नाम: नीतू सिंह ‘रेणुका’
जन्मतिथि: 30 जून 1984
प्रकाशित रचनाएं: ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013), ‘समुद्र की रेत’ कथा संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2016)
ई-मेल: n30061984@gmail.com
तेज़ चलती हुई बस को ड्राइवर ने ज़बरदस्त ब्रेक देकर ऐसे रोका जैसे बस स्टॉप तो रास्ते में था ही नहीं और अचानक कहीं से प्रकट हो गया हो इसलिए उसे विवशतावश ब्रेक लगाना पड़ा हो। लोगबाग अचानक धक्का खाकर एक-दूसरे पर गिरते-गिरते बचे, कुछेक के हाथों से सामान गिर ही गया; और सीट पर कुछेक ऊँघते हुए लोग सामने की सीट से टकराते-टकराते बचे।
इस झटके से मीना की तंद्रा भी टूटी। उसकी गोद में रखा पर्स फिसल कर नीचे गिर गया और उसकी खुली ज़िप से कुछ सामान बिखर गया। और यों वह बीते दिनों के ख़यालों से निकलकर वापस बस में आ गई।
कई लोग मन ही मन ड्राइवर को गाली दे रहे थे कि उनके दाँत-नाक टूटने से बचे। लेकिन कुछ मन को गुस्से का कूड़ेदान नहीं बनाना चाहते थे और इसलिए चिल्लाकर अपना गुस्सा ज़ाहिर कर रहे थे। मीना ने भी सामान बिखर जाने के लिए मन ही मन ड्राइवर को गालियाँ दीं। वहीं बस की फ्लोर पर ख़ाली टोकरी लिए एक बूढ़ी ग्रामीणा बैठी थी जिसने दो-चार चीज़ें उठाकर मीना को पकड़ाईं। मीना कृतज्ञता में मुस्कुराई।
बस फिर चल पड़ी और मीना फिर आराम से बैठ गई। उसने खिड़की से बाहर देखना शुरू किया तो एक दृश्य से दृष्टि चिपक गई। एक कुत्ता एक ए.सी. फोन गैलरी के दरवाज़े के बग़ल में, शीशे की दीवार से सटकर लेटा था। बस चल रही थी इसलिए दृष्टि देर तक न चिपक सकी। मीना ने सोचा ज़रूर इसे दरवाज़े से खुलने-बंद होने पर ए.सी. की ठंडक से राहत मिलती होगी। उफ्! वरना इस चिलचिलाती धूप ने तो जानवरों का भी जीना मुश्किल कर दिया है।
मीना फिर बीते दिनों के ख़यालों में खो गई। उसे याद आ रहा था कि किस प्रकार पिछली गर्मियों में वह गर्मी से अधिक घर की चिल्लम-चिल्ली से परेशान हो थोड़ी देर के लिए रैना दीदी के घर चली जाया करती थी। रैना दीदी का घर कितना साफ़-सुथरा और ठंडक भरा रहता था। कितनी शांति! कोई शोर नहीं! लगता था वहां बैठे राहत के पल कभी ख़तम न हों। मगर ऐसा हो सकता है भला। सबकुछ ख़तम हो सकता है, मगर मेरा दुर्भाग्य ख़तम नहीं हो सकता।
यहाँ कब तक बैठ सकती हूँ मैं। दीदी जाने कहाँ की कहानियाँ सुना रही थीं। साथ में कॉपियाँ भी जाँचती जा रही थीं। मगर मेरी नज़र तो उनके ड्रेसिंग टेबल पर अटकी थी। रंग-बिरंगी चीज़ों से सजा-सजाया।
दीदी को क्या कमी है। दोनों कमा रहे हैं। कुछ ख़ास ख़र्चा है भी नहीं बस मिन्नी को छोड़कर।
पर मेरे इनकी तनख़्वाह में तो इतना बड़ा परिवार कैसे चलता है मैं ही जानती हूँ।
मीना के पीछे की सीट पर बैठे आदमी का मोबाइल एक फिल्मी गीत गुनगुनाने लगा। ध्यानभंग हुआ और जाकर उसकी आवाज़ पर टिक गया। उसकी मोटी भद्दी आवाज़ किसी को जन्मदिन की बधाई दे रही थी। सच है जब तक आदमी मुँह न खोले, तब तक पता ही न चले कि इंसान कोयल की तरह बोलता है या कौवे की तरह।
