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आषाढ़ की रात [कविता] - लावण्या शाह


 लावण्या शाहरचनाकार परिचय:-
बम्बई महानगर मे पली बडी हुई स्वर्गीय पँ. नरेन्द्र शर्मा व श्रीमती सुशीला शर्मा के घर मेरा जन्म १९५० नवम्बर की २२ तारीख को हुआ. जीवन के हर उतार चढाव के साथ कविता, मेरी आराध्या, मेरी मित्र, मेरी हमदर्द रही है.

विश्व-जाल के जरिये, कविता पढना, लिखना और इन से जुडे माध्यमो द्वारा भारत और अमरीका के बीच की भौगोलिक दूरी को कम कर पायी हूँ. स्व-केन्द्रीत आत्मानूभुतियोँ ने हर बार समस्त विश्व को अपना सा पाया है.


पापाजी की लोकप्रिय पुस्तक "प्रवासी के गीत" को मेरी श्राधाँजली देती हुई मेरी प्रथम काव्य पुस्तक "फिर गा उठा प्रवासी" प्रकाशित है.


"स्वराँजलि" पर मेरे रेडियो वार्तालाप स्वर साम्राज्ञी सुष्री लता मँगेशकर पर व पापाजी पर प्रसारित हुए है.



मध्य रात्रि ही लगेगी,
आज पूरी रात भर में!
आह! ये, आषाढ़ की बरसाती रात है!
ऊपर गगन से जल,
नीचे धरा पर टूटता
जोड़ देता, पृथ्वी और आकाश को,
जो अचानक!
तड़ित, विस्मित देह, कंपित,
ओझलाझल है, नज़र से!
बस, चमकीला नीर,
गिरता जो व्यवस्थित
अंधड़ हवा से उछलता, या हल्की,
टपा . . .टप. . .!
पर है धुप्प अँधेरा जहाँ में, हर तरफ़!
काली अमावसी रात,
मानो करेला, नीम चढ़ा!
मैं, असहाय, सहमी,
है जी, उचाट मेरा!
देख रही पानी को,
काली भयानक रात को,
तोड़ कर, काट,
फेंक देती जो विश्व को,
मुझसे, बिल्कुल अलग-थलग,
अलहदा. . .और, मैं, रौंद देती हूँ,
मेरी उँगलियों के बीच में,
मेरी वेणी के फूल!
मेरी व्याकुल मन चाहे
आएँ स्वजन, इस आषाढ़ी रात में
मन पुकारता है, उन बहारों को,
लौट गईं जो उलटे पाँव!
आगत आया ही नहीं, इस बार!
पानी नहीं, मुझे आग चाहिए!

० लावण्या के कोटि कोटि सादर वंदन

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