! [केबीन में घुसता हुआ गीत गाता है] ‘धीरे से जाना ओ खटमल ! धीरे से जाना केबीन में !’

अजिया – [बीच में अपनी टांग फंसाकर शहजाद को रोकता है, फिर कहता है] – हम तो हैं, खटमल ! आ इधर, पहले चूष लेता हूं तेरा खून !

बबलू – [अजिया की टांग दूर लेता हुआ कहता है] – चूष लेना यार, पहले इस मानव को कुछ कमाने तो दे ! आज इसकी कमाई से पाली से देखेंगे, फिल्म ‘बूट-पोलिश !’

अनवर – [सीटों पर बैठे एम.एस.टी. वालों को देखकर, कहता है] – क्या करे, कमाई ? यार, यहां तो एम.एस.टी. वाले भरे पड़े हैं ! और पीछे जाते हैं तो बैठे हैं, टी.टी.ई ! ये टी.टी. लोग तो, मुफ़्त में करायेंगे बूट पोलिश ! मगर ये भले इंसान तीन की जगह दो-दो रुपये, बूट पोलिश करवाकर देते हैं !

छंगाणी साहब – [बूट पोलिश करने वाले छोरों को देखकर, कहते हैं] – मरो मत रे, दो-दो रुपये के लिए ! आ जाइये इधर, मुझे मेरे बूटों की मरम्मत भी करवानी है और पोलिश भी !

अजिया - [बबलू के कान में कहता है] – यार, मुर्गा फंस गया ! अब बता, इसे हलाल करेगा कौन ? तू या मैं ?

[छंगाणी साहब अपने बूट खोलते हैं ! ये बूट तो ऐसे लगते हैं, मानो ‘ये बाबा आदम के ज़माने के हों ? बीसों पैबंद लगे हुए, बस इस तरह छंगाणी साहब इन बूटों पर मेहरबानी करके..पैबंद लगवा-लगवाकर, इसकी उम्र बढ़ाते जा रहे हैं !’

रशीद भाई – साहब, मुझे तो ये जूत्ते लगते हैं....

छंगाणी साहब – [बात काटते हुए कहते हैं] – ज़्यादा पुराने नहीं है रे, रशीद भाई ! पिछले दस साल पहले शादी की सालगिरह मनाई थी, तब ससुराल से ये बूट मुझे भेंट में मिले थे ! ससुराल का माल है, भाई ! यों कैसे फेंक दे, इनको ? मेमसाहब को नाराज़ करना है, क्या ? !

[छोरे नज़दीक आकर बैठ जाते हैं, आँगन पर ! फिर एक-एक छोरा बूट को हाथ में लेकर, जांच करता हैं ! उनको जांच करते देख, छंगाणी साहब अपने पुराने ओहदे का रौब ग़ालिब करते हुए कहते हैं]

छंगाणी साहब – [रौब ग़ालिब करते हुए, कहते हैं] – देखो रे, छोरों ! पूरी उम्र मैंने इंजीनियरिंग की है, सरकारी महकमें में ! वहां क़ायदा था, पहले एस्टीमेट तैयार कराने का ! फिर क्या ? ठोकिरों, तुम सभी बैठकर बनाओ एस्टीमेट..! तुम सभी छोरे अपनी अलग-अलग रेट बताओ, बूटों की मरम्मत और पोलिश करने के क्या लोगे ?

अजिया – क्या कह रहे हो, हुज़ूर ?

छंगाणी साहब – कहना क्या ? जो छोरा कम पैसा बताएगा, उसको बूट तैयार करने का आर्डर मिल जाएगा और क्या ? बात तो भाई, क़ायदे की है !

सावंतजी – [कुबदी दिमाग़ चलाते हुए, कहते हैं] - साहब, एस्टीमेट लेने के पहले अपने कमीशन के रुपये अलग रखवा लेना..फिर ये छोरे, कमीशन के रुपये देने वाले नहीं ! आपके गृह मंत्री मेमसाहब को मरम्मत के रुपये ज़्यादा बताकर, कमीशन की राशि का पान ठोक जाना !

ठोक सिंहजी – [हंसते हुए कहते हैं] – शत प्रतिशत सही बोला है, सावंतजी ने ! सरकारी महकमों में, कमीशन लेने-देने का रसूख होता है ! यार सावंतजी ! आप तो टेंडर खोलने का पूरा काम, इनसे करवा लीजिये ! आप छंगाणी साहब जैसे भले आदमी की मदद करेंगे..तो रामा पीर, आपका भला करेगा !