मीना फिर खो गई।
जन्मदिन था उसका। यहाँ जन्मदिन मनाने का कोई दस्तूर है ही नहीं, न हैसियत। वैसे याद भी कोई नहीं रखता है। मेरा भी किसी को याद नहीं था। मैं चाहती भी नहीं थी कि किसी को याद हो और उन्हें कुछ न कर पाने की कचोट मन में हो। पर मैं ख़ुद कैसे भूल जाती। मुझे तो याद था। रोज़ के बचाए कुछ पैसों से सब्ज़ी ख़रीदते समय मैंने एक लिप्स्टिक और आईलाइनर ख़रीदी। यह जानते हुए भी कि इन्हें लगा के जाना भी कहाँ है। बस मन की एक अतृप्त सी इच्छा पूरी हुई और कुछ नहीं।
कभी-कभी जीवन को नया मोड़ देनेवाली चीज़ें बहुत मामूली, बहुत छोटी-सी भी हुआ करती हैं; जैसे लिप्स्टिक और आईलाइनर।
मैं बाज़ार से आकर मुँह धोने चली गई और जाने क्या सोचकर आज अम्माजी किचन में आई और एक कोने में लुढ़के पड़े झोले से लुढ़के आलू-बैंगन के बीच लिप्स्टिक और आईलाइनर देख लिया।
फिर जो घर में कोहराम मचा। यहाँ क्लर्की कर घर चलाने में नानी याद आ रही है और मैडम को नए-नए फ़तूर सूझ रहे हैं। घर की ख़स्ता हालत को घरवाले अच्छे से समझते हैं और सबने यह भी समझ लिया कि मैंने कंगाली में आटा गीला करने का अपराध किया है। सबको लग रहा है कि सब त्याग का जीवन जी रहे हैं तो एक मैं अय्याशी कैसे कर सकती हूँ।
“इतनी छोटी सी बात के लिए आप ने मुझे कितना कुछ सुना दिया।”
“बात छोटी सी नहीं है मीना। बात घर के हालात को समझने की है। मेरी सीमाओं को समझने की है। मैं नहीं ला सकता वो चमकदार जीवन जिसकी यह झलक है।”
“घर को मैं ही तो संभालती हूँ। मैं ही नहीं समझूँगी? मैंने कुछ तो नहीं मांगा। ये तो बचा-बचाकर ख़रीदा। पहली बार। तुमने एक बार भी कुछ दिया। यह तो मैंने ख़ुद लिया, मांगा भी नहीं। उससे भी तुम्हें चिढ़ है।”
“हाँ मैंने कुछ नहीं दिया। मगर समझो कि कुछ दे भी नहीं सकता.....”
“बस्स्स्। यही बात...”
“तुम कुछ समझती....”
“कुछ नहीं समझना मु...”
“ऐसे कैसे चल .....”
मीना ने गड़गड़ाहट सुनी तो चौंक गई। आसमान में काले बादल घिर आए थे। कहीं तो बारिश हो रही थी क्योंकि हवा ठंडी थी और उसमें सोंधी ख़ुशबू भी घुली हुई थी। अगर बस के पहुँचने से पहले बारिश हुई तो वह भीग जाएगी। छाता नहीं है।
बादल फिर गड़गड़ाए। मीना फिर सोचने लगी कि उस दिन इनकी गड़गड़ाहट ज़्यादा थी या आज इन बादलों की। फिर यह भी सोचा कि उस दिन रैना दीदी के घर का आश्रय ज़्यादा शीतल था या यह सोंधी हवा। जैसे हवा का सोंधापन बता रहा है कि कहीं तो मिट्टी गीली हुई है और कहीं बारिश हुई है वैसे ही रैना दीदी ने मेरी नम आँखें देखकर जान लिया कि मैं लड़कर आई हूँ। उनसे कुछ भी छुपाना मुश्किल है और मैंने कोशिश भी नहीं की। कहीं तो इस भारी मन को बरसना ही था। सो बरसा और बरस कर शांत हो गया।
सब सुना धीर गंभीर मेरी पीर ने और धीरे से यह फुसफुसाई –“तुम कुछ क्यों नहीं कमाती?”
