रचनाकार परिचय:-
नाम - स्वर्णलता ठन्ना
जन्म - 12 मार्च ।
शिक्षा - परास्नातक (हिन्दी एवं संस्कृत)
यूजीसी-नेट - हिन्दी
वैद्य-विशारद, आयुर्वेद रत्न (हिंदी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद)
सितार वादन, मध्यमा (इंदिरा संगीत वि.वि. खैरागढ़, छ.ग.)
पोस्ट ग्रेजुएशन डिप्लोमा इन कंप्यूटर एप्लीकेशन (माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता वि.वि. भोपाल)
पुरस्कार - आगमन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समूह द्वारा "युवा प्रतिभा सम्मान २०१४" से सम्मानित
प्रकाशित कृतियाँ -‘स्वर्ण-सीपियाँ’ (काव्य-संकलन), ‘स्नेह-साकल्य’ (प्रेम कविताएं)
साथ ही वेब पत्रिका अनुभूति, स्वर्गविभा, साहित्य रागिनी, साहित्य-कुंज, अपनी माटी, पुरवाई,
हिन्दीकुंज, स्त्रीकाल, अनहद कृति, अम्सटेल गंगा, रचनाकार, दृष्टिपात, जनकृति, अक्षर पर्व,
संभाव्य, आरम्भ, चौमासा, साहित्य सुधा, अक्षरवार्ता (समाचार-पत्र) सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओं में
कविताएँ, लेख एवं शोध-पत्र प्रकाशित।
संप्रति - ‘समकालीन प्रवासी साहित्य और स्नेह ठाकुर’ विषय पर शोध अध्येता, हिंदी अध्ययनशाला, विक्रम
विश्वविद्यालय उज्जैन।
संपर्क - 84, गुलमोहर कालोनी, गीता मंदिर के पीछे, रतलाम म.प्र. 457001 ।
ई-मेल - swrnlata@yahoo.in
साँझ
एक दिन मैंने देखा
खूबसूरत सी साँझ
अपने पूर्ण यौवन के साथ
मेरे आँगन में
उतर आई है
उसके आँचल में
मद्धिम किन्तु
अनगिनत तारे
झिलमिलाते हुए
उसके सौन्दर्य को
द्विगुणित कर रहे थे
उसके होंठों और गालों पर
लौटते सूरज की लालिमा
पसरी थी और
दिन भर के अथक परिश्रम
और गोधूलि से
उसके बालों की लटें
उलझ सी गई थी
माथे पर स्वेद बिन्दु
झलक रहे थे
और द्विज का चन्द्रमा
कानों में झूलते हुए
उसके गालों को
चूमने के प्रयास में व्यस्त था
उसकी बड़ी-बड़ी
गहरी कजरारी आँखें
रात्रि को आमंत्रित कर रही थी।
मैं कई पलों तक
उसके सौन्दर्य को
निर्मिमेष ताकती रही
अचानक एक आहट हुई
और मैंने देखा
संध्या ने अपनी चुनर
पूरे आकाश में बिछा दी
और तारे झिलमिला उठे
कानों से द्वितीया का चन्द्र उतार
अम्बर के बीच जड़ दिया
और वह अपने
पूर्ण वैभव के साथ
जगमगाने लगा
आँखों के काजल को
रात्रि के माथे पर
सजा दिया
होंठों की स्मित से
अनगिनत जुगनूओं को
जन्म देकर
खाली हाथ
वह आगे बढ़ गई
उषा का रूप
धारण करने के लिए
उसे फिर
सूर्य का भी तो
स्वागत करना था...।
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