[इनकी बातें सुनकर, छोरे हंसने लगे ! यह मामला ठहरा, ख़ाली आठ या दस रुपये का..और इंजिनियर साहब खोलने बैठ गए, टेंडर ? छोरे उठकर रूख्सत हो जाते हैं, और साथ में जाते हुए कहते हैं]

छोरे – [रूख्सत होते हुए कहते हैं] – ये साहब काम करवाने वाले नहीं, क्योंकि यहां तो तिलों में तेल नहीं !

[मगर बेचारा अजिया जा नहीं पाता, वह यहीं खड़ा रह जाता है ! क्योंकि आज़, उसकी बोवनी हुई नहीं है ! बस इसी आशा में यहीं बैठा रह जाता है, शायद छंगाणी साहब थोड़ा ऊपर नीचे रेट बताते हुए ओर्डर दे दे ? अब वह आशामुखी बना हुआ, साहब से कहता है]

अजिया – साहब, पोलिश कर दूं क्या ?

रशीद भाई – पोलिश कर देगा क्या, साहब की ?

सावंतजी – [हंसते हुए कहते हैं] – कर दे, यार ! साहब को मत छोड़ ! ये है भी काले, तेरी पोलिश ज़्यादा ख़र्च होगी नहीं..काफी बचत हो जायेगी, तेरी ! रोकड़े पैसे मिल जायेंगे, और साहब का क्या ? इनके काले रंग पर, थोड़ी चमक और आ जायेगी ! सौदा अच्छा है, ‘सोना में सुहागा !’

[कल देर रात को ठोक सिंहजी ने देखी थी, बाबा रामसा पीर की फिल्म ! अब उनकी पलकें नींद के कारण भारी हो रही है, धीरे-धीरे वे वे झपकी लेते दिखायी देते हैं ! इधर अजिया सोच रहा है, “मजाकों से, पेट भरा नहीं जाता !” यह सोचकर अजिये ने एक हाथ में बूट पोलिश की थैली, और दूसरे हाथ में ब्रूस थाम लिया है ! अब बेचारा अजिया उठता है, और करता है जाने की तैयारी ! उसको ब्रुस हाथ में लिए देखकर, छंगाणी साहब घबरा जाते हैं ! और उन्हें डर है, ‘कहीं यह छोरा, उनका मुंह काला करने तो नहीं आ रहा है ?’

छंगाणी साहब – [दूर हटते हुए, कहते हैं] – क्या कर रहा है, ठोकिरा ? मुंह काला करेगा, क्या ?

अजिया – [हंसता हुआ कहता है] – साहब, आज़कल पोलिश बहुत महंगी आती है ! मुझे यह कीमती पोलिश, खराब नहीं करनी है जी !

[ब्रूस थैली में डालकर, अजिया ने तो रवाना होने की तैयारी कर ली है ! मगर छंगाणी साहब के बूटों की मरम्मत करवाने का जो सिलसिला चला है, उसकी हाका-दड़बड़ ने ठोक सिंहजी को नींद से उठा दिया है ! अब वे क्रोधित होकर, अजिये को फटकारते हैं !]

ठोक सिंहजी – [अजिये को, गुस्से में कहते हैं] – दूर हट, कमबख्त ! मेरी नींद उड़ा दी ! सुनहरे स्वप्न आ रहे थे, और तूने फंसा दी फाडी !

[अब वे अजिये को ठोकने के लिए, पांव से चप्पल निकालते हैं ! मगर जैसे ही वे उसे ठोकने के लिए उठते हैं, मगर अजिया उनका यह रूप देखकर झटपट हो जाता है नौ दो ग्यारह ! अब सावंतजी को सूझती है, कुबद ! वे चुप-चाप रशीद भाई को इशारा करते हैं, और उसके बाद वे छंगाणी साहब से कहते हैं]

सावंतजी – देखो छंगाणी साहब ! मुझे केवल, बाटा के ही बूट पसंद है ! [रशीद भाई से हुँकारा भरवाते हुए कहते हैं] ए रे, रशीद भाई ! तीन-चार साल तक काम लेने के बाद, इन बूटों को ख़राब होते तूने देखा क्या ?