मैं अपनी पीर की आँखें देखती रह गई और वह बोले चली गई और जब रुकी तो मैंने पूछा –“मुझसे नहीं होगा।”
“क्यों नहीं? जब लाली-लिप्स्टिक सोच सकती हो तो उसे कमा पाने का भी सोचो। कुछ नहीं तो अपनी ज़रूरतें पूरी करने लायक रोज़गार।”
“घर और काम, दो अलग-अलग चीज़ें होती हैं दीदी।”
दीदी ने अपना सीना तानकर कहा –“कौन कहता है?”
मुझे शर्मिंदगी हुई; सूरज को दीया दिखाने की।
मैंने सिर झुकाकर जैसे दीदी से कम अपने आप से ज़्यादा पूछा – “मुझे कौन काम देगा?”
“तू साहस तो कर। काम की कमी नहीं है। कुछ न कुछ ज़रूर होगा तेरे लायक।”
उस दिन तो मैं मुँह लटकाए वापस चली आई। मगर यह लगा कि क्या अपने लिए केवल तभी सोच सकती हूँ जब कमाऊँ? इसलिए अब अपने लिए सोचना ही नहीं है। इसी इतमीनान से सो गई।
खिड़की से बाहर ताकती मीना यही सब याद कर रही थी कि बग़ल की सीट पर बैठी ऊँघती औरत उस पर ही निढाल होने लगी। उस औरत को सँभालते हुए वापस बिठाया तो उसकी नींद टूटी और वह ठीक से बैठी।
उस औरत को इतमीनान से बिठाकर मीना के यादों का सफ़र फिर चल पड़ा।
उस रात तो वह ख़ुद को यह तसल्ली देकर सो गई थी कि नौकरी की चुनौती स्वीकारने से अच्छा है कि अपनी इच्छाएं त्याग दे। मगर उस दिन नहीं सो पाई; जिस दिन रैना दी ने सच में एक मौक़ा सामने रख दिया;उसके बाद भी लगभग दो रातों तक नहीं सो पाई ।
“मेरे पिछले स्कूल में एक पार्ट-टाइम टीचर की ज़रूरत है। सातवीं कक्षा को साइंस पढ़ाना है। तुमने तो बी.एस.सी की है न?”
मन तो किया कह दूँ कि अनपढ़हूँ; गँवार हूँ। न साइंस पढ़ी है और न पढ़ा सकती हूँ।
“कहाँ दीदी! किताबें देखें सालों हो गए। कुछ याद थोड़े न है।”
“तो करना क्या है। किताबें देख लेना। सब रिफ्रेश हो जाएगा फिर बच्चों को पढ़ाना।”
मैंने घबराकर कहा –“नहीं दीदी! घर और काम; तौबा! मुझसे न होगा दीदी।”
मैंने और बहाने ढूँढ़े।
“मेरे बिना घर कैसे चलेगा दीदी। सब काम तो मुझे ही देखना होता है।”
“ख़ूब चलेगा। तू चलने देगी तब न। मैंने देखा नहीं है क्या, तू ख़ुद ही सबका बोझा उठाए हुए है। एक बार सबको सबका करने के लिए छोड़कर तो देख। उस पर कभी-कभार मेरी कामवाली बाई की मदद ले लेना। सौ-पचास दे देना; ख़ुशी से एक्स्ट्रा काम कर देगी। पर इस एक्सपेरिमेंट के लिए दस दिन से ज़्यादा नहीं। मौक़ा हाथ से निकल जाएगा।”
बस को ओवरटेक करता हुआ एक बाइकसवार गुज़रा जिसने सबका ध्यान खींच लिया। खींचता भी कैसे नहीं आख़िर बस की घर्घराहट और भड़भड़ाहट भरी आवाज़ को टक्कर देनेवाला जो कोई पैदा हो गया था। तेज़ी से गुज़र रही उस बाइक से फटे साइलेंसर की आवाज़ दूर तक सुनाई देती रही। फिर सब बस के भीतर मस्त हो गए।
