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बुधनिया का सपना [कहानी]- के. ई. सैम

रचनाकार परिचय:-

के. ई. सैम
स्वतंत्र पत्रकार
E mail- kumejsaem@gmail.com k

हिरनी जैसी कुलांचें मारने की आयु बुधनिया की हो चली थी. बचपन से जवानी की दहलीज पर वह कदम रख चुकी थी. जंगलों, पहाड़ों के बीच खेलती कूदती इठलाती बुधनिया अब एक पूर्ण जवान लड़की के रूप में विकसित हो चुकी थी. साथ साथ उसके बचपन के सपने में भी पंख पखेरू लग चुके थे. शहर देखने का सपना. हाँ, यही तो था उसका सपना जो वह जंगल में आये अपने किसी जनजातीय समूह के सदस्यों से कभी कभार सुना करती थी कि शहर ऐसा होता है, शहर वैसा होता है. उसने तो शहर कभी देखा ही नहीं था. वह तो गाँव, कसबे से भी पूरी तरह वाकिफ नहीं थी. केवल सुदूर पहाड़ी के तराई में बसा एक छोटा सा गाँव था जहाँ वह कभी कभी अपनी माँ के कहने पर नून, तेल आदि लाने जाया करती थी. बस वही तो उसने देखा था. उसका जनम तो जंगल, पहाड़ों पर ही हुआ था. घने जंगलों के बीच पेड़, पौधों, जंगली जानवरों के साथ ही वह पली बढ़ी थी. और यदि कोई था तो उसके समूह के कुछ सदस्य जिनसे वह परिचित थी. मंगरा से उसने इसीलिए तो बहुत अधिक मित्रता कर रखा था. वह दो साल शहर में रहकर आया था. वहां वह इंट, पत्थर ढोने का काम करता था. पर पिता के अकस्मात् मृत्यु के बाद उसकी माँ को देखने वाला कोई नहीं था इसलिए मंगरा अपनी मां की सेवा करने के लिए अपने गाँव लौट गया था. मंगरा जब आया था तो जंगल के कई लोग उसे घेरकर शहर के बारे में जानना चाहते थे और बुधनिया उनमे सबसे ज्यादा उत्सुक दिखाई देती थी. मंगरा से उसने गहरी दोस्ती कर लिया था. बुधनिया मंगरा से हमेशा पूछा करती थी कि शहर कैसा होता है. वहां के लोग कैसे होते हैं. क्या वहाँ के लोग भी हमारे जैसे ही होते हैं. क्या वहाँ भी लोग ऐसे ही रहते हैं. जंगलों, पहाड़ों, पेड़ों के नीचे? खेती करते हैं, पत्थर तोड़ते हैं, पशु चराते हैं, झाड़ फूस चुनते हैं? या वहां का जीवन कुछ अलग तरह का है. मंगरा उससे पहाड़ की छोटी पर बैठकर घंटों बातें किया करता था. वह उसे शहर के विषय में बताता था और वह अचंभित होकर सुना करती थी. जब मंगरा कहता था कि नहीं शहर के लोग झाड़ झूड़ नहीं चुनते न ही वे पत्थर तोड़ते हैं और न ही वे इस तरह से रहते हैं. उनका रहन सहन खान पान सब अलग होता है. वहां लंबी, चैड़ी व पक्की सड़कें हुआ करती हैं. वहां बड़े बड़े विशाल आसमान को छूते पक्के मकान होते हैं. वहां ट्राम और मोटर गाड़ियाँ चलती हैं. बड़े बड़े कल कारखाने और कार्यालयों में वे काम करते हैं. शहर भीड़ भाड़ से भरा होता है. किसी कोने में भी वहाँ शांति नहीं मिलती है. वहां के लोग बहुत ही व्यस्त रहते हैं. यह सब सुनकर वह अचंभित हो जाया करती थी. फिर वह पूछती थी कि अच्छा मंगरा बता तो, वहां की स्त्रियाँ कैसी होती हैं. कैसे रहती हैं. मंगरा उसे बताता कि शहर की स्त्रियाँ बहुत ही सुन्दर बनने का प्रयत्न करती हैं. कुछ महिलाएं तो पैंट शर्ट भी पहनती हैं. हैट (टोपी) लगाती हैं. यह सुनकर बुधनिया आश्चर्य से आँखें फाड़ लिया करती थी कि युवतियां पैंट शर्ट पहनती हैं, हैट लगाती हैं. एक दिन