[सावंतजी आँख मारकर, रशीद भाई को इशारा करते हैं]

रशीद भाई – जी हां, बाटा के ही बूट खरीदने चाहिए ! हम लोगों को जब भी बूट खरीदने होते हैं, तब हम बाटा के ही बूट ख़रीदते हैं ! बूट तो हम लोग एक बार ही ख़रीदते हैं, मगर हर साल दफ़्तर में बूटों का बिल ज़रूर प्रस्तुत कर देते हैं ! इस तरह हर साल बिल पारित करवाकर, पैसे उठा लेते हैं !

दीनजी – वाह भाई, वाह ! ऐसे कैसे हो सकता है, रशीद भाई ? आप बूट लाते ही नहीं, और रुपये कैसे उठा लेते हैं ? आपके दफ़्तर में कहीं अंधेर नगरी, और चौपट राजा का राज है ?

सावंतजी – देखो भा’सा ! हमारे दफ़्तर में हर कर्मचारी को, ६०० रुपये का बज़ट जूत्ते खरीदने के लिए मिलता है ! इस कारण हम, जूत्ते का बिल लाकर दफ़्तर में जमा करवा देते हैं..और जूत्ते के पैसे उठा लेते हैं !

रशीद भाई – [छंगाणी साहब की तरफ़ देखते हुए कहते हैं] – छंगाणी साहब, आप यों क्यों नहीं करते ? बाटा के बूट ख़रीदकर, आप उसका बिल हमें दे दें ! फिर बिल उठने पर, हम और आप पैसे आपस में बांट लेंगे ! इस तरह, अपुन दोनों को फ़ायदा !

सावंतजी – देखिये जनाब, यह बूटों की जोड़ी आती है छ: सौ रुपये में ! हम लोग इसका भुगतान उठाकर, आपको दे देंगे सौ रुपये और शेष ५०० रुपये हम रख लेंगे ! इस तरह आपको फ़ायदा ही होगा, आपको जूत्ते पड़ेंगे..

छंगाणी साहब – मेरे खोपड़े पर नहीं, मैंने कौनसी ग़लती की है ?

सावंतजी – [हंसी का ठहाका लगाकर कहते हैं] – अरे जनाब, आपकी जूत्तों से पिटाई नहीं होगी..बल्कि, आपके लिए जूत्तों की कीमत होगी ५०० रुपये ! क्योंकि, सौ रुपये आपको मिल गए हैं !

छंगाणी साहब – [हंसते हुए कहते हैं] – ठोकिरा, बिना पैसे दिए कैसे कह रहे हो ?

सावंतजी – मज़ाक मत करो, छंगाणी साहब ! हमने, उदाहरण के तौर पर कहा है !

छंगाणी साहब – तब ठीक है जनाब, वैसे भी मेमसाहब ने भी कह दिया है, नए बूट ला दीजिये ! अब मेरे पीहर वाले के भरोसे रहना नहीं, क्योंकि अब मेरे भतीजे की समता नहीं है..आपको चांदी के जूत्ते मारने की ! अरे नहीं जनाब, जूत्ते दिलाने की !

सावंतजी – काकीसा कहती है, सत्य बात ! अब आप जूत्ते खाय लो ! अरे सा, जबान चूक गयी..कहता था, जूत्ते ख़रीद ही लो !

छंगाणी साहब – ला दूंगा, जनाब ! आप लोगों का सहयोग रहा तो..! मेमसाहब को भले, बाटा के ही जूत्ते पसंद है ! बस आपने जैसे कहा अभी, वैसे ही बस..

सावंतजी – [मुस्कराते हुए कहते हैं] – बस बस क्या कहते हो, जनाब ? क्या बस में बैठाकर, आप हमें तीर्थ करवाने के लिए ले जा रहे हैं...?

छंगाणी साहब – बस में ले जाने का धंधा करने वाले, मेरे मेमसाहब के भतीजे है ना, उनकी मासी सासजी के जेठजी के सालाजी हैं ! आप कह दो तो, मैं उनके पास से टिकट ला देता हूं ? एक टिकट का लेंगे, लगे-टगे दस हज़ार रुपये ! चार धाम की यात्रा करवा देंगे, बड़े आराम से !