मगर मीना के दिमाग़ में उस बाइक सवार की शर्ट कौंध रही थी। वह सोच रही थी आज जो पैसे मिले हैं उसमें एक शर्ट तो पतिदेव के लिए भी बनती है। बिल्कुल वैसी ही जैसी उस बाइक सवार ने पहनी है। उन्हें भी तो इल्म हो कि मेरे कमाने से घर न चल पाए; बेशक उन्हीं के कमाने से चले; पर रफ़्तार तो बढ़ ही सकती है।
उन दिनों मीना ने धीरे-धीरे घर-परिवार के काम उन पर छोड़ने शुरू किए तो देखा सचमुच चमत्कार हो गया। उसके बिना भी सब चल सकता था। सुबह दफ़्तर जाने से पहले वह उन्हें हर चीज़ निकाल कर देती थी; तब जाते थे वे। फिर जब रैना दी वाला एक्सपेरिमेंट आज़माया तो एकाध बार झुँझलाए मगर फिर अपनी सारी चीज़ें ख़ुद लेने के आदी हो गए।
बच्चों के साथ इतनी ज़िद्दो-जहद नहीं करनी पड़ी। उन्हें बस एक बार डाँट दिया –“अपना सामान ख़ुद नहीं ले सकते। मम्मी को नौकरानी बना डाला है।” सबने सोचा लाली-लिपिस्टिक वाले कांड का गुस्सा अभी तक मुझ में है और बदला ले रही हूँ।
सासू माँ की लत छुड़ाने में वक़्त लगा पर दस दिन में वह भी छूट गई। अब रैना दीदी को क्या बहाना दूँ जब ख़ुद को नहीं दे पाई। घर में भी बवाल होगा। होगा ही होगा।
“देख मीना। जब तक तू एक बार सैलरी घर नहीं लाएगी तब तक दो बातें साबित नहीं हो पाएंगी, घरवालों के सामने।”
“क्या दीदी?”
“एक तो तेरी सैलरी की अहमियत। रघु 32 कमाता है। तूझे एक महीने के 16 मिलेंगे, उसका आधा ही सही पर जब इस 16 हज़ार के सामान देखेंगे तो जानेंगे कि गलत ही विरोध किया था।”
“हम्म...और दूसरी बात दी”
“कि तू भी कुछ कर सकती है। कुछ नहीं तो अपना ख़र्चा तो निकाल ही सकती है। आत्माभिमान जगा, थोड़ा।”
मीना के पीछे बैठे आदमी ने उसके कंधे को तर्जनी से कोंचा और वो अपनी तंद्रा से जाग गई।
“मैडम मेरा पेन गिर के आपके पैरों के पास पहुँच गया है। प्लीज़ ज़रा...।”
मीना ने उठाकर पेन दे दिया और सोचने लगी कि आज दो महीने की पार्ट नौकरी के जो बत्तीस हज़ार बने हैं उसमें बच्चों के लिए कुछ पेन-पेंसिल के लिए भी जगह बनती है। आख़िर घर में सब लड़े थे मुझसे, हरेक ने हाय-तौबा मचाई थी तो सबको पता चलना चाहिए कि मेरे साथ दूसरों के दबे मन को भी फैलने का मौक़ा मिलेगा। मगर साथ ही एक आह भी भरी कि पार्ट-टाइम काम था तो टाइम ख़तम हो गया। केवल दो महीने का काम था। काश ये बत्तीस हज़ार फिर-फिर, फिर-फिर कमाने को मिलते।
मैंने भी कम पापड़ नहीं बेले। रातों-रात अपना चैप्टर तैयार करना और उन उद्दंड बालकों को साइंस के सबक के साथ शिष्टाचार का सबक सिखाना। उफ! मगर ये बत्तीस हज़ार सब पूरा करते हैं। और तो और यही नहीं और पापड़ बेलने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
