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मुख को छिपाती रही! [कविता] - डॉ महेन्द्र भटनागर

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 डा. महेंद्र भटनागर रचनाकार परिचय:-


डा. महेंद्रभटनागर
सर्जना-भवन, 110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर -- 474 002 [म. प्र.]

फ़ोन : 0751-4092908 / मो. 98 934 09793
E-Mail : drmahendra02@gmail.com
drmahendrabh@rediffmail.com



धुआँ ही धुआँ है,
नगर आज सारा नहाता हुआ है।
अँगीठी जली हैं
व चूल्हे जले हैं,
विहग बाल-बच्चों से मिलने चले हैं।
निकट खाँसती है छिपी एक नारी
मृदुल भव्य लगती कभी थी,
बनी थी किसी की विमल प्राण प्यारी।
उसी की शक़ल अब धुएँ में सराबोर है।
और मुख की ललाई
अँधेरी-अँधेरी निगाहों में खोयी।
जिसे जिदगी से
न कोई शिकायत रही अब,
व जिसके लिए है न दुनिया
भरी स्वप्न मधु से लजाती हुई नत।
अनेकों बरस से धुएँ में नहाती रही है।
कि गंगा व यमुना-सा
आँसू का दरिया बहाती रही है।
फटे जीर्ण दामन में
मुख को छिपाती रही है।
मगर अब चमकता है
पूरब से आशा का सूरज,
कि आती है गाती किरन,
मिटेगी यह निश्चय ही
दुख की शिकन।





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5 टिप्पणियाँ

  1. नमस्ते, आपकी यह प्रस्तुति गुरूवार 10 अगस्त 2017 को "पाँच लिंकों का आनंद "http://halchalwith5links.blogspot.in के 755 वें अंक में लिंक की गयी है। चर्चा में शामिल होने के लिए अवश्य आइयेगा ,आप सादर आमंत्रित हैं। सधन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही मार्मिक रचना ! सुन्दर शब्द भावों से परिपूर्ण आभार ,"एकलव्य"





    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत मार्मिक रचना . आपकी रचना लेखकों के लिये मार्गदर्शक है. बहुत अच्छी प्रस्तुति.

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ही सुन्दर.....
    अनेकों बरष से धुंए में नहाती...
    मर्मस्पर्शी....
    लाजवाब प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं

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