तो बुधनिया ने अपने दांतों तले अंगुली ही दबा लिया था जब मंगरा ने उसे बताया था कि शहर में महिलाएं, युवतियां मोटर गाड़ियाँ चलाती हैं. दो पहिया और चार पहिये वाली बड़ी बड़ी गाड़ियाँ भी चलाती हैं. तब वह आश्चर्य से आँखें फाड़कर मंगरा को देख रही थी. उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था. उसने उसे टोका था कि मंगरा भले मै शहर नहीं गई हूँ पर मै उतनी बेवकूफ भी नहीं. तू मुझसे इतना झूट क्यों बोल रहा है रे, पर मंगरा के कंठ पकड़कर विश्वास दिलाने पर उसने आँखें फाड़ लिया था कि लड़कियां गाड़ी चलाती हैं? यहाँ हमारे जंगल में तो पुरुष भी गाड़ी नहीं चलाते, न ही किसी के पास गाड़ी है. उधर सुदूर कसबे में दो चार पुरानी गाड़ियाँ हैं मगर वहाँ तो कोई स्त्री गाड़ी चलाना तो दूर उसपर बैठती भी नहीं है. शहर में स्त्रियाँ गाड़ियाँ चलाती हैं. फिर उसे मंगरा ने बताया था कि वहां लड़कियां दौड़ दौड़ कर बसों और ट्रेनों में चढ़ती हैं. और अकेले यात्रा करती हैं. यह सब सुनकर बुधनिया आश्चर्य से आँखें फाड़ लिया करती थी. एक दिन मंगरा की यह बात सुनकर कि शहर की महिलाएं तो आसमान में भी हवाई जहाज से यात्रा करती हैं, कहा था कि मंगरा तू तो झूठ नहीं बोलता था. शहर जाकर तू भी झूठ बोलना सीख गया. मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा है, पर मंगरा ने कहा था कि मैंने तो कंठ पकड़कर तुझको विश्वास दिलाया है. अब तू विश्वास नहीं करेगी तो मै क्या करूँ. मै झूठ नहीं बोल रहा हूँ. इसपर बुधनिया बहुत देर तक सोचती रही थी कि कैसी होती होंगी वे महिलाएं जो गाड़ियां चलाती हैं. कैसी होंगीं वे युवतियां जो पैंट शर्ट पहनकर हैट लगाकर अकेली यात्रा करती हैं. अकेली दूर पढ़ने जाया करती हैं. हवाई यात्रा करती हैं. उसे ये सब किसी परी कथा जैसा ही लग रहा था. उसने सोचा, काश उन लड़कियों को मै देख सकती. उनसे मिल सकती. उनसे बातें कर सकती. मंगरा ने उसे बताया था कि वहां काम करने वाले बाबू वातानुकूलित कार्यालयों में बैठकर काम करते हैं. वातानुकूलित क्या होता है, पूछने पर मंगरा ने बताया था कि गर्मी से बचने के लिए ठंडे घर, कार्यालय, गाड़ियाँ आदि बनाये जाते हैं. वहां कार्यालयों में काम करने वाले बाबुओं से कोई यूँ ही मिलने नहीं जा सकता. कई लोगों से पूछकर जाना पड़ता है. वहां बड़े बड़े मेले हर समय लगे रहते हैं. मेले में मोटर गाड़ियाँ भी होती हैं. जिन्हें बच्चे भी चलाते हैं. इन बातों को सुनकर बुधनिया तो एक दम आश्चर्य से भर जाती थी कि बच्चे भी गाड़ियाँ चलाते हैं मेले में. यहाँ जंगल में मेले तो लगते ही नहीं. चार साल पहले यहाँ एक झूला वाला अवश्य आया था मगर वह भी केवल दो दिन रहकर यह कह कर चला गया था कि यहाँ तो व्यापार होता ही नहीं है. जंगल में कभी हम सखी, सहेलियां झूला झूलती भी हैं तो पेड़ की डाली में रस्सी बांधकर झूलती हैं. बाजे वाले झूले और मोटर गाड़ियां तो हम लोगों ने देखा भी नहीं है. वह आह भरकर रह जाती कि काश मुझे भी कोई शहर ले जाता. मै शहर देखती शहरी बाबू से मिलती. यह वह प्रायरू सोचती रहती थी. मंगरा ने उसे बताया था कि शहर में मीलों लंबी दुकाने लगी रहती हैं. बड़े बड़े बाजे