सावंतजी – छंगाणी साहब ना तो हमें जाना है, तीर्थ यात्रा ! और ना आपकी बांची हुई पुड़ में, किसी का रिश्ता कराना है ! अब आप अपने काम की बात पर, आ जाइये ! बात ऐसी है है छंगाणी साहब, ऐसे तो आपको बाटा के बूट खरीदने ही है..बस, फिर क्या ? बूट ख़रीदकर ला दीजिये छ: सौ रुपये का बिल, लाकर दे दीजिये..हमें !

छंगाणी साहब – [राज़ी होकर कहते हैं] – फिर..?

सावंतजी – मैं आपको देता हूं, सौ रुपये रोकड़ा ! आपका काम सलट जाएगा, और मेरा भी काम बन जाएगा ! [होंठों में ही] फिर आप मांगोगे सौ रुपये, तब मैं दूंगा आपको दो-दो रुपये प्रति दिन, इस तरह भले और करना कंजूसी !

छंगाणी साहब – बड़ी मेहरबानी होगी, आपकी ! इस रविवार को ही मैं ले आऊंगा, बाटा के बूट ! फिर देखना जनाब, पांच मिनट में पहुंच जाऊंगा स्टेशन से अपने घर ! फिर मेमसाहब...

[अब रोहट स्टेशन निकल गया है, रशीद भाई को अब हो गया है बाबा का हुक्म ! वे तो झट बैग से साबुन की टिकिया लेकर चले जाते हैं, पाख़ाना ! इधर जूत्ते आने की आशा में, छंगाणी साहब कल्पना के समुन्द्र में गौते खाते जा रहे हैं ! अब उनकी पलकें, भारी होती जाती है ! वे बैठे-बैठे, सुनहरे स्वप्न में खो जाते हैं ! स्वप्न में वे, अपने-आपको छैल बगीचे में पाते हैं ! उनके बदन पर सफ़ेद सफारी सूट पहना हुआ है, और पांवों में बाटा कंपनी के नए बूट पहने हुए है ! इनकी भागवान झूले झूल रही है, और साथ में वह अपने पति छंगाणी साहब को याद करती हुई गीत गा रही है]

मेमसाहब – [गीत गाती हुई, झूला झूल रही है] – “भंवर बागा में आइज्योजी, म्हने आवे थोरी ओलू..थे आइज्योजी !”

[छंगाणी साहब छुपते-छुपते आते हैं, फिर चुपचाप उनके पीछे जाकर अपने दोनों हाथों से उनकी आँखें बंद कर लेते हैं !]

मेमसाहब – भगवन, आ गए ? आज जल्दी कैसे आये..

छंगाणी साहब – [आँखों से हाथ हटाते हैं, फिर कहते हैं] – भागवान, लो देखो मैं क्या लाया ?

[मेमसाहब की निग़ाह गिरती है, उनके बाटा कंपनी के नए बूटों पर ! फिर क्या ? मेमसाहब तड़कती है, दामिनी की तरह ! गुस्से में चिल्लाकर कहती है]

मेमसाहब – [गुस्से में चिल्लाकर, कहती है] – किससे पूछकर लाये, ये बाटा के बूट ? इस तरह पैसे उड़ाओगे, तो हो जाओगे कंगाल !

छंगाणी साहब – [भयग्रस्त होकर कहते हैं] – नाराज़ मत हो, भागवान ! मैं मुफ़्त में लाया..लाया...

[इधर इनके कंधे पर भारी दबाव महशूस होता है, वे चमकते हैं ! उनके चौंकते ही, आ रहा सपना चकनाचूर हो जाता हैं ! और वे ख्यालों की दुनिया से, बाहर निकल जाते हैं ! अब वे आंखें मसलकर सामने देखते है, सामने उन्हें फुठरमलसा दिखायी देते हैं ! जो उनका कंधा दबाते हुए, कह रहे हैं]

फुठरमलसा – [कंधा दबाते हुए कहते हैं] – यह क्या ? मैं बेचारा कब से मांग रहा हूं पेन, और भा’सा आप कहते जा रहे हैं “मुफ़्त में लाया..मुफ़्त में लाया” ? तब दे दीजिये ना, आपका मुफ़्त का पेन ! मुझे करना था फोन, और इधर दयाल साहब कड़ी खायोड़ा का मोबाइल काम कर नहीं रहा..ठीकरा लेकर आ गए, कमबख्त ?