ड्राइवर ने फिर बस को अपने अंदाज़ में रोका। मीना का दिल हुआ कि यह ड्राइवर आख़िर चाहता क्या है कि मैं सीधे तरीके से उठकर दरवाज़े से न उतरूँ बल्कि ज़बरदस्त झटका खाकर सीधे खिड़की से बाहर हो जाऊँ।
मीना उतर गई। यह गली-मुहल्ले उसे कभी बहुत नीरस लगा करते थे। मगर अब रौशनी से भरे लग रहे हैं। काले बादल छंट गए थे, मगर ठंडी हवा बहनी अभी बंद नहीं हुई है।
आज सब घर पर ही मौजूद थे। मीना ने सोचा सबके सामने पैसे निकालेगी तो कितना आनंद आएगा।
मगर मीना ने जब पर्स में हाथ डाला तो एक क्षण के लिए हाथ काँप गए। उसके स्वाभिमान के बत्तीस हज़ार वहां नहीं थे। शायद कहीं और हों सोचकर उसने पूरा पर्स छान मारा। फिर भी तसल्ली न हुई तो पूरा पर्स पलट दिया। बत्तीस चीज़ें बाहर निकल कर बिखर गईं, मगर बत्तीस हज़ार वाला छोटा बटुआ नहीं निकला।
अब वह फूट-फूटकर रोने लगी। उसके शोक में आज सारा घर शामिल था। क्योंकि उसकी कड़ी मेहनत, जिसपर अब तक किसी का ध्यान नहीं गया था, अब सबकी आँखों के आगे नाच गया। और मीना के आगे उस बूढ़ी ग्रामीणा का चेहरा नाच गया जिसने उसे सारी चीज़ें उठाकर दीं, मगर वही नहीं दिया जो उसके आत्माभिमान और कठोर परिश्रम का परिचायक था।
घर वालों को सहानुभूति थी। किसी ने कुछ नहीं कहा। आहत मीना की ज़िंदगी वापस पुराने ढर्रे पर चलने लगी कि एक दिन रैना दीदी आई, उसका ढर्रा बदलने।
“अरी दीदी! आज मेरे ग़रीबखाने में। मैं तो धन्य-धन्य हो गई।”
“हाँ! धन्य-धन्य तो हो गई। लेकिन मेरे आने से नहीं बल्कि जो प्रस्ताव मैं लाई हूँ उससे।”
“अच्छा दीदी! सही में कोई पार्ट-टाइम काम लाई हो क्या।”
“पार्ट-टाइम नहीं; फुल-टाइम भी नहीं और तुम्हारे घर पर ही।”
“क्या मतलब?”
“मतलब तो समझाना पड़ेगा।”दीदी ने अपना दुपट्टा समेटकर कुर्सी पर बैठते हुए कहा।
“देखो जिन बच्चों को तुमने साइंस पढ़ाया था उनके माँ-बाप चाहते हैं कि तुम उन्हें पढ़ाओ। मगर सरकारी तौर पर तो उस साइंस टीचर की जगह तुम्हें नहीं रखा जा सकता न। तो…”
“तो...तो क्या दीदी।”
“तो तुम्हें उन्हें ट्यूशन पढ़ाने का प्रस्ताव है।”
मीना की आँखें चमक गईं।
“और जितना अच्छा पढ़ाओगी उतने बच्चे बढ़ेंगे और सातवीं के अलावा भी बच्चे आने शुरु होंगे। और यहीं घर पर। तुम यह दिन के काम निपटाकर आराम से कर लोगी। है कि नहीं।”
मीना क्या बोलती उसका तो चोरी आत्माभिमान सूद समेत उसे वापस मिल रहा था।
*****
1 टिप्पणियाँ
कहानी नारी को सही दिशा का बोध कराती है। नायिका ने आखिर नोकरी न करके अपने कदम कोचिंग करने की तरफ बढाए। जो भविष्य के लिए अच्छा है। नोकरी में शोषण का शिकार बनने की संभावना बनी रहती है। स्वरोजगार अपनाने से यह खतरा आने की संभावना क्षीण रहती है।
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.