रचनाकार परिचय:-
'जादूगर परिन्दे '(गजल)
अभिषेक उपाध्याय श्रीमंत
जन्म एवं जन्म स्थान -
02अक्टूबर 1987,देवराजपुर ,सुलतानपुर,(उत्तर प्रदेश ) के एक जमींदार परिवार में ।
शिक्षा -दीक्षा -----
एम○ए○,बी○एड○,नेट (हिन्दी)प्रारम्भिक शिक्षा गृहजनपद में ही ,स्नातकोत्तर की शिक्षा टी○डी○कालेज जौनपुर से ।
रचनाएँ ----
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित व वाएस पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित 'शब्दों के रंग '(साझा काव्य संग्रह )व 'सत्यम प्रभात'(प्रेरक साझा काव्य संग्रह ) में संकलित ।
सम्पर्क ---
देवराजपुर, तहसील कादीपुर, सुलतानपुर (उत्तर प्रदेश )7054198181 &8922042378
सम्प्रति, वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्व विद्यालय से सम्बद्ध एक महाविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी)के पद पर अनुमोदित होकर अध्यापनरत ।
ई मेल- priyankupadhyay440@gmail.com
जन्म एवं जन्म स्थान -
02अक्टूबर 1987,देवराजपुर ,सुलतानपुर,(उत्तर प्रदेश ) के एक जमींदार परिवार में ।
शिक्षा -दीक्षा -----
एम○ए○,बी○एड○,नेट (हिन्दी)प्रारम्भिक शिक्षा गृहजनपद में ही ,स्नातकोत्तर की शिक्षा टी○डी○कालेज जौनपुर से ।
रचनाएँ ----
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित व वाएस पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित 'शब्दों के रंग '(साझा काव्य संग्रह )व 'सत्यम प्रभात'(प्रेरक साझा काव्य संग्रह ) में संकलित ।
सम्पर्क ---
देवराजपुर, तहसील कादीपुर, सुलतानपुर (उत्तर प्रदेश )7054198181 &8922042378
सम्प्रति, वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्व विद्यालय से सम्बद्ध एक महाविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी)के पद पर अनुमोदित होकर अध्यापनरत ।
ई मेल- priyankupadhyay440@gmail.com
●अभिषेक उपाध्याय श्रीमंत
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ये जादूगर परिन्दे हैं 'हवा में घर बनाते हैं
ये तिनका जोड़कर के जिन्दगी सुंदर बनाते हैं ।
यहाँ हम हैं,मकाँ है, भीड़ भी रिश्तों की है लेकिन
हमीं क्यों खुद को यूँ तनहा यहाँ अक्सर बनाते हैं ।
परों का कोई रिश्ता ही नहीं होता उड़ानों से
उड़ानें उनकी हैं जो हौसलों को पर बनाते हैं ।
दरख्तों के बिना भी ये सफर वैसे का वैसा है
सफर आसाँ यहाँ माँ के चरण छूकर बनाते हैं ।
अरे अब तो हटाओ पश्चिमी रंगों की बदरंगी
नयी पीढ़ी के बच्चों को यही लोफर बनाते हैं ।
यहाँ बस लूट के मंजर हैं, कैसी लोकशाही है
ये खुदगर्जी के आलम देश को बदतर बनाते हैं ।
हमारे इस घरौंदे में अभावों का सुशासन
है
बड़ी शिद्दत से हम चादर को ही बिस्तर बनाते हैं ।
नहीं सम्मान वो जो तू कभी तनकर बना पाया
वही सम्मान हम श्रीमंत यूँ झुककर बनाते
हैं ।
●----अभिषेक उपाध्याय श्रीमंत
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2 टिप्पणियाँ
दिनांक 31/05/2017 को...
जवाब देंहटाएंआप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
आप की प्रतीक्षा रहेगी...
अपनी संस्कृति और जड़ों में समायी समृद्ध विरासत से दूर चकाचौंध की दुनिया से हमें वह हासिल नहीं होगा जो जिसके लिए हम उसके आकर्षण पर मुग्ध हैं. विचारणीय रचना।
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.