[ऊंघ से उठे छंगाणी साहब टकटकी लगाकर फुठरमलसा को देखते हैं, इस तरह मेणे की तरह देख रहे छंगाणी साहब को फुठरमलसा कहते हैं]

फुठरमलसा – अब मुझे उस आदमी के मोबाइल नंबर दयाल साहब से लेने होंगे, इसलिए आपके पास पेन माँगने आया हूं ! [उनका कंधा झंझोरते हुए] क्यों मेणे की तरह, मुझे देखते जा रहे हो ? दीजिये ना, आपका मुफ़तिया पेन !

[आब-आब होते हुए छंगाणी साहब, जेब से ‘यूज़ एंड थ्रो’ वाला पेन निकालकर उन्हें थमा देते हैं ! तभी इंजन की सीटी सुनायी देती है, छंगाणी साहब खिड़की के बाहर झांकते हैं..उन्हें ऐसा लगता है, के ‘गुमटी तो पीछे रह गयी है’ ! इसका आभास पाते ही, वे चमकते हैं..]

छंगाणी साहब – [भौंचके होकर, कहते हैं] – अरे तापी बावड़ी वाले बालाजी, यह क्या हो गया ? पीर दुल्ले शाह हाल्ट निकल गया..? ए मेरे श्याम धणी, यह क्या कर डाला..मुझे मालुम ही न पङा ? अब...

[फुठरमलसा चले जाते हैं, मगर इधर रशीद भाई केबीन में दाख़िल होते हैं ! उन्होंने छंगाणी साहब का बोला गया जुमला, सुन लिया है ! इस कारण छंगाणी साहब को, मोसा बोलने में वे पीछे नहीं रहते]

रशीद भाई – [बैग में साबुन की टिकिया डालते हुए, कहते हैं] – ओ छंगाणी साहब ! आप तो लेते रहो, आराम से खर्राटे ! अब, पीर दुल्लेशाह तो क्या ? पाली भले निकल जाएगा, और आप ऊंघ लेते-लेते पहुँच जाओगे खारची ! देखो, मैं तो निपटकर आ गया, अब आप जाकर लघु-शंका से निवृत होकर आ जाइये ! वापस आकर आप, पाली उतरने की तैयारी कर लीजिये !

[फुठरमलसा को छोड़कर सभी अपना बैग लिए, डब्बे के दरवाज़े के पास आ जाते हैं ! फुठरमलसा को लेने है मोबाइल नंबर, इसलिए वे भी दयाल साहब के पास आकर खड़े हो जाते हैं ! इंजन सीटी देता है, पाली की कृषि-मंडी और आवासन मंडल की कोलोनियां भी पीछे रह जाती है ! अब फुठरमलसा, दयाल से कहते हैं]

फुठरमलसा – पाली आ गया है, जनाब ! मगर मेरे पास कोई मेसेज नहीं, के ”डी.एम. साहब कब आयेंगे ?’ ज़रूरत मुझे आज ही हुई है, मगर आपका मोबाइल हो गया ख़राब ? कुछ नहीं जनाब, आप काम लेते रहना इस ठीकरे को ! अभी पाली स्टेशन पर महेश मिलेगा, तब मैं उससे सारे जानकारी ले लूंगा !

[इतना कहकर, फुठरमलसा झट जाकर पास वाली खिड़की के पास खड़े हो जाते हैं !]

दयाल साहब – [मुस्कराते हुए कहते हैं] – कुतिया का ताऊ, साला पूरा डफोल निकला ! इतना भी नहीं समझता, चैनल नहीं पकड़ रहा है अभी..खाक़ मोबाइल चलेगा ?

[पाली स्टेशन का प्लेटफोर्म आता दिखाई देता है, गाड़ी की रफ़्तार कम हो जाती है ! भाऊ की केन्टीन के बाहर महेश और लूणकरणजी को खड़े देखकर, फुठरमलसा खिड़की से मुंह बाहर निकालकर ज़ोर से आवाज़ देते हैं]

फुठरमलसा – [महेश को आवाज़ देते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – ए रे महेश कड़ी खायोड़ा ! वहीँ खड़े रहना, मैं आ रहा हूं तेरे पास !