बजते हैं. चीटियों की कतार के जैसी बड़ी बड़ी गाड़ियाँ रेंगती रहती हैं. वहां हर जगह गाजे बाजे बजते रहते हैं. फिर उसने उसे बताया था कि शहर में डिजनीलैंड भी होता है. बुधनिया ने पूछा था कि यह थिस्निलेंड क्या होता है. मंगरा ने बताया था कि वहां पैसे का बहुत खेल होता है. शहर में बिना पैसे के रहना बहुत ही मुश्किल है. बुधनिया सोचती रहती कि काश वह भी कभी शहर जा पाती. कोई उसे शहर घुमा देता. मंगरा से शहर के विषय में इतनी जानकारी हासिल होने के बाद शहर देखने और वहां के लोगों से मिलने की उसकी उत्सुकता और बढ़ गई थी. एक दिन वह पहाड़ के ढलान पर बैठी यही सोच रही थी कि मंगरा ने पीछे से आकर उसके आँख बंद कर दिए थे. इस पर वह झुंझला गई थी और जोर से चिल्लाई थी कि देख मंगरा मेरा दिमाग अभी ठीक नहीं है. मुझसे इस तरह से मजाक मत कर. उसकी चिल्लाहट पर मंगरा जोर से हंसने लगा था तब वह और अधिक क्रोधित हो गई थी. मंगरा ने उससे कहा था बुधनिया गुस्सा क्यों होती है. अरे आज तो तेरे खुश होने का दिन है. मंगरा की यह बात सुनकर बुधनिया ने कहा था छोड़ मंगरा मेरे नसीब में ख़ुशी कहाँ है रे. तो मंगरा ने कहा था कि तेरे लिए खुशखबरी लाया हूँ. फिर मंगरा ने उसे बताया था की बगल वाले टोले के बगल में जो बड़ा पहाड़ है उसे शहर के किसी कंपनी ने ठेका पर ले लिया है. और वहां पर पत्थर तोड़ने वाली मशीन (क्रशर) बैठने वाली है. जिसे चलाने के लिए शहर से कुछ लोग भी आने वाले हैं. सुना है वहां पहाड़ की तराई पर जो जंगल विभाग का घर (फारेस्ट हॉउस) है न. उसमे शहर से कोई बड़े बाबू भी आकर रहने वाले हैं. जो उस क्रशर मशीन का पूरा काम काज देखेंगे. और जानती है, अच्छी बात यह है कि यहाँ के लोगों को भी कुछ रोजगार मिल जायगा. मंगरा की यह बात सुनकर बुधनिया तो एकदम उछल पड़ी थी. ख़ुशी के मारे वह पागल सी हुई जा रही थी. वह झट से मंगरा से लिपट गई थी. और बोली थी कि मंगरा यह तो सचमुच बहुत ही ख़ुशी की बात है. मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा है. फिर उसने मंगरा से पूछा था कि क्या सच में ऐसा होने वाला है? मंगरा के स्वीकृति में सर हिलाने से वह ख़ुशी के मारे जोर से चिल्ला पड़ी थी. फिर मंगरा का हाथ पकड़कर यह कहते हुए कि चल मै तुझे इसी ख़ुशी में गुड़ खिलाऊँगी, अपने घर की ओर दौड़ पड़ी थी. उस रात को बुधनिया सोच रही थी कि कितना अच्छा होगा वह दिन जब मै शहरी बाबु से मिलूंगी. उसने स्वयं धीरे से बुदबुदाया, क्या शहरी बाबु मुझसे दोस्ती करेंगे? फिर उसने उठकर आईने का टूटा हुआ टुकड़ा उठाया और लालटेन की रौशनी में जाकर अपने चेहरे को निहारकर मुस्कुराने लगी और स्वयं को विश्वास दिलाया कि हाँ,हाँ, शहरी बाबु अच्छे ही होंगे. वह जंगली गंवार थोड़े न होंगे. पढ़े लिखे होंगे. वह मुझसे सहानुभूति अवश्य करेंगे. मै तो मेनेजर बाबु को अपना सहिया (दोस्त) बना लूंगी. उनकी खूब सेवा करूंगी. उन्हें गुड़ के मीठे पकवान बनाकर खिलाऊँगी. इन्हीं बातों को सोचते हुए उसे नींद आ गई थी. अब बुधनिया प्रतिदिन उठने के बाद घर के काम निबटाकर मंगरा के पास जाया करती थी और उससे पूछती कि कंपनी कब आ रही है. शहरी बाबु कब आएँगे. कुछ दिनों