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बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 13 व 14)- [कहानियाँ]- राजीव रंजन प्रसाद

रचनाकाररचनाकार परिचय:-

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद ने स्नात्कोत्तर (भूविज्ञान), एम.टेक (सुदूर संवेदन), पर्यावरण प्रबन्धन एवं सतत विकास में स्नात्कोत्तर डिप्लोमा की डिग्रियाँ हासिल की हैं। वर्तमान में वे एनएचडीसी की इन्दिरासागर परियोजना में प्रबन्धक (पर्यवरण) के पद पर कार्य कर रहे हैं व www.sahityashilpi.com के सम्पादक मंडली के सदस्य है।

राजीव, 1982 से लेखनरत हैं। इन्होंने कविता, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, यात्रावृतांत, समालोचना के अलावा नाटक लेखन भी किया है साथ ही अनेकों तकनीकी तथा साहित्यिक संग्रहों में रचना सहयोग प्रदान किया है। राजीव की रचनायें अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं तथा आकाशवाणी जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। इन्होंने अव्यावसायिक लघु-पत्रिका "प्रतिध्वनि" का 1991 तक सम्पादन किया था। लेखक ने 1989-1992 तक ईप्टा से जुड कर बैलाडिला क्षेत्र में अनेकों नाटकों में अभिनय किया है। 1995 - 2001 के दौरान उनके निर्देशित चर्चित नाटकों में किसके हाँथ लगाम, खबरदार-एक दिन, और सुबह हो गयी, अश्वत्थामाओं के युग में आदि प्रमुख हैं।

राजीव की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं - आमचो बस्तर (उपन्यास), ढोलकल (उपन्यास), बस्तर – 1857 (उपन्यास), बस्तर के जननायक (शोध आलेखों का संकलन), बस्तरनामा (शोध आलेखों का संकलन), मौन मगध में (यात्रा वृतांत), तू मछली को नहीं जानती (कविता संग्रह), प्रगतिशील कृषि के स्वर्णाक्षर (कृषि विषयक)। राजीव को महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कृति “मौन मगध में” के लिये इन्दिरागाँधी राजभाषा पुरस्कार (वर्ष 2014) प्राप्त हुआ है। अन्य पुरस्कारों/सम्मानों में संगवारी सम्मान (2013), प्रवक्ता सम्मान (2014), साहित्य सेवी सम्मान (2015), द्वितीय मिनीमाता सम्मान (2016) प्रमुख हैं।

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कीर्तिमान है किरन्दुल – कोटावलसा रेल्वे लाईन
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 13)

दंतेवाड़ा क्षेत्र में औद्योगीकरण की प्रथम आहट के साथ ही किरन्दुल को विशाखापट्टनम से जोड़ने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी। इस सम्बन्ध में रेल्वे नेटवर्क की संकल्पना दण्डकारण्य-बोलांगीर-किरिबूरू (डीबीके) परियोजना के रूप में हुई थी। यह तीन रेल्वे लाईनों का नेटवर्क था, चूंकि ओड़िशा के किरिबुरू से भी लगभग बीस लाख टन लौह अयस्क जापान को निर्यात किये जाने के करार को संभव बनाना था। किरन्दुल से विशाखापट्टनम को जोड़ने के लिये जो रेलमार्ग नियत किया गया उसकी लम्बाई चार सौ अड़तालीस किलोमीटर थी और आज इसे के-के (किरन्दुल – कोटावलसा) रेल्वे नेटवर्क के रूप में पहचान मिली हुई है।

पूर्वीघाट पर्वत श्रंखला की कठोर किंतु प्राचीन क्वार्जाईट चट्टानों में से सुरंगों का निर्माण करते हुए ब्रॉड गेज लाईने बिछाना जिसपर से भारी-भरकम लौह अयस्क का परिवहन हो सके, कोई साधारण कार्य नहीं था। निर्माण उपकरणों को दुरूह पर्वतीय स्थलों पर ले जाना, लोहे और सीमेंट आदि की ढुलाई किस तरह संभव हुई होगी इसे आज किसी परिकथा की तरह ही सोचा समझा का सकता है। स्वतंत्र भारत को विकास के पथ पर ले जाने वाली कठिनतम परियोजनाओं में से एक किरन्दुल – कोटावलसा रेल्वे लाईन निर्माण के पश्चात इसपर चलने वाली रेल अपनी यात्रा में एक स्थान पर सर्वाधिक 996.32 मीटर की ऊँचाई को भी स्पर्श करती है, साथ ही इस यात्रा का आकर्षण है अन्ठावन टनल (जिनकी सम्मिलित लम्बाई चौदह किलोमीटर से अधिक है) तथा चौरासी बड़े पुलो पर से गुजरने का रोमांच। कल्पना की जा सकती है कि सुरंगों से गुजरते, निकलते और अंधेरे उजाले का खेल खेलती रेलगाड़ी किसी यात्री को कितना अधिक रोमांचित कर सकती है विशेषकर जब उसे अहसास हो कि अपनी यात्रा में वह बारह सौ से भी अधिक पुलों पर से गुजर रहा है। इस कठिनतम निर्माण की उस समय आयी लागत महज पचपन करोड़ रुपये थी साथ ही यह रिकॉर्ड समय में पूरी की गयी परियोजना भी है। वर्ष 1962 में कार्यारम्भ हुआ जिसे वर्ष 1966 में पूरा भी कर लिया गया। वर्ष 1967 से किरन्दुल – कोटावलसा रेल्वे लाईन पर बैलाडिला लौह अयस्क परियोजना से अयस्क का परिवहन आरम्भ हो गया था।

- राजीव रंजन प्रसाद

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रथपति बस्तर शासक
बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ (भाग – 14)


बस्तर पर शासन करने वाले चौथे राजा थे - पुरुषोत्तम देव (1468-1534 ई.)। राजा पुरुषोत्तम देव ने जगन्नाथपुरी की तीर्थयात्रा पेट के बल सरकते हुए की थी। जगन्नाथपुरी में ही उन्हें ‘रथपति’ की उपाधि से विभूषित किया गया था। उस युग की परिस्थितियों को देखते हुए कटक में गजपतियों, सतारा में नरपतियों, बस्तर में रथपतियों तथा रतनपुर में अश्वपतियों की एक महासंघ के रूप में स्थापना की गयी थी जिससे कि मुगलों के विरुद्ध लड़ा जा सके (पी. वंस एगन्यू, ए रिपोर्ट ऑन दि सूबा ऑर प्रोविंस ऑफ छत्तीसगढ़; 1820)। राजा ने बस्तर लौट कर दशहरे के अवसर पर रथयात्रा निकालने की परम्परा आरंभ की जो आज भी कायम है। इस घटना की स्मृति को जीवित रखने के लिये बस्तर में गोंचा पर्व भी मनाया जाता है। बाँस की छोटी छोटी नलियाँ बनायी जाती हैं। ये यह नलियाँ “तुपकी” कहलाती है। इसमें मालकांगनी का फल रख कर बाँस की लकड़ी के दबाव से गोली की तरह चलाया जाता हैं।





- राजीव रंजन प्रसाद


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