[यह महेश है, खारची डिपो का मुलाज़िम ! जो पाली से रोज़ का आना-जाना करता है ! ये लूणकरणजी है, डस्ट ओपेरटर पाली डिपो के ! गाड़ी नहीं आने तक, ये यहाँ खड़े चाय पीते रहते हैं ! गाड़ी जाने के बाद, आकर खड़े हो जाते हैं, क्रोसिंग फाटक के पास ! वहां स्कूटर पर आते मानारामसा से लिफ्ट लेकर, वे दफ़्तर चले जाते हैं ! अब गाड़ी रुक गयी है, सभी नीचे उतरते हैं ! फुठरमलसा झट तेज़ चलते हुए, भाऊ की केन्टीन की तरफ़ क़दम बढाते हैं ! और साथ में वे, महेश को भी पुकारते जाते हैं !

फुठरमलसा – [महेश को आवाज़ देते हुए जाते हैं] – ए रे महेश, कड़ी खायोड़ा ! आ रहा हूं मैं, वहीँ खड़े रहना !

[चलते-चलते सावंतजी, लूणकरणजी की तरफ़ अंगुली का इशारा करते हुए..रशीद भाई से कहते हैं !]

सावंतजी – [लूणकरणजी की तरफ़, अंगुली से इशारा करते हुए कहते हैं] – ये लूणकरणजी, यहाँ आकर क्यों खड़े हो गए ? अकेले खड़े-खड़े जनाब, चाय पीते जा रहे हैं ?

ठोक सिंहजी – अरे यार सावंतजी अपुन लोगों की याद आती है, इसलिए यहाँ पधारे हैं..! असल में याद आती है, अपुन लोगों के खाने के टिपन की !

रशीद भाई – अरे जनाब, ये ऐसे आदमी है..जो रोटियाँ गिटेंगे अपनी ! और खाने के बाद कहेंगे बिल्ली की तरह के “ये कैसी सब्जी बनायी काकीसा ने, काकीसा की मां की..[गाली की पर्ची निकालते हैं] ?” अब, करें क्या ? अपनी रोटियाँ खाकर, देंगे भी अपुन को गालियाँ ! कैसे-कैसे आदमी है, इस खिलकत में ?

दीनजी – रशीद भाई, क्यों खिलाते हो रोटियाँ ? रोटियाँ की जगह, खिला दिया करो गालियां !

[द्रुत चाल चलते हुए फुठरमलसा पहुँच जाते हैं, महेश और लूणकरणजी के पास ! पीछे-पीछे सावंतजी, ठोक सिंहजी, दीनजी और रशीद भाई भी पहुँच जाते हैं..भाऊ की केंटीन के पास ! उनके आते ही, महेश उनसे कहता है]

महेश – अरे गज़ब हो गया, दो दिनों बाद आज फुठरमलसा के दीदार हुए हैं ! [फुठरमलसा से कहते हैं] जनाबे आली, आपके जाने के बाद हमारे डी.एम. साहब ने तशरीफ़ रखी ! आपको वहां न पाकर, साहब आपसे बहुत नाराज़ होकर गए हैं ! साथ में यह कहकर भी गए हैं, के ‘फुठरमल को आते ही कहना, मुझे फोन करें !’

फुठरमलसा – ऐसे वक़्त आपको फोन करना चाहिए था, मुझे ! अगर आप फोन करते, तो मैं ज़रूर उनसे मुलाक़ात कर लेता ?

महेश – अरे भाईजान कैसे करता आपको फोन, कभी आपने सही नंबर दिए क्या ?

[लूणकरणजी नज़दीक आकर, फुठरमलसा से कहते हैं]

लूणकरणजी – आपका जो होना था, वह हो गया ! अब जाकर अपने इन साथियों को बचाओ ! यह आपका बाप डी.एम., पाली डिपो में आ गया है ! और इस ठोकिरे ने रशीद भाई, सावंतजी और ठोक सिंहजी के हाज़री कोलम में लाइन खींच दी है ! मैंने उनको बहुत समझाया के “गाड़ी लेट है, इसलिए वे लोग वक़्त पर नहीं आ पाये ! अब वे, आने वाले ही हैं !”

फुठरमलसा – अब तू आगे बोल, आगे उन्होंने क्या कहा ?

लूणकरणजी – इतना कहा और मेरा बाप बिफर गया, और फिर बोला तड़ाक से...के, “ये लोग रोज़ का आना-जाना करते हैं, अब इन सबको लगा देते हैं अजमेर..फिर देखता हूं, कैसे करते हैं अप-डाउन ?”

