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बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 7 व 8)- [कहानियाँ]- राजीव रंजन प्रसाद

रचनाकाररचनाकार परिचय:-

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।

राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।

राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।

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एक हथिनी के लिये खिंच गयीं तलवारें
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 7)


कभी दक्षिण बस्तर में हाथी बहुतायत में थे। राज्य की सीमा के भीतर अवैध रूप से हाथी पकड़ने को ले कर बस्तर तथा जैपोर राज्य (वर्तमान ओडिशा में स्थित) के बीच प्राय: तनाव अथवा युद्ध जैसी स्थिति बन जाया करती थी। जैपोर राज्य के कुशल शिकारी बस्तर में हाथी पकड़ने के लिये प्रशिक्षित हथिनियों का प्रयोग करते थे। उल्लेख मिलता है कि राजा भैरमदेव के शासन समय में एक बार बस्तर के अधिकारी जयपोर से भेजी गयी हथिनी को अपनी सीमा के भीतर पकड़ने में कामयाब हो गये। अब दोनो ही राज्य इस हथिनी पर अपना दावा करने लगे और बीचबचाव अंग्रेज अधिकारी मैक्जॉर्ज को करना पड़ा। अंग्रेज अधिकारी ने हथिनी को सिरोंचा (वर्तमान महाराष्ट्र में स्थित) बुलवा लिया तथा बस्तर के दावे को खारिज करते हुए उसे जैपोर राज्य को लौटा दिया।

कभी जिस जीव को ले कर विवाद की स्थिति बनती थी आज पूरे बस्तर संभाग के किसी जंगल में हाथी नहीं पाया जाता। कभी वन भैंसे बस्तर की पहचान थी, अंग्रेज शिकारियों ने इस जीव का समूल नाश कर दिया। एक पुराना संदर्भ मुझे बस्तर के जंगलों में किसी समय गेंडा पाये जाने का प्राप्त हुआ है। इन्द्रावती नदी अपनी पूरी यात्रा में बहुत से ऐसे स्थान निर्मित करती है जो गेंडे के लिये स्वाभाविक आश्रय स्थल रहा करते होंगे। भैंसा दरहा जैसे क्षेत्र न केवल जंगली भैंसे बल्कि गेंडे के लिये भी अच्छा हेबीटाट प्रतीत होते हैं। अगर इन संदर्भों के दौर के बस्तर में लौटे तो कल्पना कीजिये कि तब से आज तक कितनी अनमोल जैव-विविधता यहाँ नष्ट हो गयी है?

- राजीव रंजन प्रसाद
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जब असफल रहा अंग्रेज जासूस
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 8)

18 जनवरी 1795 को अंग्रेज जासूस कैप्टन जे डी बलण्ट, चुनारगढ़ होते हुए कांकेर रियासत में प्रविष्ठ हुआ। ईस्ट इंड़िया कम्पनी यहाँ के जंगलों की जानकारी चाहती थी। उसे बस्तर राज्य की सामाजिक-भौगोलिक जानकारियाँ जुटाने के उद्देश्य से भेजा गया था। कोरिया, मातिन, रतनपुर और रायपुर जैसी बड़ी जमीन्दारियों को पार करता हुआ वह कांकेर पहुँचा। कांकेर रियासत के राजा शामसिंह ने कैप्टन ब्लण्ट की आगवानी की। कैप्टन ब्लण्ट का बस्तर राज्य के भीतर स्वागत नहीं था। राजा दरियावदेव ने बस्तर राज्य को रहस्यमयी बना दिया था। आसानी से किसी भी अपरिचित आगंतुक को पार-पत्र प्रदान नहीं किया जाता था। अंग्रेज जासूस ने भोपालपट्टनम की ओर से बस्तर में चुपचाप प्रवेश करने का निश्चय किया। अभी वे सीमा के भीतर सौ गज की दूरी ही तय कर पाये थे कि झाडियों की ओट से दसियों आदिवासी सामने आ गये, सभी के कंधे पर धनुष और हाँथों में वाण। झाड़ियों में होती हुई सरसराहट ने सभी को सिहरा दिया। रह रह कर “टोम्स-टोम्स” की अस्फुट आवाजें उन तक पहुँच रही थी। ब्लण्ट के इशारे पर साथ आये सैनिकों ने पोजीशन ले कर बंदूख तान लिया। एक चेतावनी से भरा तीर कैप्टन ब्लण्ट के निकट से हो कर गुजर गया। भयभीत सैनिक भी गोलियाँ चलाने लगे। ब्लण्ट देख रहे थे कि गोली से घायल साथियों को घसीट कर ले जाते हुए आदिवासी जंगल की ओर लौट रहे हैं। अंग्रेज अफसर ने तुरंत ही पीछे हटना उचित समझा। रात्रि में ही वे गोदावरी के तट पहुँचे और अरपल्ली की जमीन्दारी में प्रवेश कर गये। इसके साथ ही ब्लण्ट का बस्तर राज्य के भ्रमण का हौसला टूट गया था।




- राजीव रंजन प्रसाद


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