बाद आखिर उसकी प्रतिक्षा की घड़ी समाप्त हुई. मंगरा ने आकर उसे बताया कि कल कंपनी के लोग यहाँ आ रहे हैं. बुधनिया ख़ुशी से उछलकर उससे लिपट गई थी. दूसरे दिन बुधनिया प्रातरू काल समय से पहले ही उठकर नहा धोकर तैयार हो गई थी. संदूक से निकालकर उसने सफ़ेद रंग की साड़ी पहना. कानों में बूँदें लगाईं. बालों के जूड़े गुंथे और उसमे गुलैची का फूल खोसकर मंगरा की प्रतिक्षा करने लगी. कुछ देर बाद मंगरा उसे लेने आ गया. उसे देखकर मंगरा ने कहा, “अरे वाह रे बुधनिया तू तो आज एकदम परी लग रही है रे क्या बात है.” उसके इस कथन पर वह थोड़ा शर्मा गई. फिर मंगरा ने उसे कहा, “चल शहरी बाबु आ गए हैं, लोग उनके स्वागत में जा रहे हैं.” उसके बाद बुधनिया मंगरा के साथ चल पड़ी. पहाड़ के लोग रमेश बाबू के स्वागत में खड़े थे और उनमे सबसे आगे गेंदा फूल का हार लिए बुधनिया थी. बुधनिया बहुत ही घबराई हुई थी. उसे पसीने आ रहे थे. थोड़ी देर बाद विश्राम गृह से निकलकर मैनेजर साहब ने उनके पास आकर सबको प्रणाम किया. गाँव के लोगों ने भी उनका अभिवादन किया. मंगरा ने बुधनिया से कहा, “ बुधनिया रमेश बाबू का माला पहनाकर स्वागत करो.” बुधनिया रमेश बाबू को देखकर शर्म से लाल हो रही थी. मंगरा के टोकने पर उसने बढ़कर रमेश बाबू को प्रणाम कर माला पहना दिया. रमेश बाबू बुधनिया को एकटक निहार रहे थे. वह उसे देखकर दंग रह गए थे. जंगल का साक्षात् हुस्न उनके सामने खड़ा था. बुधनिया की कटीली कमर, मांसल भुजाएँ, उभरे उरोज, चेहरे का लावण्य, ऐसी प्राकृतिक सुंदरता तो उनके नजर से आज तक नहीं गुजरी थी. रमेश बाबू से मिलकर सब लोग वापस लौट गए. शाम को मंगरा फिर बुधनिया को लेकर रमेश बाबू के पास गया. बुधनिया उनके लिए अपने हाथों से बनाकर गुड़ की मीठी रोटी और गेंधारी साग ले गई थी. रमेश बाबू ने बुधनिया को देखकर कहा, “ अरे आओ बुधनिया. ” और उसका हाथ पकड़कर अपने बगल में बैठा लिया और उससे बातें करने लगे. उन्होंने रोटी और साग खाकर उसकी बहुत प्रशंसा भी की. शहरी बाबू से पहचान कर बुधनिया बहुत ही प्रसन्न थी. उस रात उसे बड़ी ही मीठी नींद आई. अब बुधनिया प्रतिदिन मैनेजर बाबू से मिलने जाया करती थी. रमेश बाबू ने उसे भी पत्थर चुनने का काम दे दिया था. वह प्रायरू शहरी बाबू के लिए अच्छे अच्छे पकवान बनाकर ले जाया करती थी. पत्थर चुनने के बाद वह उनसे बातें करती थी. कभी कभी शहरी बाबू उसे विश्राम गृह में भी ले जाकर उससे गल्प किया करते थे. वो उसे शहर के विषय में बहुत कुछ बताते थे. बुधनिया अब बहुत प्रसन्न रहने लगी थी. उसे पैसे भी मिलते थे जिससे वह अपनी माँ की आवश्यकताओं की पूर्ती भी करती थी और शहरी बाबू के लिए पकवान भी बनाया करती थी. उसे दोहरी ख़ुशी मिल गई थी. अब उसे विश्वास हो गया था कि अब उसका सपना साकार होने वाला है. शहरी बाबू के स्नेह और आत्मीयता को देखकर उसे भरोसा हो गया था कि एक न एक दिन शहरी बाबू उसे शहर अवश्य घुमाएंगे. वह मन ही मन उनका बहुत आदर करने लगी थी. एक दिन बुधनिया काम से लौट रही थी तभी रमेश बाबू ने उससे कहा कि अरे बुधनिया आज विश्राम गृह का रसोईया छुट्टी पर चला गया है. कई दिनों से वह मुझसे छुट्टी मांग रहा था. आज