[गाड़ी रवाना होने का वक़्त हो जाता है, इंजन सीटी देता है ! महेश और फुठरमलसा दौड़ते-भागते, अपने डब्बे में दाख़िल होते हैं ! गाड़ी रवाना हो जाती है, थोड़ी देर में ही वह नज़रों से ओझल हो जाती है ! अब लूणकरणजी चाय का अंतिम घूँट लेकर, सावंतजी, रशीद भाई और ठोक सिंहजी से कहते हैं]

लूणकरणजी – खड़े क्या हो, मेरे बाप ? अब चलिए, दयाल साहब कभी पटरियां पार करके दफ़्तर पहुँच चुके होंगे ! [ख़ाली कप काउंटर पर रखते हैं]

सावंतजी – [रोवणकाळी आवाज़ में कहते हैं] – ये अफ़सर, करते क्या हैं ? निचोड़े हुए को, और निचोड़ते हैं ! मगर अब हम लोगों में कहाँ रहा, रस ? जनाब, हम तो घिसी-पिटी फ़िल्में हैं !

[थोड़ी देर बाद, प्लेटफोर्म पर खड़े दीनजी क्या देखते हैं ? सावंतजी, रशीद भाई और ठोक सिंहजी, पांव घसीटते-घसीटते दफ़्तर की ओर जाते नज़र आते हैं ! उनको देखकर, दीनजी के मुख से स्वत: यह जुमला निकल जाता है]

दीनजी – [उनको जाते देखकर, कहते हैं] – लीजिये, ये घिसी-पिटी फ़िल्में अब भी चल रही है ! अरे सा, अभी-तक इनमें जान बाकी है ! लूणकरणजी अभी इनमें, ज़रूर थोड़ा रस बचा होगा ! दफ्तर पहुंचते ही, यह कमबख्त डी.एम. निचोड़ लेगा इन्हें !

[थोड़ी देर बाद, मंच पर अन्धेरा फ़ैल जाता है !]




लेखक का परिचय
लेखक का नाम दिनेश चन्द्र पुरोहित
जन्म की तारीख ११ अक्टूम्बर १९५४
जन्म स्थान पाली मारवाड़ +
Educational qualification of writer -: B.Sc, L.L.B, Diploma course in Criminology, & P.G. Diploma course in Journalism.
राजस्थांनी भाषा में लिखी किताबें – [१] कठै जावै रै, कडी खायोड़ा [२] गाडी रा मुसाफ़िर [ये दोनों किताबें, रेल गाडी से “जोधपुर-मारवाड़ जंक्शन” के बीच रोज़ आना-जाना करने वाले एम्.एस.टी. होल्डर्स की हास्य-गतिविधियों पर लिखी गयी है!] [३] याद तुम्हारी हो.. [मानवीय सम्वेदना पर लिखी गयी कहानियां].
हिंदी भाषा में लिखी किताब – डोलर हिंडौ [व्यंगात्मक नयी शैली “संसमरण स्टाइल” लिखे गए वाकये! राजस्थान में प्रारंभिक शिक्षा विभाग का उदय, और उत्पन्न हुई हास्य-व्यंग की हलचलों का वर्णन]
उर्दु भाषा में लिखी किताबें – [१] हास्य-नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” – मज़दूर बस्ती में आयी हुई लड़कियों की सैकेंडरी स्कूल में, संस्था प्रधान के परिवर्तनों से उत्पन्न हुई हास्य-गतिविधियां इस पुस्तक में दर्शायी गयी है! [२] कहानियां “बिल्ली के गले में घंटी.
शौक – व्यंग-चित्र बनाना!
निवास – अंधेरी-गली, आसोप की पोल के सामने, वीर-मोहल्ला, जोधपुर [राजस्थान].
ई मेल - dineshchandrapurohit2@gmail.com


 










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1 टिप्पणियाँ

  1. आप किसी दफ़्तर में चले जाय, वहां पड़ी सरकारी चीज़ को मुफ़्त की समझकर फ़टाफ़ट काम में नहीं लेवें..न मालुम आप ये मुफ़्त की चीजें आपके लिए मुसीबत ला सकती है ! इसलिए कहता हूं, सरकारी चीजों को क्यों आप फ़ोकट की मानते हैं ? जनाब, फुठरमलसा की तरह आप भी बिना जानकारी उन चीजों को इस्तेमाल कर लेंगे तो आप भी मुसीबत में फंस सकते हैं ! अब आप इस खंड को पढ़िए, और फुठरमलसा की तरह मुफ़्त में चीज़ काम लेना छोड़ दीजिये !

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