मैंने उसे छुट्टी दे दिया है. इस पर बुधनिया ने उनसे पूछा कि बाबू तो फिर रात को आप क्या खाएंगे? रमेश बाबू ने हँसते हुए कहा कि खाने को तो कुछ नहीं है, पानी पीकर सो जाऊँगा. बुधनिया ने उनसे कहा कि नहीं नहीं बाबू आप भूखे क्यों रहेंगे. मै आप का खाना बनाकर ला दूँगी. उसके बाद बुधनिया जल्दी जल्दी घर लौटी. हाथ मुंह धोकर उसने चाय पिया. और शहरी बाबू के लिए खाना बनाने लगी. बुधनिया ने खाना तैयार कर डब्बे में भरा और फिर चल पड़ी विश्राम गृह की ओर. जब वह विश्राम गृह पहुंची उस समय अँधेरा हो चूका था. उसने शहरी बाबू को प्रणाम कर उनके कमरे में खाने को रख दिया और वापस घर लौटने लगी तो शहरी बाबू ने उससे कहा कि बुधनिया थोड़ी देर बैठो, इतनी जल्दी क्या है. बुधनिया ने कहा कि नहीं बाबू, मां घर पर अकेली है और काले बादल भी छा गए हैं. तेज बारिश हुई तो मै फंस जाउंगी. उसकी बात को काटते हुए रमेश बाबू बोले. नहीं, नहीं, बादल छंट जाएंगे. थोड़ी देर बैठो, और यदि देर हुई तो मै तुम्हे तुम्हारे घर तक छोड़ दूंगा. बुधनिया चाहते हुए भी उनकी बात काट न सकी. बैठ कर बातें करने लगी. थोड़ी देर बाद रमेश बाबू ने बुधनिया से कहा, “बुधनिया आज सुबह से ही मेरे सर में बहुत दर्द है, क्या तुम थोड़ी देर मेरा सर दबा दोगी.” इस पर बुधनिया ने कहा, “हाँ, हाँ, बाबू क्यों नहीं.” यह कह कर वह उनका सर दबाने लगी. बाहर तेज बारिश शुरू हो गई थी. बीच बीच में जोर से आसमान में बिजली चमक रही थी. बादल भी गरज रहे थे. रमेश बाबू ने कहा, “वाह री बुधनिया तेरे हाथों में तो जादू है, तेरे छूते ही मेरा सर दर्द एकदम ठीक हो गया. कितनी अच्छी है तू.” इसपर बुधनिया ने कहा, “बाबू आप हमारे अतिथि हैं, आपकी सेवा करना हमारा धर्म है.” उसकी बात सुनकर रमेश बाबू ने कहा, “ तो फिर आ बुधनिया, मेरी सबसे बड़ी सेवा कर.” कहते हुए उन्होंने बुधनिया को खीचकर अपनी बांहों में भींच लिया. बुधनिया ने उनसे कहा, “ अरे शहरी बाबू यह आप क्या कर रहे हैं.” रमेश बाबू ने उससे कहा कि वही कर रह हूँ जो मुझे बहुत पहले करना चाहिए था. तू तो जंगल की परी है रे. लालटेन की धीमी रौशनी में भी बुधनिया को शहरी बाबू के आँखों में वासना की भूख साफ़ दिख रही थी. उसने कहा, “नहीं, नहीं, शहरी बाबू यह पाप है. आप ऐसा नहीं कर सकते छोड़िये मुझे. पर रमेश बाबू ने उसे और जोर से दबोचते हुए कहा. “पाप और पुन्य क्या होता है बुधनिया. मेरे हिसाब से इच्छा की पूर्ती करना ही सबसे बड़ा धर्म होता है.” बुधनिया ने कहा नहीं शहरी बाबू मुझे छोड़ दीजिए, मुझे जाने दीजिए. बुधनिया बचाओ, बचाओ चिल्लाती रही. मगर तेज बारिश और बादलों की गरज के बीच उसकी आवाज कहीं दब सी गई थी. इसी खींच तान में बगल में रखा मिट्टी का घड़ा टकराकर फूट चुका था. और कमरे में घुसे एक तेज हवा के झोंके ने लालटेन की रौशनी को बुझा दिया था.






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1 टिप्पणियाँ

  1. कहानी मानव समाज की कटु सच्चाई व्यक्त करती है।
    लेखन समुचित अनुच्छेदो में विभक्त होना चाहिए था।
    "प्रायरू" के स्थान पर "प्रायः" होना चाहिए।

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